सिन्धुवादवृत्तम्- तृतीय सिन्धुयात्रा

 

तृतीया सिन्धुयात्रा

 

तदनु सुखेन कालं यापयन् विस्मृतयात्राद्वयक्लेशभरः कुतूहलप्रचुरतया यौवनस्यालसगृहनिवासान्निर्विष्णोऽविगणित-सिन्धुयात्रासुलभकष्टातिशयसम्भवः बालदिभ्यः सभ्यैर्वणिग्जनैः सह भूयः प्रयातो वासरपुरमवाप्य पोताधिरूढोऽन्तरान्तरा मार्गपतितेषु द्वीपेषु सलाभं पण्यजातं विक्रीणानो दिवसगणसमाप्यां यात्रामुद्दिश्याऽवहम्। एकस्मिन् दिवसे सिन्धुमध्ये प्रवहतोऽस्मान् सहसा समुद्भूतः कतिपयदिवसाननुस्यूतो भीष्मः प्रभञ्जन एकत्रान्तरीपे पोताध्यक्षेण परिहर्तुमिष्टेऽपि नियतेर्बलात्सरभसं समक्षिपत्। अथ संविग्नमना: पोताध्यक्षोऽस्मानवादीत्- 'इदमासन्नानि च कानिचिद् द्वीपान्तराणि हिंस्त्रवृत्तिभिः कैश्चनकचाचितशरीरैर्वन्यैर्जनैर्नरभक्षकैर्हस्वाकृतिभिरप्यगण्यैरधिष्ठितानि इति।"

तदेतत्तस्य वचनं निशम्य भीता वयं तेन कथितमगणेयं घोराकृति वन्यमानुषव्रजमनुपदमेवास्मानुद्दिश्य त्वरयाऽऽगच्छन्तं दीर्घलोहितलोमसच्छन्ननिखिलतनुपमश्याम। ते तु तीरमुपगम्य झटिति सिन्धौ क्षिप्तात्मानस्तरन्त उपसृत्य सर्वतोऽस्मत्प्रवहणं पर्यवेष्टयन् उच्चैः किमपि भाषमाणा अस्माभिरनवबुध्यमानभाषास्ते प्रवहणे रज्जुनिचयमलम्ब्य पोतान्तरं प्राविशन्। बलाच्च प्रवहणं तीस्मानीयास्माननिच्छतोऽपि रोधस्यवातारयन्।

एवं सिन्धुयात्राकुशलैः कैवतैर्दूरतः परिहृतप्रवेशेऽस्मिन् प्रदेशे नियत्या क्षिप्ता आत्मपरित्राणेऽक्षमास्तच्छन्दानुरोधेन ताननुसरन्तो वर्त्मनि सुलभानि कानिचित्फलमूलानि प्राणसन्धारणाय भक्षयन्तश्च वयं कञ्चनाध्वानमतिक्रम्य कञ्चिन्महोत्सेधं विशालतोरणमायतबाह्याङ्गणप्रदेश प्रासादमद्राक्ष्म। तदन्तश्च बलात्प्रवेशिता एकत्र गिरिकूटोपमं नारास्थिसञ्चयमन्यत्र च मांसश्रपणाय कृताननैकान् गर्तानवलोक्य भयेन कम्पमानाः कञ्चनकालमालेख्योल्लिखिता इव निश्चलाङ्गा अतिष्ठाम। साध्वसावलुप्तधृतयोऽध्वश्रमपरिखिन्ना वेपथुस्खलच्चरणाश्च वयं निश्चेतना भूमावफ्ताम।

 

तीसरी समुद्री यात्रा

इसके बाद सुखपूर्वक समय बिताते हुए दोनों समुद्री यात्राओं के क्लेशों को भूलकर यौवनोचित उत्सुकता के कारण घर में निवास से खिन्न होकर समुद्री यात्राओं की विपत्तियों की परवाह न करते हुए मैं कतिपय धनी-मानी सभ्य व्यापारियों के साथ फिर से निकल पड़ा और वासरपुर पहुँचकर जहाज पर सवार हो बीच-बीच में मार्ग में पड़नेवाले द्वीपों में लाभ के साथ विक्रेय वस्तुओं को बेचते हुए अनेक दिनों में समाप्त होने वाली यात्रा का उद्देश्य लेकर आगे बढ़ चला।

