सिन्धुवादवृत्तम्- चतुर्थ सिन्धुयात्रा

 

चतुर्थी सिन्धुयात्रा

एवं सुखान्यनन्यसुलभानि भुञ्जानोऽपि भूयो व्युत्थितसमुद्रयात्रोत्कटोत्साहः सम्भाव्यलाभान्युच्चावचानि वस्तूनि संगृह्य पोतमारूढः पौरस्त्यान्तरीपानुद्दिश्य प्रायाम्। एकस्मिन् पुनरहनि समुत्थितया भीषणया वात्यया भग्नप्रवहणेष्वस्मासु बहवः सपदि प्राणांस्तत्यजुः। कतिपयावशिष्टवणिग्जनसहायो दैवात् फलकमेकमारुह्य वीचिवेगेन समुह्यमान एकत्र द्वीपे प्रक्षिप्तः कानिचित् फलानि संभुज्य पीत्वा च. प्रस्त्रवणाम्भः किञ्चित् समुच्छ्वसितः शुचातः क्षीणबलतया द्वीपस्थानि वस्तून्यवलोकयितुमप्यनुत्सहमानस्तत्रैव सिन्धुरोधसि निपत्य निद्रितोऽभूवम्। प्रभातायां यामिन्यामुदिते भगवति दिवाकरे प्रबुध्यमानानितस्ततो विचरतः कांश्चिद्वसतो दूराद्विलोक्य शरणाशया तत्रोपसृतानस्मानकस्मादापतिताः परःशता असिताङ्गाः पुरुषाः समुपगम्य  बन्दिनोऽकार्युः, गणशश्चास्मान् विभज्य स्वगृहाभिमुखभिजग्मुः। अहं पञ्चभिरपरैः सहचरैः सहैकं गृहमनायिषि। अथ ते कालपुरुषाः कानिचिद् वृक्षमूलानि वितीर्यास्मान् संकेतैस्तानि भक्षयितुं प्रेरयामासुः। स्वयं तान्यनास्वाद्य केवलमस्मतांस्तानि भोत्तुम् कृतानुरोधाँस्तान् वीक्ष्य शङ्काकुला अपि क्षुधाऽऽतुरा मत्सहचरा यथेच्छं तानि जघसुः। अहं तु तान् सन्दिहानस्तानि प्रत्यादिशम्। अचिराच्चास्मत्सहचरास्तानि भुक्त्वा विस्मृतात्मानः किमपि प्रलपितुमारभन्ता तैश्चोपहतं नारिकेलतैलपाचितमोदनमातृप्तेरभुञ्जत। अनिच्छन्नण्यहं प्राणसन्धारणाय किञ्चिदभ्यवाहरम्। ते हि कालपुरुषाः पुरुषादापसदा अस्मान् प्रथममोषधिविषेण विमोह्य तैलपक्वोदनेन पीवरतां नीत्वा भोक्तुमकामयन्त। एवं पीनतामापादिता स्तपस्विनो मम सखायः क्रमेण तेषामामिषतामयासिषुः। अहं तु मृत्योर्भयेन प्रत्यहं क्षीयमाणोऽत्यल्पमश्नन्नस्थिपञ्जरावशेषो मत्पीवरतनुतां प्रतीक्षमाणैस्तैः कञ्चन कालं विमुक्तः स्वच्छदं चरितुमप्यनुमतः कमपि समयं चिन्तासन्ततमनैषम्। एवं लब्धावसर एकस्मिन् वासरे तां वसतिं विहाय पलायने मति व्यघाम्। मनिरीक्षणकार्यनियोजितेनानुमितमत्पलायनाभिप्रायेण स्थविरेणैकेन परावर्तितुम् समाहूयमानोऽपि त्वरितगतिस्तस्य दृशोर गोचरोऽभवम्। सप्तवासरान् निरन्तरं प्रधावमानस्तत्रोपलब्धैर्भूरिभिर्नारिकेलफलैः केवलं निवारितक्षुत्पिपासा प्रतिक्षणं मदन्वेषणपराणां तेषामासत्तिं विशङ्कमानः कथमप्यष्टमे दिवसे सिन्धुतटमुपगतः कांश्चित् सिताङ्गान् जनान् प्रचुरमरिचनिचयव्यापृतान् विलोक्य निर्भयं तानुपासरम्। "कुतो भवान्?" इति मद्देशभाषायां पृच्छतस्तानुदितप्रहर्षोऽहं निखिलं स्वागमप्रकारमकथयम् नराशनमुखगतस्यापि मम ततो विमुक्तिवृत्तान्तमाकर्ण्य विस्मितास्ते सानन्दं मामभ्यनन्दन्।

