सिन्धुवादवृत्तम्-षष्ठी सिन्धुयात्रा

 

षष्ठी सिन्धुयात्रा

वर्षमात्रं सुखोपभोगे प्रयाप्य भूयोऽपि दुर्दैवेन प्रेरितः साश्चुलोचनैर्बान्धवैर्निषिद्ध्यमानोऽपि षष्ठी यात्रामुद्दिश्य गृहान्निरगाम्।

प्रवहणाधिरूढान् कञ्चन कालं सुखेन प्रचलतोऽस्मानेकदाऽकस्मात् पोताध्यक्षा सम्भ्रांतः क्षिप्तशिरस्त्राण उल्लुञ्चितश्मश्चः सन्ताडितशीर्ष आर्तनादैर्दिशः पूरयन्नस्माभिस्तत्कारणं पृष्टो दीर्घ निःश्वस्यावोचत्हन्त! हताः स्मः। तीब्रेण सिन्धुरयेणोह्यमाना वयमचिरान्नंक्ष्यामः।

केवलं परमेश्वरानुग्रह एवास्मास्त्रातुं प्रभवति, इति। अथ वातबलेन त्रुटितासु पोतवसनरज्जुषु अवशतां गतमस्मत्प्रवहणमेकस्मिन् शिलासङ्घाते निपत्य खण्डशोऽभवत्। एवमपि भक्ष्यपदार्थान् कानिचित् बहुमूल्यानि पण्यवस्तूनि च ससम्भ्रममुद्धृत्य तीरभुवमवतीर्णा अति निर्जनतया तस्य प्रदेशस्य जीवितनिराशा वाष्याकुललोचना वयं भृशमानंदाम। गिरेरेकस्य पादमूले स्थिताश्च नानाभग्नप्रवहणावशेशान् नरास्थिसङ्घातान् उच्चावचपण्यवस्तुराशींश्चाभितो विकीर्णानपश्याम। सरितंचैकां सिन्धुप्रभवां

द्वीपं तं परिवृत्य क्वचिद्विशालमुख्यां कन्दरायां विलीनामभिनवमौक्तिकमाणिक्यहीरकमणिमयं महीघ्रम्, नयनहारिणी तरुसन्दोहसुषमामदृष्टपूर्वां निरीक्ष्य विस्मयं प्राप्नुम।

तत्र च द्वीपे भग्नहृदयेषु निश्चितनिधनेषु परस्परं समं विभाजिता वशेषाशनजातेषु कञ्चित्कालमुषित्वा निरवशेषभक्ष्यतया एकैकशो

नामशेषतां गतेषु निखिलेषु मत्सहचरेष्वत्यल्पावशेषाान् आत्मनोऽप्यचिराद् भाविनी तामेव गतिमुत्प्रेक्षमाण एतद्यात्राक्लेशाङ्गीकरणेन मुहुरनुतप्यमानोऽहं तटिनी परिवीक्ष्य कन्दरान्ते क्वचिन्निर्गच्छन्तीं तां सम्भावयन्

फलक एकस्मिन् सङ्ग्रहीतमाणिक्यस्फटिकमणिविसरमात्मानं दृढं वद्ध्वा परमेश्वरं ध्यायन् स्रोतस्विनीप्रवाहानुरोधेनावहम्।

कांश्चित् दिवसान् तिमिरावृतायां कन्दरायां क्वचित् सङ्कुचितप्रदेश उपरितनशिलास्वाहन्यमानशीर्थोऽतिमितं भोज्यं समये समयेऽश्नन् क्वचित् स्वपन् क्वचिज् जागत् सन्ततमवहम्।