एक दिन समुद्र के बीच में अकस्मात् भयानक बवण्डर आ गया जो कुछ दिनों तक चलता रहा था। यद्यपि जहाज का अधिकारी एक में हमें ले जाकर बवण्डर से बचाना चाहता था, तथापि उस बवण्डर ने प्रबल दुर्भाग्य के कारण आगे बढ़नेवाले हमलोगों को वेगपूर्वक फेंक दिया। अनन्तर उद्विग्न होकर जहाज के अधिकारी ने हमलोगों से कहा“यह निकटस्थ तथा कतिपय अन्य द्वीप उन अगणित हिंस्र जंगली मानवों से भरे हुए हैं, जिनके शरीर रोवेदार हैं जो नरभक्षी और बौने हैं।"

उसकी इस बात को सुनकर हमलोग डर गए और हम लोगों ने देखा कि जैसा उसने वर्णन किया था उसी प्रकार भयानक आकृतिवाले अगणित वनमानुषों का समूह पीछे-पीछे ही हमलोगों की दिशा में वेग से आ रहा है और जिनका समस्त शरीर लम्बे लाल रोओं से ढंका हुआ है। वे किनारे पर आकर तत्काल समुद्र में कूद पड़े और तैरते हुए आगे बढ़कर उन्होंने चारों ओर से हमारे जहाज को घेर लिया। वे जोर से कुछ बोलते थे जिसे हम लोग समझ नहीं पा रहे थे। वे जहाज की रस्सियों के सहारे जहाज में घुस गये और जबरदस्ती उस जहाज को किनारे लाकर न चाहते हुए भी हमें किनारे पर उतार दिया।

इस प्रकार हमलोग भाग्यवश ऐसे प्रदेश में लाकर फेंकें गए, जहाँ कुशल समुद्री नाविक भी दूर से ही प्रवेश का परित्याग करते थे। वहाँ हमलोग आत्मरक्षा में असमर्थ थे। उनका अनुसरण करते हुए मार्ग में सुलभ कतिपय कन्दमूलों फलों को प्राणधारण के लिए खाते हुए हमलोगों ने कुछ मार्ग अतिक्रमण कर ऐसे प्रासाद को देखा जो अत्यन्त विशाल और जिसका मुख्यद्वार बड़ा तथा बाहरी आँगन विस्तृत था। उसके भीतर उन्होंने हमें बलात् प्रवेश कराया। वहाँ हमलोगों ने एक ओर मनुष्यों की अस्थिराशि को देखा जिसकी तुलना पर्वतशिखर से की जा सकती थी तथा दूसरी ओर मांश पकाने के लिए बनाये गये अनेक गड्ढों को देखा। फलस्वरूप हमलोग भय से काँप गये और कुछ समय तक चित्रलिखित निश्चल से हो गये। भय के कारण हमारा धैर्य नष्ट हो गया। मार्ग के परिश्रम से हमलोग थक गये तथा काँपने के कारण हमारे पैर लड़खड़ाने लगे और हमलोग जमीन पर अचेत होकर गिर पड़े।

अस्तमुपगते च भगवति चण्डदीधितौ समहास्वनं द्वारमुद्घाट्यागतं करालाकृति तालोच्छ्रयं भालस्थलज्वलदेकलोहितचक्षुषं व्यायतदंष्ट्र तुरङ्गमायतमुखमावक्षःस्थलप्रलम्बमानाधरं दन्तावलश्रवसं कङ्कनिशितनखाग्रं पुरुषमेकं निरीक्ष्य गतप्राणा इव वयं निश्चेतनाश्चिरमतिष्ठाम। अथास्मासु लब्धचेतनेषु साकूतं विर्वर्णयन् स मामुपसृत्य गृहीत्वा च शौनिक इव मेषशावकं सर्वतः परीक्षमाणोऽस्थिचर्मावशेषमुपलभ्यात्यजत्। क्रमेण चास्मत्सहचरेषु प्रत्येकं तथैव परीक्षमाणः पोताध्यक्षम् स्थविष्ठं समुपलभ्य कुन्तेन निशितेन सपत्रीकृत्य वैश्वानरं प्रज्वाल्य शूलाकृत्याभ्यन्तरं  नीत्वा जघास। समाप्तभोजनश्चागत्य वज्रनिर्घोषभीषणेन घर्घररवेण दिशोऽभिपूरयन् सुष्वाप। प्रभाते चोत्थितोऽस्मान् भीतिविहस्तांस्तत्रैव प्रासादे समुत्सृज्य क्वचिदयासीत्।