चतुर्थ समुद्री यात्रा

इस प्रकार यद्यपि मैं दूसरों के अप्राप्य सुखों का उपभोग कर रहा था तथापि फिर से मेरे मन में समुद्री यात्रा का उत्कट उत्साह जागा और जिनसे लाभ हो सकता था ऐसी अनेक प्रकार की वस्तुओं को एकत्रित कर जहाज पर सवार हो कर पूर्वी द्वीपों की ओर चल पड़ा। पुनः एक दिन उठे हुए भयानक बवंडर से जब हमारे जहाज टूट गये तो उसमें सवार अनेकों ने तत्काल प्राण छोड़ दिये। कतिपय बचे हुए व्यापारियों के साथ मैं भाग्यवश एक पटरे पर सवार होकर लहरों के वेग से बहता हुआ एक द्वीप पर फेंका गया। वहाँ कुछ फल खाकर और झरने का पानी पीकर मैं कुछ साँस ले सका। किन्तु शोक से व्याकुल मेरी शक्तिक्षीण होने के कारण द्वीप में स्थित वस्तुओं को देखने का उत्साह मुझमें नहीं रह गया था। अतः वहीं पर समुद्र के किनारे सो गया। रात्रि व्यतीत होने तथा प्रातःकाल सूयोदय होने पर हम लोग जाग गये और इधर-उधर विचरण करनेवाले वहाँ दूर से ही कुछ बस्तियों के लोगों को देखकर शरण की आशा से उनकी ओर बढ़ने लगे। ऐसी अवस्था में हमें देखकर सैनिक खड्गधारी पुरुष अकस्मात् मेरे पास आ पहुँचे और मुझे बन्दी बना लिया। हमें अनेक समूहों में विभक्त कर वे अपने घर की ओर ले गये।

मैं अन्य पाँच सहयात्रियों के साथ एक कमरे में ले जाया गया। पश्चात् वे कालपुरुष कुछ वृक्षमूलों को देकर हमें संकेतों से खाने के लिये प्रेरित करने लगे। स्वयं न खाकर केवल वे उन्हें हमें ही खाने के लिए प्रेरित कर रहे थे। उनको देखकर हमारे साथी यद्यपि शंकाकुल थे तथापि भूख से व्याकुल होकर वे उन्हें यथेच्छ खाने लगे। मैंने तो उनके प्रति सन्देह करते हुए उनका बहिष्कार किया। थोड़ी ही देर मैं मेरे साथी उन्हें खाकर स्वयं को भूलते हुए कुछ प्रलाप करने लगे। और उनके द्वारा दिये हुये नारियल के तेल में पके हुए चावल का उन्होंने आकंठ भोजन किया। न चाहते हुए भी मैंने प्राण-रक्षा के लिए कुछ खाया। वे अधम नरभक्षी हमलोगों को पहले विशेष प्रकार की औषधि से बेहोश कर फिर तेल से पके हुए चावल खिलाकर हृष्ट-पुष्ट करते हुए खाना चाहते थे। इस प्रकार हृष्ट-पुष्ट होकर मेरे बेचारे मित्र क्रम से उनके भक्ष्य बन गये। मैं तो मृत्यु के भय से प्रत्येक दिन दुर्बल होता हुआ अत्यन्त स्वल्प भोजन करने से अस्थिपंजर मात्र रह गया। वे मेरे हृष्ट-पुष्ट होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ समय के लिये मुझे छोड़ दिया गया था तथा स्वच्छन्द विचरण के लिये मुझे अनुमति मिली थी।

