सिन्धुवादवृत्तम्- सप्तम सिन्धुयात्रा

 

सप्तम यात्रा

गृहं प्रतिनिवृत्तः परिणतावस्थतामात्मनो विचार्य विश्रमितुकामो 'नेतः परं सिन्धुयात्रां प्रयास्यामीति निर्धार्य सुखेन गृह एव वस्तुम् निरचिनवम्। एकस्मिंश्च दिने सुहृद्भिः सह सानन्दं स्थितोऽहं सहसा समागतेन राजाधिकारिणा 'देवो हारीतमहाराजस्त्वां दिदृक्षते त्वरितं समागम्यताम्' इत्युक्तः। सपदि गत्वा सविनयं कृतप्रणामो महाराजहारीतेनोक्ता "आर्य सिन्धुवाद! कस्मिंश्चिदावश्यके कर्मणि त्वां नियोजयितुमिच्छामि। त्वया किल इतः प्रस्थाय द्वीपाधिपतिं प्रेषितोपहारं तं प्रत्युपहारा मयेतः प्रेष्यमाणाः सम्प्रापणीया" इति। अहं त्वशनिपातेनेव तेन तद्वचासाऽभिहतस्तमवदम् - 'देव! का पुनर्देवादेशं विलयितुमीष्टे? किन्तु नानायात्राक्लेशपरिश्रान्तः परिणतवया नो जातु समुद्रयात्रां भूयो गन्तुम् कृतसङ्कल्पोऽस्मि। आकर्ण्य च मद्वचः सोऽब्रवीत्- नूनं क्लेशबहुलाः समुद्रयात्राः, किन्तु मदर्थमेतत्कार्यं कृत्वा प्रत्यागम्यताम्। न भूयो भवन्तं क्लेशयिताऽस्मि इति। एवं साग्रहमनुरुन्धतस्तस्याज्ञां 'यथाज्ञापयति देव' इति मूर्नाऽऽदाय सन्तुष्टात् तस्माल्लब्धयात्रौपयिकदीनारसहस्त्रो भूयो यात्रार्थं सन्नद्धोऽभवम्।

अथ गृहीत्वा तानि प्रदेयोपहारवस्तूनि राज्ञा च स्वहस्तलिखितं पत्रं वासरपुरमेत्य प्रवहणारूढोऽभवम्। निष्प्रत्यूहं च तं द्वीपमुपगम्य प्रधानाधिकारिणो दृष्ट्वा निवेदितस्वागमनोद्देश्यो यथासम्भवं त्वरित नृपसन्दर्शनं कारयितुम् न्यवेदयम्। तैश्च निवेदितागमनो राजानं समासाद्य तत्क्षणं मां प्रत्यभिज्ञाय  प्रदर्शित-प्रमदातिशयाय तस्मै तानि महार्घाणि हारीतनृपतिप्रेषितान्युपायनानि पत्रं चोपाहरम्। स च तानि सौहार्दरमणीयानि प्रसन्नचेताः सादरमङ्गीचकार। ततोऽहं तमामन्त्र्याविलम्बितं विदामपुरमधिगन्तुकामस्ततो भूयः समासादितभूरिविभवस्ततः प्रातिष्ठे। द्वित्राणि दिनानि स्वमार्गमाक्रामतामस्माकं पोतं सहसा दासविक्रयव्यवसायाः केचिद्वणिजोऽवरुद्ध्य अस्मान् वन्दिनोऽकार्युः। अस्मन्नेपथ्यं चावतार्य दासोचितवसनैरस्मानाच्छाद्य कञ्चिद् दूरवर्तिनं द्वीपं नीत्वा दासीभूतान् व्यत्रीणता अहं त्वेकेनाढ्येन वणिजा क्रीत्वा गृहं नीतो दत्तभोजनाच्छादनमात्रो वसन्नेकदा तेन पृष्ट:-अपि कश्चिद् व्यवसायं वेत्सि? इति। वृत्या वणिजं दासव्यवसायिभिः सर्वस्वहरणपूर्वकं मां विक्रीतं श्रुत्वा स भूयोऽपृच्छत् कच्चिद्धनुर्वाणप्रयोगं शिक्षितवानसि? इति। बाल्ये कृतैतदम्यासं मन्मुखाद्विदित्वा दत्तधनुर्बाण आत्मनः पृष्ठभागे हस्तिपृष्ठे मां समुपवेश्य कियरे स्थितं गहनमेकमनयत्। तत्र च मामवतार्योत्तुङ्गं वनस्पतिमेकं प्रदोवोचत् - 'आरोहैतं पादपम्। अत्र च स्थितोऽधः समापततो गजान् जहि। वनमिदं तैरभितो व्याप्तम्। समाघातेन पतितमात्रे गजे मामागत्य निवेदय' इति। अथ स किञ्चिदशनजातं मह्यम् वित्तीय नगरमयासीत्। अहं निखिलां रात्रि वृक्षारूढोऽतिष्ठम्।