एकदा चैवं वहन् सुप्तप्रबुद्ध आत्मानमेकत्र समस्थल एकस्याः सवन्त्यास्तटोपकण्ठे संयतमदीयाश्रयफलके कालवणः कैश्चित् पुरुषा परिवृतमद्राक्षम् उत्याय च ताननमम्। तत्र किश्चिदुक्तोऽविदिततद्धावस्तूष्णी कञ्चित् कालं स्थितः स्वभाषायां विपत्समुत्तारणाय परमेश्वरं प्राशंसम्। तेषु च कृष्णपुरुषेषु विज्ञातमदीयभाष एको मत्प्रार्थनां श्रुत्वा समुपेत्यैवमवोचत् 'माऽस्मानिह निरीक्ष्य विस्मितो भूः। वयं किल गिरेः प्रवहन्त्यास्तटिन्या उदकं कृल्याभिर्विभज्य क्षेत्राणि स्वकीयानि

संशेक्तुमनस इहागच्छाम। जलस्रोतसा सार्धं प्रवहत् त्वदाधारं फलकं विलोक्य विधृत्य बद्ध्वा च तीरे प्रदेशे सुप्तस्य तव प्रलोधकालं

प्रतीक्षमाणा आस्म। दिष्ट्या त्वं महतः सङ्कटान्मुक्तः। साम्प्रतं स्ववृत्तान्तकथनेनानुगृहाणास्मान्, इति। अहं च भुक्ततद्वितीर्णकिञ्चिद्भोजनः स्वं वृत्तान्तमकथयम्।

 

छठी समुद्री यात्रा

केवल  एक वर्ष आनन्दपूर्वक व्यतीत कर अश्रुपूर्ण नयनों से बन्धु-बान्धवों द्वारा रोके जाने पर भी दुर्दैव से प्रेरित होकर मैं पुनः छठीं यात्रा करने के लिए घर से निकल पड़ा। जहाज पर सवार होने पर उसका अधिकारी कुछ समय सुखपूर्वक प्रवास करने के बाद हमलोगों से एक बार अकस्मात् घबड़ाकर शिरस्त्राण फेंककर, दाढ़ी नोचते हुए, सर फोड़ते हुए, आर्तनादों द्वारा दिशाओं को गुञ्जित करने लगा, तब हमलोगों द्वारा उसका कारण पूछे जाने पर लम्बी साँस लेकर वह बोला“हाय ! मारे गये। भयङ्कर समुद्री दूफान में फँसने से हमलोग जल्दी ही नष्ट होगे। केवल परमेश्वर की कृपा ही हमें बचा सकती हैं।"

अनन्तर बवंडर के वेग से जहाज के पाल की रस्सियाँ टूटने पर बेकाबू हो  कर हमारा जहाज एक चट्टान से टकरा कर चकनाचूर हो गया। ऐसी स्थिति में भी कुछ भक्ष्य पदार्थों को और कुछ बहुमूल्य विक्रेय वस्तुओं को जल्दी-जल्दी निकालकर किनारे उतर हमलोग उस प्रदेश के अत्यन्त निर्जन होने कारण जीवन से निराश हो गए तथा अश्रुपूर्ण नयनों से अत्यधिक क्रंदन करने लगे। एक पहाड़ के नीचे खडे होकर हमलोगों ने अनेक टूटे हुए जहाजों के भग्नावशेषों, मनुष्य की हड्डियों तथा अनेक प्रकार की श्रेष्ठ विक्रेय वस्तुओं को चारों ओर बिखरे हुए देखा। हमलोगों ने वहाँ एक ऐसी नदी को भी देखा, जो समुद्र से उत्पन्न उस द्वीप की परिक्रमा कर विशाल मुखवाली कन्दरा में कहीं लुप्त हो गई थी। वहाँ अभिनव मोती और हीरों के पहाड़ को तथा नयनालादिनी अदृष्ट पूर्व वृक्षसमूह की सुषमा को देखकर हमलोग आश्चर्य करने लगे।