तस्मिंश्च कियडूरं गते तत्प्रबोधनभेयन निखिलां रात्रिं तूष्णीं स्थिता वयं शोकोद्गारैः सकलमेव तं सौधं प्रतिध्वनयन्तोऽस्मत्साधारण वैरिणस्तस्य निबर्हणोपायान् नानाविधान् विचिन्तयन्तोऽपि नैकं समुचितं कर्मण्यमुपलभ्य सचिन्तास्तं दिवसं तस्मिन् द्वीपे भ्रमन्तः फलमूलानि यथालाभं भक्षयन्तः परमेश्वरानुग्रहैकशरणाः सायं भूयस्तं प्रासादं प्रत्यावर्तामहि। स तु नरपिशाचः पूर्ववत् प्रतिनिवृत्यास्मास्वेकं कवलीकृत्याऽऽ. प्रभातमशेत। एवं जीवितनिराशानस्मान् सिन्धुनिमज्जनमेव शरणं मन्यमानांस्तथाकर्तुं प्रवृत्तान्निरीक्ष्यैकोऽन्धता- मिस्त्रपातकविभीषिकयाऽऽत्मघातान्निरवारयत्।

सूर्यास्त होने पर जोर की ध्वनि के साथ दरवाजा खोलकर आए हुये उग्रपुरुष को हमलोगों ने देखा। उसकी आकृति भीषण थी। ऊँचाई ताड़ के समान थी। उसके ललाट में लाल नेत्र चमक रहा था। उसकी नासिका भयंकर थी। उसकी दाढ़ी फैली हुई थी। उसका विस्तृत मुख घोड़े की तरह लंबा था। उसका अधर वक्षस्थल तक लटक रहा था। उसके कान हाथी के समान थे, उसके नखाग्र कंक पक्षी के समान तीखे थे। उसे देख कर हमारे मानों प्राण चले गए और हमलोग बहुत देर तक निश्चेष्ट पड़े रहे।

अनन्तर हमारे होश में आने पर उसने मुझे गौर से देखते हुए पास पहुँच कर जिस प्रकार कसाई भेड़ के बच्चे की चारों ओर से परीक्षा करता है उस प्रकार मेरी परीक्षा कर मुझे अस्थिचर्मावशेष पाकर छोड़ दिया। इसी प्रकार क्रमशः हमलोगों के प्रत्येक साथियों की परीक्षा करता हुआ वह जहाज के अधिकारी के पास गया। उसे मोटा-ताजा समझ तीखे भाले से छेदकर शूल द्वारा आग में सेंककर भीतर ले जाकर खा लिया। भोजन समान भयंकर घरघराहट से दिशाओं को व्याप्त कर सो गया। प्रातःकाल उठकर हमलोगों को भयभीत अवस्था में उसी महल में छोड़ कहीं चला गया।

उसके दूर चले जाने पर हम लोग जो उसके जागने के भय से पूरी रात चुपचाप बैठे हुए थे, इस समय वहीं अपने शोकमय चीत्कारों से पूरे महल को प्रतिध्वनित कर रहे थे। हमलोगों उस शत्रु को मारने के लिए अनेक प्रकार के उपायों को सोचते

हुए एक भी समुचित उपाय को न पाकर चिन्तामग्न थे। तथा दिन भर उस द्वीप में घूमते हुए सुलभ कन्दमूल फलों को खाते थे। उस समय हमलोग केवल परमेश्वर की कृपा के अधीन थे तथा सायं पुनः महल में लौट आते थे।

वह पिशाच पूर्ववत् लौटकर हमलोगों में से एक को अपना ग्रास बनाकर प्रातःकाल तक सोता था। उस समय हमलोग जीवन के प्रति निराश हो चुके थे तथा समुद्र में डूबने को ही सहारा समझकर उसके लिए उद्यत थे। यह देखकर एक ने “अन्धतामिस्र" नामक नरक में गिरने का भय दिखाकर हमें आत्यहत्या से बचा लिया।