अथ प्रभात उदितमात्रे भगवति सवितरि बृहद्दन्तावलयूथं पुरः प्रादुरभूत्। सपदि च मया मुक्तैः सायकैरेकस्मिन्निपतिते परेषु च भयेन विद्रुतेषु, वृक्षादवरुह्य तदिदं वृत्तं निशामयितुम् स्वामिनमभ्युपागच्छम्। प्रशस्यमानश्च तेन सहैव काननं गत्वा गर्तमेकं खनित्वा तत्करिशवं तदन्तान् जिघृक्षतस्तत्पूतीभावं प्रतीक्षमाणस्य स्वामिन आदेशानुसारं न्यखनम्।

 

घर लौट कर अपनी ढलती अवस्था का विचार कर आराम करने की इच्छा से “अब मैं पुनः समुद्रीयात्रा नहीं करूगाँ" यह संकल्प कर मैंने सुख से घर में ही रहने का निश्चय किया।

एक दिन मैं मित्रों के साथ आनन्दपूर्वक बैठा हुआ था, कि अकस्मात् राजकीय अधिकारी ने आकर कहा-“महाराज हारीत आपको देखना चाहते हैं, आप शीघ्र आयें।" मैंने तत्काल जाकर विनयपूर्वक उन्हें नमस्कार किया।

महाराज हारीत ने मुझसे कहा-“आर्य सिन्धुवाद ! किसी आवश्यक काम में मैं तुम्हें नियुक्त करना चाहता हूँ। तुम्हें चाहिए कि उस द्वीपाधिपति राजा के पास मेरे द्वारा भेजे हुए उपहार को पहुँचाओ, जिसने मेरे पास उपहार भेजे हैं।"

मैंने बज्रपात के समान उनकी बात से आहत होकर कहा “महाराज! आपकी आज्ञा का कौन उल्लङ्घन कर सकता है, परन्तु अनेक यात्राओं की पीड़ा से थक गया हूँ। अब मेरी अवस्था ढल रही और पुनः समुद्री यात्रा न करने का मैंने संकल्प किया है। इसके आगे आप स्वामी हैं" यह कहकर मैंने उन्हें अपनी अनेक यात्राओं का वृत्तांत सुनाया। मेरी बात सुनकर उन्होंने कहा"समुद्री यात्रायें निश्चत रूप से कष्ट कारक होती है, किन्तु मेरे लिए आज यह कार्य कर लौट आइए। मैं पुनः आपको कष्ट नहीं दूंगा। इस प्रकार आग्रहपूर्वक अनुरोध करने पर उनकी आज्ञा को “जैसी महाराज आज्ञा दें-"इस प्रकार नतमस्तक होकर स्वीकार करते हुए प्रसन्न होने वाले राजा से यात्रा के लिए उपयुक्त एक हजार दीनार प्राप्त कर, मैं फिर से यात्रा करने के लिए सन्नद्ध हो गया। पश्चात् राजा के द्वारा अपने हाथ से लिखे हुए पत्र और देने योग्य उपहारसामग्री को लेकर, मैं वासरपुर पहुँचकर जहाज पर सवार हो गया और निर्विघ्नरूप से उस द्वीप में आकर मुख्य अधिकारियों से भेंटकर अपने आगमन का उद्देश्य निवेदित करते हुए, यथासम्भव शीघ्र राजा से साक्षात्कार कराने के लिए उनसे प्रार्थना की। उनके द्वारा आगमन की सूचना देने पर मैं राजा के पास पहुँचा। उसने तत्काल मुझे पहचान कर अत्यन्त हर्ष प्रकट किया। मैंने महाराज हरीत द्वारा प्रेषित बहुमूल्य उपहार समर्पित किया। उसने सहृदयता से प्रसन्नचित होकर आदरपूर्वक उसे स्वीकार किया।

