सिन्धुवादवृत्तम्- पंचम सिन्धुयात्रा

 

पञ्चमी सिन्धुयात्रा

एवं मया प्रत्यहमुपभुज्यमानैः सुखैर्मा पुनरपि सिन्धुयात्रासाहसाङ्गीकारानिवारयितुमपर्याप्तैर्भूयो विचलितहृदयः पञ्चमी यात्रामुद्दिश्य प्रस्थातुम् सन्नद्धोऽभवम्। भृतके पोतेऽविश्वसन् स्वकीयेन व्ययेनाभिनवं पोतं निर्माप्य सर्वोपकरणैः परिकरितं तं सञ्चितवाणिज्योपयोगिवस्तुनिकरःसमारुह्यान्यांश्च वणिजः सपण्यजातानधिरोप्यानुकुले वहति वाते प्रस्थितः, कैश्चिद्दिनैर्विजनमेकं द्वीपं प्रापम्। तत्र चैकमतिविशालमण्डजाण्डं चञ्चूपुटोद्धाटितमुखान्तरविनिर्गच्छन्नवशावकमपश्यम्। मया तत् स्प्रष्टुम् निषिद्ध्यमाना अपि मत्सहचरा मद्वचनमुपेक्ष्य कुठारेण तदण्डं विभिद्य तं शावकं खण्डशोऽवकृत्य स्वयं विशीर्णशुष्कपर्णसमेधितेऽनले शूलाकृत्य जघसुः।

अवसिताभ्यवहारेषु तेषु नभसि दूरादापतन्तौ तच्छावकपितरौ विलोक्य सम्भ्रमाकुलतां गतेषु पोताध्यक्षो विज्ञातैतच्छकुन्तानुभावस्तस्या विपदः समुद्धरणाय त्वरितं प्रवहणमारोढुं सर्वानन्वबध्नात्।

अथ तौ पक्षिणी क्रेङ्कारैर्दुःश्रवैर्भग्नाण्डसन्दर्शनेन द्विगुणीकृतैः सकलमेव तं द्वीपमपूरयताम्, वैरनिर्यातनपरौ च क्षणाच्चच्चूपुटवि धृताभिर्विशालाभिः शिलाभिरभिवर्षन्तावस्मत्प्रवहणं खण्डशः कृत्वा तत्रस्थान् नाविकान् यात्रार्थिनश्च चूर्णीकृत्य जलधितलं प्रापयामासतुः। अहं तु मग्नोऽपि पुनरुन्मग्नो देवाद्भग्नप्रवहणस्यैकमपर्याप्तोपवेशनावकाशं फलमेकेन बाहुनाऽवलम्ब्य परेण सन्तरन्ननुकूलपवनेन कुत्राप्यत्युन्नततटे द्वीपे क्षिप्तः कथमपि तटमारुह्य समस्थलीमुपागमम्।

तत्र च नवहरितशाद्वले क्षणं विनम्याऽपनीततरणश्रमः समन्तात् सञ्चरन् पल्लवभरैः, शलाटुभिः पक्वैश्च विपुलैः फलैरनेकवर्ण  सौन्दर्यहृतहृदयैः प्रसूनैश्च नमितान् पादपवरान् सर्वतो विलोकयन् रमणीयाराममध्यगतमिवात्मानवेदम्। तानि च पीयूषमधुराणि फलान्यास्वाद्य पीत्वा च प्रस्रवणमम्भो गतक्लमः सम्प्राप्तां निशीथिनीमेकाक्यवस्थापरवशतया विनिप्रतगाढ़निद्रासुखोऽन्तरान्तरा किञ्चित् स्वपन भूयो जाग्रदात्मनो भागधेयमेतद्यात्राचापलञ्च विनिन्दन कथञ्चिदयापयम्। उदिते भगवति गभस्तिमालिनि प्रकाशितासु काष्ठासु प्राभातिकवातप्रसादितचेता इव इतस्ततो व्यचरम्।