इस प्रकार मैंने कुछ समय निरन्तर चिन्ता में व्यतीत किया। एक दिन अवसर मिलने पर मैं वह स्थान छोड़कर भागने का विचार करने लगा। मेरे निरीक्षण के लिये नियुक्त एक वृद्ध जो मेरे भागने के विचार का अनुमान लगा चुका था, उसके द्वारा वापस बुलाये जाने पर भी मैं अपनी गति तेज करता हुआ उसकी आँखों से ओझल हो गया। निरन्तर सात दिन तक दौड़ता हुआ मैं वहाँ पर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नारियल के फलों से ही केवल भूख-प्यास बुझाता रहा, प्रत्येक क्षण मेरी खोज में लगे हुए उनके पास में आने की शंका करता हुआ मैं किसी प्रकार आठवें दिन समुद्र के किनारे पहुँचा। वहाँ पर कुछ गौरवर्ण पुरुषों को मिर्च की राशि को प्रचुर मात्रा में एकत्रित करते हुए देखकर निर्भय होकर उनके पास पहुँचा।

'आप कहाँ से आ रहे हैं?" इस प्रकार मेरी देशभाषा में पूछनेवाले उन लोगों को मैंने प्रसन्न होकर अपने आगमन का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया। नरभक्षी के मुख में जाने पर भी मेरी मुक्ति की कहानी सुनकर वे आश्चर्यचकित और आनन्दित होकर मेरा अभिनन्दन करने लगे।

 

अथ तैः सह कानिचिदहानि मरिचसञ्चयकर्मणि तत्रातिवाह्य प्रवहणमधिरूढस्तेषां निवासभुवं द्वीपमेकमुपागतस्तैः सकुतुकं तत्रत्यनरपति सम्प्रापितोऽभवम्, स च परमोदाराशयोऽस्मद्वृत्तान्तश्रवणविस्मितात्मा मह्यमुपहतनववसनो मां समाराधयितुमधिकृतान् समादिदेश। लत्र च समृद्धे द्वीपे महनीये गृहे वसन् प्रत्यहमभिवर्धमानराजप्रसादो राजानुवर्तिभिर- धिकारिभिरिभ्यैर्जनैश्च सहोपचितस्नेहः सुखेनावात्सम्।एकदा तत्रत्यानिखिलान् जनान् नराधिपमपि तुरगानपर्याणान -वल्गानपादग्रहणीकानारोहतोऽवलोक्य विस्मितो राजानमपृच्छम्- "देव! समृद्धेऽत्र भवद्राज्ये कथं तुरङ्गमा: पर्याणवल्गापादग्रहिकाभिरसज्जिताः समारुह्यन्ते?" इति। स तु तेषां नामाप्यजानन् व्यस्मयत।

अथाहं लोहचर्मकारानुपेत्य प्रदर्शितादर्शस्तान्यश्वपर्याणादीनि सम्पाद्य नृपाय समुपाहरम्। स च तैः स्ववाह्यम् तुरङ्गममलङ्कृत्य तमधिरूढः प्रसन्नमना बहुपारितोषिकं मह्यम् व्यतरत्। अथाधिकारिभिरिभ्यजनैश्चान्यैः सम्प्रार्थितस्तानि पर्याणादीनि विरचय्य तेभ्य उपहृत्य तैः प्रसन्नमानसैः प्रदत्तं विपुलं वसु समुपार्जयम्। सर्वेषां च स्नेहपात्रमभवम्।

प्रत्यहं राजसभामुपासीनं मामेकस्मिन्नहनि भूपतिरुवाच"आर्य! भवन्तं गुणाकरं विलोक्योपस्निहतीवास्माकमन्तरात्मा सर्वाश्चास्मदीयाः प्रकृतयो भवन्तमनुरक्ताः। अद्यैकस्मिन् विषये भवन्तं किञ्चिदनुरोद्भुमिच्छामि न तदार्येण प्रत्याख्येयम्' इति।

अहं तं प्रत्यवोचम्-"सर्वथा प्रभवति देवोऽस्योपकारभरक्रीतस्य शरीरस्य। तद्यथेच्छमादेशदानेनानुगृह्यतामयञ्जन इति।"

"आर्य! भवन्तमिह कृतदारपरिग्रहं सुखिनं द्रष्टुमिच्छामि। इत्येवंवादिनस्तस्य प्रणयप्रार्थनामिमां प्रत्यादेष्टुमसञ्जातसाहसोऽहं