अथाहं तान् मत्सहचरानेवमब्रुवम्।

'आर्याः! नन्वयं द्वीपः काष्ठप्रचुरः तत्तेभ्यः फलकानि सम्पाद्य क्वचिद् गूढं निक्षिप्य तदुपयोगौपयिकमवसरं प्रतीक्षेमहि। मया ह्यस्य पुरुषादहतकस्य विनाशायैक उपायश्चिन्तितः। तस्मिन् किल साफल्यमुपगते सधैर्यमत्रैव कमपि पोतं सम्भाव्यागममनुपालयन्तः कालं क्षपयेम। अन्यथा तु फलकाश्रयेण समुद्रमाश्रयेम। अपायबहुलमपि फलकाश्रयेण सिन्थुतरणं नूनमेतन्नरपिशाचमुखकन्दराप्रवेशाच्छ्रेय' इति ते तु एतमुपायमन्वमन्यन्त। अथ वयं बृहन्ति काष्ठफलकानि प्रत्येकं नरत्रयवहनपर्याप्तावकाशानि पर्यकल्पयाम।

सायं च स्ववसतिं भूयः प्रत्यागच्छाम। सोऽपि नररूपधरोऽन्तको यथासमयमुपेत्यास्मास्वेकं जग्ध्वा निदद्रौ। तं च सघर्धरस्वनं निद्रावशमा कलय्यास्मासु धीरधियो नवजना अहं च लोहशूलमग्नौ प्रताप्य तच्चक्षुषि निक्षिप्य तमन्धतामनयाम। सोऽप्यविषह्यवेदनया भृशं तुद्यमानस्तारमाक्रोशन् दूरे स्थितेष्वस्मासु कञ्चन विधर्तु कृतप्रयत्नोऽपि बन्ध्यश्रम इतस्ततः परामृशन् द्वारदेशमवाप्य कुत्रापि प्रययौ।

तस्मिश्चापगतमात्रे वयं सिन्धुरोधो निगूहितं काष्ठफलकसमुदयम वाप्यानाकर्ण्य तद्गर्जनं तं मृतं मत्वा निर्विशङ्काः कस्यचित् प्रवहणस्यागमनं सम्भावयन्त आप्रभातमतिष्ठाम। प्रभातायां च तस्यां युगायमानायां निशायां तमस्मदरातिमात्मतुल्याकारप्रमाणाभ्यामपराभ्यां नरहतकाभ्यां समनुस्त्रियमाणं सत्वरमापतन्तमद्राक्ष्म।

तांश्चावलोक्य ससम्भ्रमं फलकान्यधिरुह्य तानि क्षेपणीभ्यां प्रेरयन्तः सत्वरं पलायामहि। ते तु नराधमा अस्मानिरीक्ष्य क्रोधेन दशनान्

पेषयन्तो महती: शिला अस्मत्फलकेषु तरसाऽस्यन्तस्तानि चूर्णीकृत्य सर्वान् सिन्धुतलेऽमज्जयन्। केवलमहमुभाभ्यां सहचराभ्यां सह फलकमेकमधिरूढो नियत्या तस्या विपदोऽभिरक्षितः सिन्धुमध्यगच्छम्। तत्र च महोर्मिषु क्वचिन्निमज्जन्तः क्वचिच्चोन्मज्जन्तो वयं देवैकनाथाः संशयग्रस्तहृदास्तां क्षपामक्षपयाम। प्रातश्च सुदैववशेन क्वचिद् द्वीपे क्षिप्ताः सानन्दं तत्र समृद्धा मृदीका यथेच्छमुपभुज्य कञ्चिच्छ्रममपानयाम।

अवतीर्णायां च निशायां तीरं सम्प्राप्य प्रसुप्ता अत्यायतप्रमाणस्याजगरस्यैकस्य विसर्पणशब्देनाऽदूरोत्थितेन प्रबुद्धा अभवाम। स चाजगरः क्षणादस्मास्वेकं मुक्तये कृतवृथाप्रयत्नं न्यगिलत्। उर्वरितैकसहचरोऽहं 'हन्त! दुखाद्दुःखान्तरं प्राप्तौ स्वा नराशनात्कथञ्चिद्विमुक्तौ साम्प्रतं सर्पमुखमनुप्रविष्टौ' इति जीविते निराश उच्चैराक्रन्दम्।

अथावयोर्निकटवर्तिनं शाखिनमारुह्य स्थितयोरधस्तादुपगतो महाकायोऽजगरः स्वफूत्कारवेगेन मत्तः किञ्चिदधोवर्तिन्यां शाखायां स्थितं तं मदीयमेकाकिनं सहचरं निगीर्य कुत्रापि न्यलीयत।