उस द्वीप पर हमलोगों का हृदय टूट चुका था। हमारी मृत्यु निश्चित थी। हमलोगों में से कुछ वहाँ अवशिष्ट भोजन-सामग्री समाप्त होने के कारण एकएक करके नामशेष हो गये। मेरे पास भी थोड़ा भोजन बच गया। मैं अपनी भी शीघ्र होनेवाली उसी दुर्गति की कल्पना करते हुए इस यात्रा के कष्ट को स्वीकार करने के लिए बार-बार पश्चाताप करने लगा। दैव ने मेरा धैर्य शेष रखा। समुद्र से उत्पन्न उस नदी को ध्यानपूर्वक गुफा में लुप्त होती हुई देखकर उसके अन्त में उससे निकलने का अनुमान लगाते हुए एक पटरे पर माणिक्य स्फटिक मणि आदि की राशि को एकत्रित कर परमेश्वर का ध्यान करते हुए नदी के प्रवाह के अनुरूप में बहने लगा।

कुछ दिनों तक बहते हुए अंधरे से भरी हुई उस गुफा में कहीं अत्यन्त संकुचित प्रदेश में ऊपर की चट्टानों से मेरा सिर टकराता था। मैं समय-समय पर बहुत कम भोजन करता था। कहीं सोता, कहीं जागता था। इस प्रकार उस नदी में कुछ दिनों तक मैं निरन्तर बहता रहा। उसी प्रकार बहते हुए, एक बार मैंने तन्द्रा (अर्ध निद्रा) में अपने को समभूमि पर एक नदी के किनारे जहाँ मेरा आश्रय का कलक बँधा था, अपने को काले रंगों के पुरुषों से घिरे हुए देखा। मैंने उठकर उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने मुझसे कुछ कहा, परन्तु मैं उनके अभिप्राय को न समझकर कुछ समय तक चुप रहा और अपनी भाषा में विपत्ति से छुटकारा पाने के लिए परमेश्वर की स्तुति करने लगा।

उन काले पुरुषों में से एक ने मेरी भाषा तथा मेरी प्रार्थना समझकर और आगे बढ़कर इस प्रकार कहा-“हमें यहाँ देखकर तुम आश्चर्यचकित मत होना। हमलोग पहाड़ से बहने वाली नदी के जल को नहरों में विभक्त कर, अपने खेत सींचने की इच्छा से यहाँ आते है। जल प्रवाह के साथ बहने वाले तुम्हारे आश्रयस्वरूप फलक को देखकर, उसे पकड़ और किनारे पर बाँधकर तुम्हारे जागने की प्रतीक्षा कर रहे थे। भाग्य से तुम भारी संकट से मुक्त हुये हो। इस समय अपना वृत्तांत कहकर हमें अनुगृहीत करो।" मैंने उनके द्वारा दिया हुआ थोड़ा भोजन कर अपना वृत्तान्त कहा।

 

तेऽपि तदाकर्णनेनातिविस्मिता मदीयं साहसं सादरमभिष्टुत्य मां तत्रत्यं नृपतिमुपगन्तुम् तं चात्मचित्रवृत्तान्तवर्णनेन विनोदयितुम् भृसमन्वरुन्धन्। अङ्गीकृततत्प्रार्थनोऽहं सपदि समानीतं तुरङ्गममध्यारोपितः पार्श्वस्थितः कैश्चित् प्रदर्श्यमानमार्ग इतरैश्च कैश्चित् स्कन्धाधिरोपितास्मत्सरत्ननिचयफलकैः अनुसृयमाणोऽगच्छम्। तैश्च राजसदनं नीतः सिंहासनारूढं महाराज वीक्ष्य जानुभ्यामवनौ निपत्य सविनयादरं दण्डप्रणाममकरवम्। स मां सप्रणयमुत्थाप्य पार्श्व उपवेश्य मदभिधानं वसतिस्थानं तत्रागमनप्रकारमनेकसिन्धुयात्रावर्णनानि च मत्तः समाकर्ण्य प्रहृष्टो मद्यात्रावर्णनानि सौवर्णवर्णेषु विलेख्य स्वकीये पुस्तकालये सुरक्षितानि सङ्ग्रहीतुमियेष। मया सहानीतानि तानि माणिक्यादीनि स्वरत्नकोशेऽपि सुदुर्लभान्यनर्घाणि वीक्ष्य भृशं परितुतोष।