'यथाज्ञापयति देव' इति तदभ्युपागमम्। अयैकया तरुण्या रमण्या कृतोद्वाहस्तया सह गार्हस्थ्यसुखमनुभवन्नपि जन्मभूमिस्नेहेन बलवत्तरेण प्रेरितस्ततोपसरणावसरं प्रतीक्षमाणः कालं कञ्चनाक्षपयम्। एवं मयि ततः पलायनोपायन्वेषणपरायणे कस्यचिदस्मत्प्रणयिनः प्रातिवेशिकस्य भार्या रुगार्ता सहसाऽम्रियत। तं च शुचा व्याकुलं समाश्वासयितुं गतः 'चिरञ्जीव' इति वदन्नहं तेनोक्त:  -"भद्र! किमिदमसम्बद्धं प्रार्थयसे? ननु घटिकामात्रावशेषो मञ्जीवनावधिः, अचिरादेव प्रिययोपरतया सह भूमौ निखातो भविष्यामि। सोऽयमेतद्देशस्याचारो यद्दम्पत्योरेकस्मिन् मृतेऽपरोऽपि तेन सार्धं भूमिसात् क्रियते। सर्वैरपि जनैरलङ्घनीयोऽयं नृशंसः समुदाचार इति।

ईदृशनृशंसाचारप्रवणसञ्जातसाध्वसे मयि तस्य सम्बन्धिनो बान्धवाः सखायः प्रतिवेशिनश्च तदौर्बदैहिककर्मसंविधानाय समाजग्मुः, तां च तस्योपरतां भार्याम् महार्घनेपथ्येन सज्छाद्य विभूष्य च समग़रलङ्करणैः शवयाने बद्ध्वा शोकोचितनेपथ्येन तद्भर्ना सम्बन्धिबान्धवैश्च समनु-.सृतामदूरवर्तिनोऽत्युच्चस्यैकस्य शिखरिण उपत्यकां नीत्वाऽपनीतपिधान एकत्र महागर्ते रज्जुभिरवातारयन्। तदनु तस्याः पतिमापृष्टबान्धवगणमविहितप्रतिबन्धलेशं तत्रैव शवयाने पार्श्वनिहिताशनजलपूर्णकलशे

निवेश्य तस्मिन्नेवातिगभीरे गर्तेऽवतार्य गर्तमुखञ्च शिलया समाच्छाद्य स्वं स्वं गृहमयासिषुः। ईदृक्क्रूचारनित्यपरिचिततया सर्वथाऽनाकुलांस्तांस्तद्वान्धवान् विलोक्य विस्मयोद्वेगशबलस्वान्तोऽहं नितरां कुण्ठितमतिरभवम्। राजानं च तमवोचम् - "देव! जीवितजननिखननाचारमिमं जगति क्वचिदप्यदृष्टश्रुतपूर्व भवद्राज्ये प्रचलन्त वीक्षमाणस्य मम दलतीव हृदयम्। अमानुषः सोऽयं समुदाचार" इति।

पश्चात् उनके साथ वहाँ पर कुछ दिन मिर्च को एकत्रित करने में समय बिताकर मैं जहाज पर सवार होकर उनकी निवास भूमि के एक द्वीप पर पहुँचा और उनके द्वारा वहाँ के राजा के पास पहुँचाया गया। वह अत्यन्त उदार स्वभाव का था। मेरे वृत्तान्त को सुनकर आश्चर्यचकित होते हुए उसने मुझे नवीन वस्त्र प्रदान किये और मेरी सेवा करने के लिए अधिकारियों को आदेश दिया। उस सम्पत्र विशाल द्वीप के घर में रहते हुए प्रत्येक दिन राजा की कृपा बढ़ने लगी, राजा के अनुचर अधिकारी और सैनिकों के साथ मेरा स्नेह बढ़ने लगा। इस प्रकार मैं वहाँ सुखपूर्वक रहने लगा।

एक बार वहाँ पर मैंने सम्पूर्ण लोगों को तथा राजा को भी ऐसे घोड़ों पर सवार होते हुए देखा जिनपर न तो जीन थी, न तो लगाम थी और न तो पावदान था। यह देखकर आश्चर्यचकित होते हुए मैंने राजा से पूछा"महाराज! आपके इस सम्पन्न राज्य में लोग किस प्रकार बिना जीन, लगाम और पादग्राहिका (पावदान) के ही घोड़ों पर सवार होते हैं?"

