धर्मवीर भारती

 

धर्मवीर भारती

स्नेह शपथ

हो दोस्त यथा कि वह दुश्मन हो,

हो परिचित या परिचय विहीन,

तुम जिसे समझते रहे बड़ा

या जिसे मान रहे दीन

यदि कभी किसी कारण से

उसके पथ पर उड़ती दिखे धूल

तो सख्त बात कह उठने की

रे, तेरे हाथों हो न भूल

मत कहो कि वह ऐसा ही था,

मत कहो कि इसके सौ गवाह,

यदि सचमुच ही वह फिसल गया

या पकड़ी उसने गलत राह-

तो सख्त बात से नहीं स्नेह से

काम जरा लाकर देखो,

अपने अन्दर का नेह-

अरे, देकर देखो

कितने भी गहराई रहे गर्त,

हर जगह प्यार जा सकता है

कितना भी भ्रष्ट जमाना हो

हर समय प्यार भा सकता है

जो गिरे हुए को उठा सके

इससे प्यारा कुछ जतन नहीं

ओ जलाकर तन, शमाँए दो

अब शलभ की गोद में आराम से सोई हुई

या फरिश्ता के परों की छाँह में

दुबकी हुई, सहमी हुई हों,

पूर्णिमाएँ दो

देवता के अश्रु से धोई हुई

चुम्बनों को पांखुरी दो जवान गुलाब मेरी गोद में ।

सात रंगो की महावर से रचे महताब

मेरी गोद में,

ये बड़े सुकुमार इनसे प्यारा क्या

ये महज आराधना के वास्ते

जिस तरह भटकी सुबह के रास्ते

हरदम बताएँ शुक्र के नभ फूलने

ये चरण मुझको न दें

अपनी दिशाएँ भूलने ।

ये खंडहरो में सिसकते, स्वर्ग के दो गान

मेंरी गोद में

रश्मि पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान मेंरी गोद में ।

 

कविता की मौत

लादकर ये आज किसका शव चले,

और इस छतनार बरगद के तले ।

किस अभागिन का जनाजा है रुका,

बैठ इसके पाँय ते, गरदन झुका,

कौन कहता है कि कविता मर गयी

मर गयी कविता

नहीं तुमने सुना

हाँ वहीं कविता

कि जसकी आग से सूरज बना, धरती जमी,

बरसात लहराई,

और जिसकी गोद में बेहोश पुरवाई ।

पंखुरियों पर थमीं,

वहीं कविता

विष्णुपद से जो निकल

और ब्रह्म  के कमण्डल से उबल

बादलों की तहों को झकझोरती

चाँदनी के रजत-फूल बटोरती

शम्भु के कैलाश पर्वत को हिला

उतर आयी आदमीं की जमीं पर

चल पड़ी फिर मुस्कुराती,

शस्य-श्यामल, फूल, फल, फसलें खिलातीं

स्वर्ग से पाताल तक

जो एक धारा बन बहीं

पर न आखिर एक दिन वह भी रहीं

मर गयी कविता वहीं

एक तुलसी पत्र- औं

दो बूँद गंगाजल बिना

मर गयी कविता नहीं तुमने सुना

भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी

उस अभागिन की अछूती माँग का सिन्दूर

मर गया बनकर तपेदिक का मरीज

सताए से कहीं मासूम सन्तानें

माँगने को भीख हैं मजबूर

या पटरियों के किनारे से उठा

बेचते हैं

अधजले कोयले ।

याद आती है मुझे

भागवत की वह बड़ी मशहूर बात

जबकि ब्रज की एक गोपी

बेचने को दही निकली,

कन्हैया की रसीली याद में

बिसर कर सुध-बुध

बन गयी थी खुद दही ।

और ये मासूम बच्चे भी

बेचने को कोयले निकले

बन गए खुद कोयले

श्याम की माया ।

और अब ये कोयले भी हैं अनाथ

क्योंकि उनका भी सहारा चल बसा ।

भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी ।

यूँ बड़ी ही नेक थी कविता,

मगर धनहीन थी, कमजोर थी,

और बेचारी गरीबिन मर गयी ।

मर गयी कविता

जवानी मर गयी ।

मर गया सूरज, सितारे मर गये,

मर गये सौंदर्य सारे मर गये ।

सृष्टि के आरम्भ से चलती हुयी

प्यार की हर साँस पर पलती हुयी

आदमीयत की कहानी मर गयी ।

झूठ है यह ।

आदमी इतना नहीं कमजोर है

पलक के जल और माथे के पसीने से,

सींचता आया सदा जो स्वर्ग की भी नींव

ये परिस्थितियाँ बना देगी उसे निर्जीव

झूठ है यह ।

फिर उठेगा वह

और सूरज को मिलेगी रोशनी,

सितारों को जगमगाहट मिलेगी

कफन में लिपटे हुए सौंदर्य को,

फिर किरन की नम आहट मिलेगी ।

फिर उठेगा वह,

और बिखरे हुए सारे स्वर समेट

 

पोंछ उनसे खून,

फिर बुनेगा नयी कविता का वितान

नये मनु के नये युग का जगमगाता गान ।

भूँख, खुरेजी, गरीबी हो मगर

आदमी के सृजन की ताकत

इन सबों की शक्ति के ऊपर,

और कविता सृजन की आवाज है ।

फिर उभर कर कहेगी कविता,

क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी,

अभी मेंरी आवाज बाकी है,

हो चुकी हैवानियत की इन्तेहाँ

आदमीयत की मगर आगाज बाकी है ।

लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देती हूँ,

नया इतिहास देती हूँ ,

कौन कहता है कि कविता मर गयी

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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