तं तथा प्रहृष्टं निरीक्ष्य मया सविनयेन समुपह्रियमाणं तं रत्ननिचयमस्वीकृत्य सोऽवदत् - "आर्य! सोऽयं रत्ननिचयस्त्वत्साहसपरितुष्टेन विधिना तुभ्यं प्रसादीकृतस्त्वयैवोपभोगयोग्यो नेतरेण। मया किलेषोऽभिनवोपहारैः परिवर्धनीयो न तनुतां नेयः" इति। अहं तस्यौदार्य प्रशंसंस्तस्योत्तरोत्तरमभिवर्धमानामभिवृद्धिं सर्वतोभाविनी समैहे। अथ तेन मदर्थं प्रकल्पिते सपरिकरे सहपरिजने गृहे वसन् प्रत्यह मुपसेवितराजद्वारो नगरनिरीक्षणादिभिः समयं कञ्चिद् व्यत्यापयम्। स द्वीपः किल विषुवरेखावस्थानेन समानदिननिशायामोऽचलो पत्यकाया नयनहारिण्या मध्यमध्युषितया समृद्धया राजधान्या समलङ्कृतः

पद्मरागादिमहार्घमणिमौक्तिकबहुलो धातुवट्ठणत्कारिचित्रवर्णप्रस्तररत्नसम्भृतो वनश्रीसमाकृष्टनयनयुगो मां भृशं व्यनोदयत्।

अथैकदा सम्प्रार्थितेन भूपेनानुमतगृहगमनाय महान्तमर्थराशिं ततोऽधिगत्य प्रस्थिताय मे विदामपुराधीश्वराय श्रीहारीतमहाराजाय पत्रमेकं महा॑जिनरत्नविलिखितमतिसुन्दरकुरुविन्दचषकं मौक्तिकोत्तमैः पूरितं सर्वरोगप्रशमनसमर्थं सर्पविशेषनिर्मोकमतिपृथून् करिदन्तान् कर्पूरराशिमनर्धरत्नभूषिताङ्गीमतिसुन्दरी दासी चैकां प्राभृतीकर्तुम् समर्प्य महता आगत्य च विदामपुरं पत्रेण सह तमुपहारराशिं हारीतनृपतये समर्प्य द्वीपभूपतेः समृद्धिमौदार्य न्ययाशीलतां चोपवर्ण्य नितान्तं प्रसन्नान्तरात्तस्मादधिगतबहुद्रविणभरस स्वं गृहं प्रायाम्।

एवमुक्त्वा सिन्धुवादो विरराम। हितवादोऽपि पूर्ववच्छतं दीनारान् सम्प्राप्य सन्तुष्टः सर्वैरतिथिभिः सह गृहं ययौ। परेधुश्च सम्प्राप्तेषु तेषु स एवं स्वां सप्तमीमन्तिमां च यात्रां समवर्णयत्  

उन्होंने भी मेरे वृत्तांत को सुनकर आश्चर्यचकित होते हुए मेरे साहस की प्रशंसा कर, मुझे वहाँ के राजा के पास जाने के लिये और अपना विचित्र वृक्षत सुनाकर उनका मनोरंजन करने के लिये अत्यन्त आग्रह किया। उनकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुये मैं तत्काल लाये हुये घोड़े पर बैठ कर चलने लगा। पार्श्ववर्ती कुछ लोग मुझे मार्ग दिखा रहे थे और दूसरे लोग रत्नों राशि के फलकों को कन्धे पर रखकर अनुसरण कर रहे थे।