विचरंश्च स्थूलकायं परिणतवयसं स्रोतस एकस्य तटे समुपासीनं पुरुषमेकमद्राक्षम्। तं चाऽऽत्मानमिव हतभाग्यं प्रवहणभङ्गविपदि पतितमाकलयन्नुपसृत्य प्राणमम् तत्रावस्थितिकारणमप्यपृच्छम्। स तु किमप्यभाषमाणः फलावचिचीषयाऽऽत्मानं स्कन्धयोर्निधाय स्रोतस्तरीतुम् समकेतयत्। अहन्तु तं स्थविरं गमनाक्षमतया मत्साहाय्यार्थिनमवगत्य दयापरवशः स्कन्धयोः प्रतिष्ठाप्य तस्य स्रोतसः परं तीरमुपासदम्। अथाऽवरुद्धनिजगतिना मयाऽवरोढुमीरिता स समुत्प्रेक्ष्य मदभिप्रायं जानुभ्यां मद्गलमवष्टभ्य दृढतरनिबद्धासनः समुपाविशत्। एवं तेनोद्बध्यमानगलो भारभुग्नः पादाभ्यामार्षभाजिनकर्कशचर्मावृताभ्यां पार्श्वयोरुदरे च प्रणुद्यमानः कैश्चित् क्षणैमूर्छितप्रायोऽभवम्।

एवमप्यविचलासनः स मध्ये मध्ये केवलं श्वसितुम् दत्तावकाशः पादबन्धनं किञ्चिच्छिथिलयन् भूयो नोदयन् पशुमिव चलितं मां बलात् प्रेरयत्। आदिनान्तमेवं प्रतुद्य सम्प्राप्तायां रात्रौ विश्रमितुकामेन मया तथैव निष्पीड्यमानगलेन सहास्वपत्। प्राभातायां च तस्यां मां पादाघातैर्विबोध्य भूयः परिभ्रमयन्नविश्रमं निष्पीडितगलोऽत्यर्थमदुनोत्।

 

पाँचवी समुद्री यात्रा

इस प्रकार मैं प्रत्येक दिन अनेक सुखों का उपभोग कर रहा था, जो मुझे फिर से समुद्री यात्रा का साहस करने के लिए रोक नहीं सकते थे। इन्हीं सुखों ने मुझे पुनः विचलित किया और मैं पुनः पाँचवीं यात्रा करने के लिए सनद्ध हो गया। किराए के जहाज पर विश्वास न रखते हुए मैंने अपने खर्च से नए जहाज का निर्माण करा कर, उसे सभी उपकरणों से सुज्जित कर, उस पर व्यापारोचित वस्तुओं का संग्रह करते हुए सवार हो तथा विक्रेय वस्तुओं को बेचनेवाले अन्य व्यापारियों को भी सवार कराकर अनुकूल हवा बहने पर मैंने प्रस्थान् किया। कुछ ही दीनों में मैं एक निर्जन द्वीप में पहुँचा। वहाँ पर एक ऐसे विशाल

पक्षी के अण्डे को देखा जिसमें से अपनी चोंच को खोलते हुए शिशु निकल रहा था। मैंने यद्यपि उसका स्पर्श करने से अपने साथियों को रोका तथापि उन्होंने मेरे वचन की उपेक्षा कर कुल्हाड़ी द्वारा उस अण्डे को फोड़कर और उस शिशु को टुकड़े-टुकड़े कर स्वयं फैले हुए सूखे पत्तों की प्रज्वलित आग में उसे पका कर खाया।

भोजन के पश्चात् वे आकाश में उस शावक के माता-पिता को दूर से आते हुए देखकर जल्दी में घबड़ा गये। इसी समय जहाज के अधिकारी ने उन पक्षियों की चेष्टाओं का अनुमान लगाते हुए उस विपत्ति से छुटकारा पाने के लिए उनसे शीघ्र जहाज पर सवार होने के लिए अनुरोध किया।

अनन्तर उन नर-मादा पक्षियों ने टूटे हुए अण्डे को देखकर अपने कर्णकटु चीत्कारों से सम्पूर्ण द्वीप को व्याप्त कर दिया। क्षणभर में बदले की भावना से चोचों द्वारा उठायी गयी विशाल शिलाओं को वे हमारे जहाज पर बरसाने लगे और उन्होंने उस जहाज को और उस पर सवार नाविकों तथा यात्रियों को चकनाचूर कर समुद्र तल में पहुँचा दिया। मैं तो डूबकर भी भाग्यवशात् तैरने लगा और टूटे हुए जहाज के पट रे को जिस पर बैठने के लिए थोड़ा स्थान था

एक हाथ से पकड़कर दूसरे हाथ से तैरते हुए अनुकूल हवा द्वारा खूब ऊँचे तट वाले द्वीप पर फेका जाता हुआ अत्यन्त कठि नाई से उसके किनारे चढ़कर समतल मैदान में पहुंचा।