पश्चात् मैंने उससे विदा लेकर शीघ्र विदामपुर पहुँचने की इच्छा से प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त कर वहाँ से प्रस्थान किया। दो-तीन दिन तक हम लोग चलते रहे। इतने में अकस्मात् दासों का विक्रय करने वाले कुछ व्यापारियों ने हमारा जहाज रोककर हमें बन्दी बना लिया और हमारे कपड़े उतारकर और हमें दासों के योग्य कपड़े पहनाकर कुछ दूर स्थित द्वीप में ले जाकर बेच दिया।

एक सम्पन्न व्यापारी द्वारा खरीदकर उसके घर ले जाया गया। वह मुझे केवल भोजन-वस्त्र देता था। उसके घर रहते हुए उसने मुझसे एक बार पूछा“तुम कुछ व्यवसाय जानते हो?" "मैं जीविका के लिए वाणिज्य करता हूँ तथा दासों का व्यवसाय करने वालों ने मुझे जबरदस्ती दास बनाकर बेंचा है।” मेरी यह कहानी सुनकर उसने फिर मुझसे पूछा “क्या तुमने धनुष बाण का प्रयोग करना सीखा हैं ?" बचपन में किये गये इस अभ्यास को मेरे मुख से जानकर उसने मुझे धनुष-बाण दिया और अपने पीछे हाथी पर बैठाकर कुछ दूर पर स्थित एक जंगल में ले गया। वहाँ मुझे उतारकर एक ऊँचे वृक्ष को दिखाकर उसने कहा-'इस वृक्ष पर चढ़ो। यहाँ पर बैठकर नीचे आनेवाले हाथियों को मारो यह जंगल चारों ओर से उनके द्वारा भरा हुआ है। आधात से हाथी के गिरते ही मुझे आकर सूचना दो' पश्चात् वह कुछ खाद्य-सामग्री मुझे देकर शहर चला गया। मैं

 

पूरी रात पेड़ पर चढ़कर ही बैठा रहा। प्रातः सूर्योदय होते ही सामने विशाल हाथियों का समूह प्रकट हुआ। तत्काल मेरे द्वारा छोड़े हुए बाणों से एक के गिरने पर और दूसरों के भय से भाग जाने पर मैं वृक्ष से उतरकर यह सामाचार सुनाने स्वामी के पास पहुंचा। उसने मेरी प्रशंसा की, मैंने उसी के साथ जंगल में जाकर हाथी के शव को, उसके दाँतों को लेने के लिए उसके दुर्गन्धरहित होने तक प्रतीक्षा करनेबले स्वामी के आदेश के अनुसार गड्ढा खोदकर गाड़ दिया।

 

एवं मासद्वयं वनं गत्वा प्रत्यहं नवं नवं वृक्षमारूढो दन्तिनो निघ्नन्नयापयम्। एकस्मिन् पुनर्दिवसे यथाभ्यस्तं स्वं पन्थानमागम्य परश्शत्तान् दन्तिनो बृंहितैः सकलमेव तद्वनं पूरयत: पादाघातेनावनिमवनमयतो मदारूढं शाखिनं सर्वतः परिवृत्य मदभिमुखमुन्नामित्तैःझुण्डादण्डैर्मामाक्रष्टुम् प्रयतमानान्निरीक्ष्य साध्वसाक्रान्तस्य मम हस्ताभ्यां सशरं धनुरधोऽपतत्।