वह तो उनका नाम तक नहीं जानता था। यह सुनकर मैं आश्चर्यचकित हो गया। पश्चात् मैंने लोहार और चर्मकारों के पास जाकर उन्हें नमूना दिखाते हुए उनके द्वारा जीन आदि बनवाकर राजा को उपहारस्वरूप अर्पित किये। उसने अपने वाहनयोग्य अश्व को सजाकर और उस पर आरूढ़ हो प्रसन्नचित्त से मुझे प्रचुर परितोषिक दिया। अनन्तर अधिकारियों और अन्य धनी-मानी व्यक्तियों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर मैंने जीन आदि का निर्माण कराकर उन्हें अर्पित किया तथा प्रसन्नचित्त होकर उनके द्वारा अर्पित विपुल धन अर्जित किया। इस प्रकार मैं सभी का स्नेहभाजन बन गया।

मैं प्रतिदिन राज सभा में उपस्थित होता था कि एक दिन राजा ने मुझसे कहा"आर्य! आप जैसे गुणों की खान को देखकर हमारी अन्तरात्मा अत्यन्त प्रसन्न होती है। हमारी सम्पूर्ण प्रजा आप पर अनुरक्त है। आज पर आपसे कुछ अनुरोध करना चाहता हूँ। आप उसको अस्वीकरा न करें।"

मैंने उन्हें उत्तर दीया-आपने मेरा यह शरीर उपकारों के भार से खरीद लिया है। महाराज का इस पर पूरा अधिकार है अतः आप इस व्यक्ति पर स्वेच्छापूर्वक आदेश का अनुरोध करते हुए कृपा करें।

"आर्य! मैं चाहता हूँ कि आप विवाह करें और सुखी हों।" इस प्रकार जब वे मुझसे प्रेमपूर्वक अनुरोध करने लगे, तब मैं उनकी प्रेम पूर्वक प्रार्थना को ठु करा न सका। “महाराज जैसी आज्ञा दें" ऐसा कहते हुए मैंने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया। अनन्तर एक युवती के साथ मेरा विवाह हुआ। मैं उनके साथ यद्यपि गृहस्थोचित सुख का अनुभव कर रहा था तथापि, अपनी जन्मभूमि के उत्कट प्रेम से प्रेरित होकर वहाँ से निकलने के अवसर की प्रतीक्षा करते हुए मैंने वही कुछ समय बिताया।

इस प्रकार मेरे वहाँ से भागने का उपाय खोजने के लिये उद्यत होने पर एक दिन मेरे स्नेही किसी पड़ोसी की पत्नी रोगग्रस्त होककर अकस्मात भर गयी। जब मैं उस दुःखी को आश्वासन देने के लिए गया कि “तुम चिरञ्जीवी रहो। तो उसने मुझसे कहा"मित्र! तुम यह क्या असंगत कामना कर रहे हो, अरे मेरे जीवन की तो कुछ ही घड़ियाँ शेष हैं। अतिशीघ्र ही अपनी प्रेयसी के साथ जनीन में गाड़ा जाऊगाँ। क्योंकि यह हमारे देश की परम्परा ही है कि पति पत्नी में से एक के मरने पर दूसरे की भी उनके साथ गाड़ा जाता है। इस नृशंस परम्परा का कोई भी उल्लघंन नहीं कर सकता।"

इस नृशंस परम्परा को सुनकर मैं घबड़ा गया। उसी समय उसके सम्बन्धी मित्र और पड़ोसी अन्तयोष्टि क्रिया सम्पन्न करने के लिए आये। उन्होंने उसकी मृत भार्या को अमूल्य वस्त्रों से ढका और समग्र अलंकारों से सजाया और शवयान पर बाँधा। उसके पीछे तत्कालोचित वेष धारण कर उसका पति एवं उसके सम्बन्धीजन जा रहे थे। वे उस शव को निकट स्थ एक अत्युच्च पर्वत की घाटी पर ले गये और एक बड़ी खाई में उसके ऊपर का ढकना हटाकर रस्सियों से उस शव को नीचे उतार दिया। पश्चात उसके पति को जब बन्धु-बान्धओं ने बिदा दी और सभी प्रतिबन्ध हटा दिये तब उस निरीह को भी उसी शवयान में जिसके निकट भोजन-सामग्री और जलपूर्ण कलश रखा हुआ था, बैठाते हुए उसी गहरी खाई में उतारकर और उसके मुँह को चट्टान से ढककर वे लोग अपने-अपने घर चले गये। उसके बन्धु-बान्धव इस प्रकार के क्रूर आचरण से नित्य परिचित होने के कारण जरा भी व्याकुल नहीं थे। उन्हें देखकर मेरा मन विस्मय और उद्वेग से भर गया और मेरी मति कुण्ठित हो गयी।