उनके द्वारा मैं राजप्रसाद में ले जाया गया। वहाँ के राजा को सिंहासन पर आरूढ़ देखकर, मैंने विनय और आदर के साथ घुटने टेककर साष्टांग प्रणाम किया। उसने मुझे प्रेमपूर्वक उठाकर, अपने निकट बैठाकर और मुझसे मेरा नाम, निवासस्थान,

आने का कारण और अनेक समुद्री यात्राओं के वर्णन सुनकर, हर्षित होते हुए मेरे यात्रावर्णनों को सुवर्णाक्षरों में लिखवाकर, अपने पुस्तकालय में सुरक्षित रखने की इच्छा प्रकट की। मेरे साथ लाये हुए रत्नों को अपने खजानों में अत्यन्त दुर्लभ

तथा बहुमूल्य देखकर वह अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ।

उसे इस प्रकार देखकर, मैंने उस रत्नराशि को विनयपूर्वक उसे उपहार स्वरूप समर्पित किया। उसको अस्वीकार कर उसने कहा-"महाशय! यह रत्नराशि तुम्हारे साहस से प्रसन्न होकर विधाता ने तुम्हें भेंट की है। इसका उपभोग तुम ही कर सकते हो दूसरा नहीं। मुझे नूतन उपहारों से इसकी वृद्धि करनी चाहिए ह्रास नहीं।" मैंने उसकी उदारता की प्रशंसा करते हुए, उसकी उत्तरोत्तर होने वाले सर्वाङ्गीण उत्कर्ष की कामना की। पश्चात् मैंने उसके द्वारा मेरे लिए प्रदत्त घर परिवार और अनेक सेवकों के साथ रहते हुए, प्रतिदिन राजदरवार की सेवा करते हुए, नगर निरीक्षणादि के रूप में कुछ समय व्यतीत किया। उस द्वीप के विषुव रेखा (भूमध्य रेखा) के निकट होने कारण दिन और रात के प्रहर समान थे। उसकी ऐश्वर्यशालिनी राजधानी नयनाकर्षक पहाड़ी की तराई में थी। उसमें पद्मराग आदि बहुमूल्य मौक्तिक प्रचुर मात्रा में थे। वह द्वीप धातुओं की तरह ठनठनाहट से युक्त रङ्ग-विरङ्गे रत्नों की चट्टानों से भरा हुआ था। उसकी वनश्री नयनों को आकृष्ट करती थी। उस द्वीप ने मेरा मन अत्यन्त प्रसन्न किया।

अनन्तर एक बार प्रार्थना करने पर राजा ने मुझे घर जाने की अनुमति दे दी और मैं वहाँ से विपुल धन-राशि पाकर निकल पड़ा। उस समय राजा ने मुझे विदापण के नरेश हारीत महाराज को एक पत्र दिया, जो बहुमूल्य चमड़े पर रत्नों से लिखा हुआ था, एक अत्यन्त सुन्दर लालमणि का प्याला जो उत्तम मोतियों से भरा हुआ था, विशेष साँप की केंचुली जो सभी रोग दूर कर सकती थी, विशाल हाथी दाँत, कर्पूरराशि और बहुमूल्य रत्नों से अलङ्कृत एक अत्यन्त सुन्दरी दासी को उपहार देने के लिए समर्पित कर अत्यन्त स्नेह से मुझे जाने की अनुमति दी।

विदामपुर आकर पत्र के सात वह उपहार-राशि महाराज हारीत को समर्पित कर उस द्वीपाधिपति राजा के ऐश्वर्य, उदारता और न्यायशीलता का वर्णन कर. अत्यन्त प्रसन्नचित हो, महाराज से प्रचुर धन-राशि प्राप्त कर, मैं अपने घर आया।

यह कहकर सिन्धुवाद चुप हो गया। हितवाद पहले की तरह सौ दीनारों को पाकर सन्तुष्ट होकर अतिथियों के साथ घर आया। दूसरे दिन इन लोगों के आने पर उसने अपनी सातवीं और अन्तिम यात्रा इस प्रकार सुनाई।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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