नई दूब से हरी-भरी उस समतल भूमि में क्षणभर विश्राम कर, तैरने की थकान को दूर कर, चारों ओर विचरण करते हुए पल्लवों, अपरिपक्व एवं पक्व विपुल फलों और अनेक रंगों की सुषमा से मनोहर फूलों से झुके हुए श्रेष्ठ वृक्षों को चारों ओर देखकर, मैंने अपने को मानों एक सुन्दर उद्यान के बीच में उपस्थित-सा अनुभव किया। अमृत के समान मधुर उन फलों को खाकर और झरने के जल को पीकर मेरी थकावट दूर हुई। रात्रि में एकाकी रहना पड़ेगा इस डर से गाढ़ी नींद में बाधा पड़ रही थी। बीच-बीच में मैं सोता था और पुनः जागता था। इस प्रकार मैंने अपने भाग्य को और इस यात्रा की चंचलता को कोसते हुए रात किसी प्रकार व्यतीत की। सूर्यनारायण के उदित होने तथा समस्त दिशायें प्रकाशित होने पर प्रातःकालीन वातावरण से प्रसन्नचित होकर मैं इधर-उधर विचरण करने लगा।

विचरण करते हुए मैंने ढलती हुई अवस्था के स्थूलकाय पुरुष को एक झरने के किनारे बैठे हुए देखा। मैंने उसे अपने ही समान अभागा और जहाज टूटने के कारण आपत्ति में पड़ा हुआ समझकर आगे बढ़कर उसे प्रणाम किया और वहाँ उसकी उपस्थिति का कारण पूछा। बिना उत्तर दिए फल बटोरने को इच्छा से अपने कन्धों पर बैठाकर झरना पार कराने के लिए उसने इशारा किया।

उस वृद्ध को चलने में असमर्थ होने के कारण मेरी सहायता का अभ्यर्थी समझ दयापरवश हो गया और उसे अपने कन्धों पर बैठाकर झरने के दूसरे किनारे पहुँचा।

पश्चात् मेरी गति रुकने पर उतरने के लिए प्रेरित किए जाने पर भी वह मेरे कहने की उपेक्षा करता हुआ अपनी दोनो जंघाओं से मेरे गले को कसकर आसन लगाकर बैठ गया। इस प्रकार गला फँसने पर उसके बोझ से दबकर मैं बैल के चमड़े से निर्मित कर्कश जूतों से ढके हुए दोनों पैरों के बगलों और पेट में चुभोये जाने के कारण कुछ क्षणों में ही बेहोश हो गया।

इस प्रकार अपने आसन से जरा भी च्युत न होते हुए वह बीच-बीच में केवल साँस  लेने के लिए समय देता था और पैरों के बन्धन कुछ शिथिल करता हुआ बार-बार मुझे पशु के समान चलने के लिए जबरदस्ती प्रेरित करने लगा। दिन ढलने तक इसी प्रकार कष्ट देकर वह रात्रि आने पर विश्राम के लिए मेरे साथ सो गया उस समय भी मेरा गला उसी प्रकार दबाये जा रहा था। प्रात: पर लातों से मुझे जगाकर वह बार-बार बिना विश्राम चलने के लिए प्रेरित करता हुआ गला दबाकर अत्यन्त कष्ट देने लगा।

एकस्मिन्नहनि भूमौ पतिताः काश्चित्तुम्बीरवलोक्य तास्वायततमामेकां गृहीत्वा संशोध्य तत्र प्रचुरोद्भवान् द्राक्षास्तबकानवचित्य निष्पीड्य तद्रसेन तां सम्पूर्यैकत्र देशेऽवस्थाप्य कैश्चिद्दिनैरासवतां गतं तद्रसं किञ्चिद् आस्वाद्य विस्मृतात्मदशो गायनृत्यंश्च प्रचलन् विलोकितमदवस्थापरिवर्तनेन तेन जरता सम्प्रार्थितस्तस्मै तां द्राक्षासवसम्भृतां तुम्बी प्रायच्छम्। तन्माधुर्यहृतहृदयोऽसौ समग्रं तमासवं पीत्वा संजातोन्माद इव मया सह गायन् स्वमसकृदान्दोलयन् शिथिलीकृतमद्गलबन्धनो मयाधिशिलं तरसा क्षिप्तस्तत्क्षणं विगतासुरपतत्।