एवमेकावशेष आत्मनोऽपि तामेव गतिं सम्भावयन् जीवितनिराश: सिन्धौ निमज्य मर्तुकामोऽपि भूयो जीवनाशया प्रणोदितो रक्षायै परमेश्वरं भूयो भूयः प्रार्थयमानोऽकस्माद् दूरादागच्छत् प्रवहणमेकपश्यम्। शिरः स्थपटेन च कृतसङ्केतस्तत्स्थजनावधानमाकृष्य गृहीतसङ्केतैः पोतवाहैः सपदि सम्प्रेषितां नावमेकामारुह्य पोतं सम्प्राप्नवम्।

 

 

अनन्तर मैंने अपने साथियों से इस प्रकार कहा-“सज्जनों! यह द्वीप लकड़ियों से भरा हुआ है। अतः उनसे फलकों का निर्माण कर उन्हें गुप्त स्थान में रखकर उनका उपयोग करने के लिए हमें अवसर की प्रतीक्षा करनी चाहिए। मैंने इस नरभक्षी पुरूष को मारने के लिए एक उपाय सोच लिया है। उसके सफल होने तक हमें यहाँ पर धैर्यपूर्वक किसी जहाज के आने की प्रतीक्षा करते हुए समय व्यतीत करना चाहिए। अन्यथा फलकों का आश्रय लेकर समुद्र में तैरना चाहिए। यद्यपि फलकों के सहारे समुद्र में तैरना खतरों से भरा हुआ है तथापि यह उपाय नरपिशाच के मुखरूपी गुफा में जाने से कही अधिक श्रेयस्कर है। उन सभी साथियों ने मेरे इस उपाय का अनुमोदन किया। पश्चात् हमलोग ने ऐसे विशाल लकड़ी के पट रों का निर्माण किया जिनमें प्रत्येक पर तीन मनुष्यों के बैठने का पर्याप्त स्थान हो। हमलोग फिर सायंकाल अपने निवास स्थान लौट आये। वह भी वेशधारी यम यथासमय आकर हमलोगों में से एक को खाकर सो गया। उसको नाक बजाते देखकर और सोता हुआ समझकर हमलोगों में से नौ धैर्यशाली व्यक्तियों ने और मैंने लोहे के शूल को गरमकर उसकी आँख में डाल उसे अन्धा बना दिया।

वह भी असह्य वेदना से अत्यन्त पीड़ित होकर जोर से आक्रोश करते हुए दूर पर उपस्थित किसी को पकड़ने के लिए प्रयत्न करने लगा और निष्फल होकर इधर उधर टटोलते हुए द्वार पर पहुँचकर कहीं चला गया। उसके जाते ही समुद्र के किनारे छिपाए हुए लकड़ी के फलकों की राशि को उसकी गर्जना को न सुनने से उसे मरा हुआ समझकर निशङ्क हो किसी जहाज के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए सुबह तक हमलोग वहाँ ठहरे। युग के समान प्रतीत होनेवाली रात्रि जब सुबह में बदल गई तब हम-लोगों ने अपने उस शत्रु को जिनके पीछे उसी के आकार एवं प्रकार के दो दुष्ट आ रहे थे, आते हुये देखा।

उन्हें देखकर जल्दी-जल्दी उन फलकों पर बैठ कर उन्हें डाँडों से चलाते हुए हम जल्दी भागने लगे। उन दुष्टों ने हमें देखकर क्रोध से दाँत पीसते हुए बड़ी चट्टानों को हमारे फलकों की ओर वेग से फेंकते हुए, उन्हें चकनाचूर कर सभी मनुष्यों को समुद्र में डुबो दिया। केवल मैं अपने दो साथियों के साथ एक पटरे पर बैठकर भाग्य से उन विपत्तियों से बचता हुआ समुद्रके बीच आ पहुँचा।

वहाँ उन लहरों में कहीं डूबते हुए तो कहीं उतराते हुए हम लोगों ने भाग्य के अधीन और सन्देहग्रस्त होकर उस रात्रि को व्यतीत किया। प्रातः सौभाग्य से हमलोग एक द्वीप में आ पहुँचे और वहाँ पर आनन्दपूर्वक अच्छी तरह फले-फूले अंगूरों को भरपेट खाकर कुछ थकावट दूर की। रात में सोये हुए हम लोग किनारे पर अतिविशाल अजगर के सरकने की सर-सर ध्वनि से जाग गए। वह अजगर क्षण भर में हम लोगों में से एक को, जो छुड़ाने के लिए व्यर्थ प्रयत्न कर रहा था, निगल गया।