मैंने राजा से कहा"महाराज ! मैंने दुनियाँ में कहीं भी जीवित व्यक्ति को गाड़ने की क्रूर परम्परा न तो देखी थी और न सुनी थी। इसे आपके राज्य में प्रचलित होते हुए देखकर मेरा अन्तःकरण विदीर्ण हो रहा है। यह आचरण अत्यन्त अमानवीय है।"

 

सोऽब्रवीत्- आर्य! किमत्र क्रियतामनुल्लङ्घनीये नियमे? एतेन खलु नियमेन सर्वानप्यधिकुर्वताऽहमपि संयतोऽस्मि। दुर्दैवाद्यदि देवीमतिजीवेयं मयापि सैवेयं गतिर्निर्विवादमनुगन्तव्या'' इति।

अहं पुरनरवदम्- 'देव! किमेष नियमो वैदेशिकेष्वपि प्रवर्तते? स उवाच- “अथ किं? नियममेतद, द्वीपवर्तिसर्वजनसाधारणोऽयं नियमो न केनाप्युल्लङ्घनीय'' इति। एतदाकर्ण्य चिन्ताक्रान्तोऽहं खिन्नमना गृहं परावर्ते। दैवात् भार्याचेत् प्रथमं प्रियेत हन्त मयाऽपि सानुगन्तव्येति विचारेण दीर्णहृदयः स्वल्पतमेऽपि तस्या अस्वास्थ्ये भृशमुद्विग्नास्तस्या भाविनिधनमुत्प्रेक्ष्यान्तर्वेपमानचेता अतिक्लेशेन कमपि कालमत्यवाहयम्। अथैकदा मद्दुर्दैवमहिम्ना वस्तुतः सा मदीया दयिता केनाप्यसाध्येनामयेनाक्रान्ता दिष्टान्तमवापि। अवशश्चाहं तस्याः शवेन सह दैवमाक्रोशन् सकलैः सभ्यैरिभ्यैश्च मगौरवेण स्वयं नरपतिना चानु स्त्रियमाणः कृतप्राणरक्षणभिक्षः शोकार्तरावभरितदिशावकाशोऽप्यस्पृष्टनिखिलजनहृदयः पितृसदनमनीये। सवेशभूषां मद्योषां प्रथम समुत्सृज्य मामपि सपाथेयजलं महागर्तेऽधो निधाय पिधाय च तन्मुखं सनृपाः सर्वे ततः प्रातिष्ठन्त। अहं चाधस्तलं सम्प्राप्तो गुहामेकां निरन्तरविकीर्णशवसहस्त्र पूतिमन्धामासन्नमरणकतिपयजीवितनिखातजनमन्दनिश्वासश्रवणसन्दारितहृदयामपश्यम्। एकत्र च स्थितः स्थूलतमैर्वाष्य बिन्दुभिश्चिरमात्मानं समभ्युक्ष्य शोकोद्गारैस्तां गुहां प्रतिध्वनयन् सर्वथा निराशोऽप्यनुत्सृष्टजीविताशः प्राणसन्धारणान्वेषणप्रकारं चिन्तयन् सह संम्प्रेषितं किञ्चित् पाथेयकं भुक्त्वा निश्चेतन इव निशां व्यनैषम्। सविधस्थिते प्रत्यहमत्यल्पं भुज्यमानेऽपि क्रमेण क्षीणतामुपेयुषि मदनसंग्रहे नितरां जीवननिराश एकस्मिन्नहनि संस्थितमवतार्यमाणं पुरुषमेकं तमनुगच्छन्ती जीवन्ती तद्धार्या चाऽपश्यम्। जीवितस्नेहेन नृशंसहृदयीकृतो व्यपगतसद सद्विवेकोऽहं पिहिते गर्तमुखे सहसा तां पृष्ठतः समुपेत्य शिलाघातमहनम्, तया च सहावतारितं पाथेयं जलं स्वायत्तीकृत्य कञ्चन कालं जीवितोऽतिष्ठम्। एवं काश्चन जीविताः स्त्रिया काञ्चिच्च पुरुषान् समये समये निहत्य तत्पाथेयापहरणायत्तजीवितः कालमक्षपयम्। एकस्मिन् दिने सद्योहतैकयोषिदारान्मन्दं पदशब्दं निश्वासस्वनं चाशृणवम्। तां दिशमनुसृत्य गतोऽहं मत्समीपादपसरदिव किञ्चिद्वस्तु ध्वान्तेनानुपलक्ष्यमाणविशेषमलक्षयम्। संकुचितायां गुहायां तस्यामवाकशिरास्तदनुसरन् केनचित्समयेन गुहावसाने छिद्रमेकं मत्प्रवेशपर्याप्तावकाशं प्राप्य संकोचितगात्रो विनिर्गत्य बहिरागतः पुनरपि प्रत्यागतजीविताश: सिन्धुरोधःस्थितमात्मानमवलोकयम्। मयाऽनुस्रियमाणं च कञ्चन जलौकसं शवभक्षणाय तां गुहां प्रविश्य प्रतिनिवर्तमानं निरधारयम्।।