इत्थं तस्मात् स्थविरसङ्कटान्मुक्तः सानन्दोऽहं सिन्धुतीरमागत्य कांश्चित् पेयमधुरजलसंजिघृक्षया सन्निरुद्धपोतान् जनामुपगम्य मत्तः श्रुताखिलवृत्तान्तैस्तैरुक्तः- 'बहवो जनास्तत्स्थविरोद्वन्धनयातनयाऽत्र मृताः दिष्ट्या त्वं तद्वशतां गतोऽपि विमुक्तोऽसि। सर्वे हि पोतावाहाः वणिजहागमनं परिहरन्ति' इति।

एवमुक्त्वा ते मां स्वपोतमनैषुः। पोताध्यक्षेण चाऽऽकर्णितमदुदन्तेन सादरं स्वागतीकृतोऽहं ततः प्रस्थितः समुद्रतीरस्थं किञ्चिन्महत्पत्तनं प्रस्तरमयगृहावलीसंकुलं सम्प्राप्नवम्।

पोतस्थितेषु च मयि सविशेष बद्धप्रणयः कश्चित् सार्थवाहो मां वैदेशिकवणिग्जनशिबिरं नीत्वा, दत्वा चैकां महती गोणी तादृशगोणीधारिणः कांश्चिज्जनानुपदावदत्- 'अनुसरैतान्, अनुकुरु चैतत्कृतिम्। नो जातु सङ्गमेषां त्यज। अन्यथा विपदि पतिष्यसि" इति।

अथ वयमभ्रङ्कषैरतिश्लक्ष्णतया दुरारोहस्कन्धैः फलसम्भृतैर्नारि कैलतरुभिः पूरितं काननमेकं समासीदाम। स्वाश्च गोणीस्तैनारिकेलफलैः

पूरयितुकामा बहून् प्लवङ्गमान् नानाप्रमाणानस्मदवलोकनसम्भ्रमेण चपलतया द्रुतं विद्रुत्य वृक्षापाणि समारूढान् व्यलोकयाम। सहचराननुकुर्वन्नहं तत्रस्थेषु तेषु प्रस्तरखंडान् संगृह्वा समक्षिपम्। ते तु कपया किलकिलाशब्दचित्रैशेङ्गितविशेषैः स्वक्रोधमाविष्कुर्वन्तः प्रत्याजिघांसया नारिकेलफलान्यस्मान् लक्ष्यीकृत्य प्राक्षिपन्। अनया च प्रक्रियया प्रकारान्तरेण सुदुर्लभैर्नारिकेलफलैः स्वा गोणी: सम्पूर्य पत्तनमुपेत्य तद्विक्रयेण बहुधनमुपार्जयम्।

संगृहीतबहुनारिकेलैस्तैर्वणिग्जनैः सह प्रवहणेन ततः सम्प्रस्थितोऽध्वनि केषुचिद् द्वीपेषु सिन्धुतले निमज्य मौक्तिकभूता अनल्पाः शुक्तीरानीय विक्रीणानेभ्यो वणिग्भ्यस्ता: क्रीत्वा विक्रीय च महता मूल्येनसंव चिंतनिजविभवः सकुशलं वासरपुरं ततश्च विदामपुरं प्रत्यावर्तिषि।

आगत्य च गृहं मल्लाभस्य दशममंशं धर्मकर्मसु विनियुज्य महता विभवेन सह ससुखं समयमयापयम्।" एवमुक्त्वा सिन्धुवादो हितवादाय विश्राणितदीनारशतोऽतिथिभिः समं गृहं प्रास्थापयत्। परस्मिश्च दिने सम्प्राप्तेषु तेषु पूर्ववद् भुक्तवत्सु सावधानं शृण्वत्सु स स्वां षष्ठी सिन्धुयात्रां वर्णयितुमित्यमारभत।

 

एक दिन मैंने जमीन पर पड़ी हुई कुछ तुम्बियों को देखा और उनमें से सबसे बड़ी एक तुम्बी लेकर उसे साफ कर उस द्वीप में प्रचुर मात्रा में उत्पन्न रस भरे अंगूर के गुच्छों का संग्रह करते हुए उन्हें निचोड़कर उनके रस से तुम्बी को भरकर एक स्थान पर रख लिया। कुछ दिनों में उससे बनी शराब को पीकर मैं अपनी दशा भूलकर नाचने गाने लगा। मेरी अवस्था में परिवर्तन देखकर उस बृद्ध द्वारा प्रार्थना किये जाने पर मैंने उसे अंगूर की शराब से भरी हुई वह तुम्बी दे दी। उसकी मधुरता से आकृष्ट हो उसने पूरी शराब पी डाली और उन्मत्त होकर मेरे साथ गाते हुए अपने को बार-बार हिलाकर मेरे गले के बंधन को शिथिल किया।