अब मेरा एक ही साथी बचा हुआ था। मैं जीवन के प्रति निराश हो चुका था। जोर-जोर से चिल्लाया-"हाय! हम दोनों एक विपत्ति से छूट कर दूसरी विपत्ति में आ पहुँचे। नरभक्षी से किसी प्रकार छुटकारा पाया तो सम्प्रति अजगर के मुख में जा पड़े।"

पश्चात् निकटवर्ती वृक्ष पर चढ़कर ठहरे हुए हम दोनों में से नीचे आने वाले विशालकाय अजगर ने पूँ-करते हुए वेगपूर्वक मुझसे थोड़ी नीची डाल पर बैठ हुए मेरे एकाकी मित्र को निगला और अदृश्य हो गया। इस प्रकार अकेला बचा हुआ मैं स्वयं उसी प्रकार दुर्गति की कल्पना करते हुए जीवन के प्रति निराश हो, समुद्र में डूब मरना चाहते हुए भी फिर से जीवन

की आशा से प्रेरित होकर, रक्षा हेतु परमेश्वर की बार-बार प्रार्थना करने लगा और अकस्मात् दूर से आते हुए एक जहाज को देखा। पगड़ी के कपड़े से संकेत करता हुआ मैं उस पर सवार लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर संकेत पानेवाले जहाजी यात्रियों द्वारा तत्काल प्रेषित एक नाव पर बैठ कर उस जहाज पर पहुंचा।

 

 

विदितमदद्भुतवृत्तान्ताः पोतवर्तिनो वणिजो मां विपत्सिन्धुतरणायाभिनन्द्य विशीर्ण मन्नेपथ्यं विलोक्य नवेन तेन भोजनोपहारैश्च मामन्वगृहणन्। तैश्च सहित: कानिचिदहानि द्वीपान्तरेषु वाणिज्यया द्रविणमुपार्जयन् सालहतं नाम चन्दनद्रुमप्रभवं द्वीपमुपगत्य संगृहीतप्रचुरचन्दनस्ततः प्रस्थातुकामा पोताध्यक्षेणैवमुक्तः"आय! एतानि पण्यवस्तूनि मत्पोतमारूढपूर्वस्य मार्गे दैवान्मृतस्यैकस्य वणिक श्रेष्ठस्य विक्रीयाखिलं तद्धनं विदापुरं सम्प्राप्तेन भवता तद्दायादेभ्यो दीनमानमभ्यर्थये।" इत्युक्त्वा स तत्पण्यजातमदर्शयत्। तथेत्यभ्युपगम्य पश्यन्नहं तेषु स्यूतेषूल्लिखितमात्मनोऽभिधानमवलोक्य पोताध्यक्षं तं द्वितीययात्रायां प्रसुप्तं मामेकाकिनं परित्यज्यापसृतं प्रत्यभिज्ञायापृच्छम्आर्य! किन्नामधेयोऽसौ यस्यैतद्वस्तुजातम्?" इति।

सोऽब्रवीत्-"भद्र! एतानि तानि विदामपुरवासिनो वणिगग्रगण्यस्यार्यसिन्धुवादस्य। यः किल द्वीपमेकमवतीर्य सहसाऽदृश्यतां गत इति।' आर्य! सोऽहं सिन्धुवादो यं भवांस्तस्मिन् द्वीप एकाकिनं सुप्तं परित्यज्यापयात' इति ब्रुवाणं मां क्षणं निर्वर्ण्य प्रत्यभिज्ञाय च प्रहृष्टः "आर्य सिन्धुवाद! दिष्ट्या भवन्तं तीर्णापदं भूयो विलोकयामि'' इति समभिनन्द्य तत्पण्यजातं मदधीनमकरोत्। ततश्च प्रस्थितोऽहं मार्गे द्वीपभ्रमाधायिनो महिष्ठान् कमठान्, धेनूरिव पयस्विनीचित्रवर्णाः काश्चिन्मत्स्यीः साश्चर्यं विलोकयन् क्रमेण वासरपुरं सम्प्राप्य समुपार्जितापरिमितवसुविसरो दोनेभ्योऽतिसृष्टविपुलधनो विषयसुखोपभोगैकपर: समयमयापयम्।"