अथाहं भूयस्तां गुहां प्रपिश्य संगृहीतप्रचुरशवालङ्करणरत्न  मौक्तिकराशि: निष्क्रमणावसरं प्रतीक्षमाणो द्विवैर्दिनैस्तत्रापतन्तं पोतमेकमद्राक्षम्। तत्र च श्रुतमदद्भुतवार्तेस्तैः प्रशंसितसाहसः कैश्चिद्दिनैर्निरपायं गृहान् सम्प्राप्त आमोदप्रमोदमात्रव्यसायोऽवसम्। एवमुक्त्वा सिन्धुवादस्तानतिथिवरान् सहितवादानन्येद्युभॊजनाय पञ्चमसिन्धुयात्राकर्णनाय चागन्तुं सम्प्रार्थ्य विससर्ज। हितवादं च पूर्ववद्दीनारशतमतिसृज्य समतोषयत्। अन्येधुश्च समागतांस्तानुद्दिश्य सिन्धुवाद एवं स्वां पञ्चमी यात्रां शंसितुमुपचक्रमे।

 

 

उसने कहा- 'आर्य! इस अलङ्घ्य नियम के विषय में क्या किया जा सकता है? यह नियम सभी के लिए है। और मैं भी इसके द्वारा बाँधा गया हूँ। दुर्भाग्यवश यदि महारानी के बाद मैं जीवित रहता हूँ तो मुझे भी निर्विवाद रूप से इसी गति का

अनुसरण करना होगा।"

मैंने फिर पूछा “महाराज ! क्या यह नियम विदेशवासियों पर भी लागू है" उसने कहा-“और क्या! यह नियम है, निश्चितरूप से इस द्वीप में रहनेवाले सभी लोगों के लिए समान है, इसे कोई नहीं टाल सकता।"

यह सुनकर मैं चिन्तित हुआ और खिन्न होकर घर लौटा, दुर्भाग्यवश यदि पत्नी पहले मर जाय तो मुझे भी इसका अनुसरण करना पड़ेगा। इस विचार से विदीर्ण होकर उसके जरा भी बीमार पड़ने पर मैं उद्विग्न होता था, उसकी भावी मृत्यु की कल्पना कर मेरा अन्तःकरण काँप उठ ता था और अत्यन्त क्लेश से मैं समय व्यतीत करता था।

पश्चात एक बार मेरे दुर्दैव के कारण वस्तुतः मेरी पत्नी किसी असाध्य रोग से ग्रस्त होकर मर गई। पराधीन अवस्था में मुझे उसके साथ यमपुरी पहुँचाया गया। पापमय मैं अपने दैव को कोस रहा था। सम्पूर्ण सभासद, धनी मानी तथा मेरे गौरव के अनुसार स्वयं राजा भी मेरा अनुसरण कर रहे थे। मैं अपने प्राणों की रक्षा की भीखमाँग रहा था। मेरे शोकपूर्ण आक्रंदन से समस्त दिशायें गूंज उठती थी। परंतु उन लोगों पर उसका जरा भी असर नहीं हुआ। उन्होंने सर्वप्रथम वेषभूषा से अलंकृत पत्नी को तथा बाद में भोजन तथा जल के साथ मुझे भी उस विशाल खाई में नीचे रख दिया और उसका मुँह ढककर वे सभी लोग वहाँ से चले गये।