मेरे द्वारा वेग से चट्टान पर पट के जाने पर उसने तत्काल ही प्राण त्याग इस प्रकार उस वृद्ध के संकट से मुक्त होकर आनन्दपूर्वक मैं समुद्र तट पर आकर कुछ लोगों के पास आया, जो मधुर पेय जल का संग्रह करने की इच्छा से जहाज रोककर रुके थे। उनके पास आकर मैंने उन्हें अपनी पूरी कहानी सुनाई। यह सुनकर उन्होंने मुझसे कहा-“बहुत से लोग उस वृद्ध के कण्ठपाश की यातना से मर गए। भाग्य से तुम उसके अधीन होकर भी छूट गए। सभी जहाजी व्यापारी यहाँ आना टालते हैं।"

यह कहकर वे मुझे अपने जहाज पर ले गए। जहाज के मालिक द्वारा मेरी कहानी सुनकर आदरपूर्वक स्वागत किये जाने पर मैं वहाँ से चल पड़ा और समुद्री तट पर स्थित ऐसे महानगर में पहुँचा जो प्रस्तरों से निर्मित गृहपंक्तियों से भरा हुआ था।

एक सार्थवाह, जो जहाज पर सवार व्यक्तियों की अपेक्षा मुझपर अधिक स्नेह रखता था, उसने मुझे विदेशी श्रेष्ठियों के शिविर में ले जाकर वहाँ पर बोरी (गोणी) देकर उस प्रकार की बोरी लेनेवाले कुछ व्यक्तियों को दिखलाकर कहा-"इनका अनुसरण करो, इनके कार्य का अनुसरण करो, कभी भी साथ छोड़ने की इच्छा मत करना अन्यथा विपत्ति मे पड़ोगे।"

पश्चात् हमलोग ऐसे जंगल में पहुँचे जो गगनचुम्बी नारियल के वृक्षों से भरा हुआ था। जिनकी शाखाओं पर फिसलन के कारण चढ़ना कमि था और जो फलों से लदे थे। उन बोरियों को नारियल के फलों से भरने की इच्छा रखने वाले हम लोगों ने वहाँ बहुत से बन्दरों को देखा, जो अनेक आकार के थे और जो हमें देखकर डर एवं चंचलता से जल्दी दौड़कर वृक्ष की शाखाओं पर चढ़ गए। साथियों का अनुसरण करते हुए मैं वहाँ स्थित पत्थरों को एकत्रित कर उन्हें उन बन्दरों पर फेकने लगा। वे बन्दर किल-किल ध्वनि से और चित्र विचित्र चेष्टाओं से अपना क्रोध प्रकट करते हुए प्रतिहिंसा की भावना से हमें

लक्ष्य कर नारियल के फलों को फेकने लगे। इस प्रक्रिया के प्रकारान्तर से मैंने उन अत्यन्त दुर्लभ नारियल के फलों से अपनी बोरियाँ भरकर शहर में आकर उनके विक्रय से प्रचुर धन अर्जित किया।

प्रचुर नारियल का संग्रह करनेवाले उन श्रेष्ठ वणिकों के साथ जहाज द्वारा मैंने वहाँ से प्रस्थान किया और मार्ग में पड़ने वाले कुछ द्वीपों पर उन व्यापारियों से उन सीपों को खरीदा जो समुद्रतल में गोता लगाकर मोतियों से प्रचुर सीपों को लाकर बेचते थे। मूल्य द्वारा बेचकर अपनी सम्पति बढ़ाते हुए सकुशल वासरपुर तथा वहाँ से विदामपुर लौट आया। घर आकर अपने लाभ का दसवाँ हिस्सा धर्म-कार्य में खर्च करते हुए विशाल वैभव के साथ सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगा।

यह कहकर सिन्धुवाद ने हितवाद को सौ दीनार देते हुए अतिथियों के साथ भेज दिया। दूसरे दिन उनके आने पर और पूर्ववत् भोजन करने पर वे सावधान होकर (अगली यात्रा) सुनने लगे। उसने अपनी छठी सिन्धुयात्रा इस प्रकार सुनानी आरम्भ की।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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