इत्येवं तृतीयसिन्धुयात्रावर्णनं परिसमाप्य सिन्धुवादः पूर्ववद्वितवादाय दत्तशतदीनारः सर्वैरतिथिभिः सहान्येद्यु क्तुं चतुर्थयात्रावर्णनमाकर्णयितुं चानुरुध्य तं विससर्ज। अन्येधुश्च स यथासमयं निर्वर्तितभोजनेषु तेषु सहितवादेषु दत्तावधानेष्वित्थं स्वां चतुर्थी सिन्धुयात्रां वर्णयामास-

 

 

 

मेरे आश्चर्यकारक वृत्तांत को सुनकर जहाज में सवार व्यापारियों ने विपत्तिरूपी सागर से बचने के लिए मेरी प्रशंसा कर मेरे वस्त्रों को जीर्ण शीर्ण देखकर नया वस्त्र देकर और भोजन कराते हुए मेरे ऊपर अनुग्रह किया। उनके साथ कुछ दिन तक अनेक द्वीपों में व्यापार द्वारा धनोपार्जन करते हुए मैं “सालहत" नाम के द्वीप पर पहुँचा जहाँ चन्दन वृक्ष होते थे। वहाँ प्रचुर चन्दन एकत्रित कर जब मैं वहाँ से जाने की इच्छा करने लगा, तब जहाज के अधिकारी ने मुझसे कहा“आर्य ! ये विक्रेय वस्तुयें उस वणिक् श्रेष्ठ की हैं जो मेरे जहाज पर पहले सवार हुआ था और दुर्भाग्यवश मार्ग में मर गया। मैं प्रार्थना करता हूँ कि इन्हें बेचकर इससे प्राप्त समम्त धनराशि जब आप विदामपुर पहुंचे तो उनके उत्तराधिकारियों को दे दें।"

यह कहकर उसने मुझे सम्पूर्ण वस्तुयें दिखायीं। 'ठीक है' ऐसा कहकर मैंने उन्हें देखा और उन वस्तुओं पर अपना नाम देखकर मैंने पहचाना कि यह वही जहाज का अधिकारी है जो दूसरी यात्रा में मुझे सोए हुए छोड़कर चला गया था।

मैंने उससे पूछा “महोदय! उस यात्री का नाम क्या था जिसकी ये हैं। उसने उत्तर दिया-"महोदय ! विदमपुर निवासी वणिक श्रेष्ठ आर्य सिन्धुवाद की ये वस्तये है। जो एकद्वीप पर उतरकर अकस्मात् अदृश्य हो गया था।" 'आर्य ! वही मैं सिन्धुवाद हूँ जिसे आप उस द्वीप पर अकेले सोए हुये छोड़ कर चले गये थे" मैंने कहा। वह क्षण भर मुझे देखकर और पहचानकर आनन्दित हुआ-"आर्य सिन्धुवाद ! भाग्य से मैं आपको पुनः देख रहा हूँ, जिन्होंने इतनी आपत्तियों को पार किया है"

इस प्रकार मेरा अभिनन्दन करते हुए उसने वे समस्त वस्तुयें मेरे अधीन कर दी। इसके बाद वहाँ से प्रस्थान करते हुए मैंने मार्ग में विशाल कछुओं को आश्चर्यपूर्वक देखा जो द्वीपों का भ्रम उत्पन्न कर रहे थे। उसी प्रकार अनेक रंगबिरंगी मत्स्यागनाओं को देखा जो दुधारू गायों के समान प्रतीत हो रहीं थीं। क्रमशः मैं वासरपुर पहुँचा। वहाँ मैंने अपरिमित सम्पत्ति जो अर्जित की थी, उनसे दीनदुखियों को अधिक मात्रा में दान कर, खूब मौज करते हुए आनन्दपूर्वक दिन बिताने लगा।

इस प्रकार अपनी तीसरी समुद्री यात्रा का वर्णन समाप्त कर सिन्धुवाद ने हितवाद को सौ दीनार दिये तथा सभी अतिथियों के साथ दूसरे दिन भोजन करने के लिए और चौथी यात्रा का वृत्तान्त सुनने के लिये अनुरोध कर उसे घर जाने की अनुमति दी। दूसरे दिन हितवाद के साथ यथासमय सभी अतिथियों के भोजन सम्पन्न कर के दत्तचित्त होने पर वह अपनी चौथी समुद्री यात्रा इस प्रकार सुनाने लगा।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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