मैं नीचे की ओर पहुँचा और वहाँ एक गुफा देखी। वहाँ चारों ओर निरंतर बिखरे हुए हजारों शवों की दुर्गन्ध आ रही थी। मरणासन्न कतिपय जीवित गाड़े हुए व्यक्तियों के मंद निःश्वास को सुनकर हृदय फट रहा था। एक कोने में खड़ा रहकर में स्थूलतम औसुओं द्वारा अपने शरीर को भिगाते हुये और शोकपूर्ण उद्गारों से उस गुफा को प्रतिध्वनित करता हुआ जीवन के प्रति सर्वथा निराश होकर पी जीवन की आशा को न छोड़कर प्राणधारण के उपाय को खोजने लगा। साथ में भेजा हुआ नाश्ता खाकर मैंने अचेतन के समान वह रात बिताई। मैं पास में रखी हुई खाद्य सामग्री को स्वल्पमात्रा में खा रहा था जिससे वह क्रमशः कम होती जा रही थी। इससे मैं जीवन के प्रति अत्यन्त निराश हो गया। एक दिन मैंने मरे हुए एक पुरुष को उतारते हुए तथा उसकी जीवित पत्नी को उसका अनुसरण करते हुए देखा। जीवन के प्रति स्नेह होने के कारण मेरा हृदय कठोर बन गया। मेरा सदसद्विवेक नष्ट हो गया। मैंने उस खाई के मुँह के ढक दिये जाने पर, अकस्मात् पीछे की ओर से आकर चट्टान के प्रहार से उस स्त्री को मार डाला। उसके साथ उतरे हुए पाथेय (अन्न) और जल को अपने अधिकार में लेकर कुछ समय तक मैं जीवित रहा। इस प्रकार कुछ जीवित स्त्रियों को और पुरुषों को समय-समय पर मारकर उनकी भोजन-सामग्री के अपरहण से मैं अपना समय बिता रहा था।

एक दिन तत्काल मरी हुई एक स्त्री को देखा तथा उसके पास से ही आने वाली मन्द पदध्वनि और निःश्वास को सुना। उस दिशा को ओर बढ़ते हुए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे पास से कोई चीज सरक रही है जो अन्धेरे के कारण दिखाई नहीं पड़ रही थी। उस संकुचित गुफा में नीचे की ओर सिर कर उसका अनुसरण करते हुए कुछ समय के बाद गुफा के अन्त में मैंने एक छेद को देखा और मेरे प्रवेश योग्य पर्याप्त स्थान पाकर अपने शरीर को सिकोड़ते हुए वहाँ से निकलकर मैं बाहर आया। फिर से मेरे मन में जीने की आशा लौट आई।

उस समय मैंने अपने को समुद्र के किनारे देखा। मैंने जिसका अनुसरण किया वह जलजन्तु शव भक्षण के लिए उस गुफा में जाकर वापस जा रहा था, ऐसा मैंने देखा।

पश्चात् मैंने पुनः उस गुफा में प्रवेश कर शवों के प्रचुर अलंकार रत्न और मोतियों की राशि को एकत्र कर निकलने के अवसर की प्रतीक्षा करते हुए दो तीन दिनों में ही वहाँ आने वाले एक जहाज को देखा। उस पर सवार व्यक्तियों द्वारा मेरा संकेत पाकर भेजी हुई नौका पर बैठ कर जहाज पर पहुँचा। वहाँ पर मेरी आश्चर्यजनक कहानी को सुनकर उन्होंने मेरे साहस की प्रशंसा की। थोड़े ही दिनों में मैं सकुशल घर पहुँचा और आमोद-प्रमोद में मग्न होकर वहाँ रहने लगा।

यह कहकर सिन्धुवाद ने हितवाद के साथ उन अतिथियों को दूसरे दिन भोजन करने के लिए तथा पाँचवीं समुद्री यात्रा को सुनने के लिए आने की प्रार्थना कर छोड़ दिया और हितवाद को पहले की भाँति सौ दीनार देकर सन्तुष्ट किया।

दूसरे दिन आए हुये अतिथियों को सिन्धुवाद अपनी पाँचवी यात्रा इस प्रकार सुनाने लगा।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
इन्स्टाग्राम- cdtripathiatul

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