अथ तेषु बंहिष्ठः करीन्द्रः करेण मदधिरूढवृक्षमावेष्ट्य प्रसभं चालयन् समूलमुन्मूल्य भूमावपातयत्। तेन च सार्धं निपतितं मां शुण्ड्या गृहीत्वा स्कन्धयोरवस्थाप्य मृतप्रायं स्वयूथैरनुसृतः कञ्चन विजनप्रदेश नीत्वाऽधः क्षिप्त्वा क्वचिदयासीत्।

सर्वमेतत् स्वप्नविलसितमिव विचिन्तयनहं कञ्चित्कालं प्रतीक्ष्य वीतगजशङ्क एकत्र गिरिप्रदेशे करिदन्तास्थिराशिसंकुले स्थितमात्मानमपश्यम्। तं च प्रदेशं तेषां श्मशानस्थानं दन्तलिप्सया भूयो गजहननान्मां निवारयितुमिव तैः प्रदर्शितं विलोक्य शनैस्तत: प्रतिनिवृत्त एकेनाह्ना एकया च निशया मत्स्वामिनोऽन्तिकं प्रत्यागमम्।

स तु मद्दर्शननोद्विग्नो मदन्वेषणेच्छया तत्काननं गत्वा दृष्टसमुन्मूलित मदाश्रयपादपो मां करियूथामिषतां गतमुपरतं मन्यमानः सहासा सकुशलं प्रत्यागतं विलोक्यानन्दनिर्भरोऽभवत्। शुताखिलवृत्तश्च मया सह हस्तिनमारुह्य तं प्रदेशं गत्वा संगृहीतप्रचुरकरिदन्तराशिनगरं प्रत्याजगाम। अथासौ मामब्रवीत् 'भद्र! जीवनसंशय आत्मानं निपात्य मा मेतममितविभवप्रदं दन्तावलदन्तनिधिमाविष्कुर्वता त्वया बहूपकृतोऽस्मि। बहवः किलैतत्कर्मणि मया नियोजिता दासा एषां वन्यद्विपा नामामिषत्वमगमन्। दिष्ट्या सुरक्षितजीवितः प्रत्यागतोऽसि। तदहं त्वां दास्याद्विमोचयामि। गृहाणैतत् पारितोषिकम्' इति।

तस्यैतां कृपां कृतज्ञतयाऽङ्गीकृत्य स्वदेशं प्रत्यावर्तितुम् कृताम्यर्थनं मां नन्वचिरात् करिदन्तसंजिघृक्षया समागतेषु पोतेषु त्वां विस्रक्ष्यामीत्यवोचत्। कञ्चित्कालं तेन प्ररूढप्रणयातिशयेन सह वसन् पोतागमं प्रतीक्षमाणः सानन्दमत्यवाहयम्।

अथागतेषु पोतेष्वेकं तेन विसृष्टभूरिद्विरददशनराशिलब्धापरिमितद्वीपेषु बहुना मूल्येन तं करिदन्तनिचयं विक्रीय कृतबहुधनसंग्रहः सुखपूर्वक महाराजहारीतनृपतिञ्च सद्य उपेत्यात्मवृत्तमश्रावयम्। मत्प्रत्यागमनविलम्बेन भृशमुद्विग्नोऽसौ नितरामुपरूढप्रहर्षः करिवृत्तश्रवणे नोद्वेलकुतूहलाश्चर्यो मदीया: सप्तसिन्धुयात्रा: सुवर्णाक्षरेषु समालेख्य स्वरत्नकोशे निधातुमधिकारवर्ग समादिश्य बहुभिः प्रसादातिशयैर्मा सम्भाव्य महताऽऽदरेण व्यसृजत्।

इत्येवं सिन्धुवादः सप्तसिन्धुयात्रावर्णनमुपसंदृत्य हितवादमुद्दिश्यावदत् - भद्र हितवाद! कच्चित्त्वया कश्चित् सोढमदधिकक्लेशो

जना श्रुतपूर्वः? अपि भवानियतो महतः क्लेशाननुभवतो सम्प्रति शान्तिसुखोपभोगमन्याय्यं मनुते?" इति।

स तु 'आर्य सिन्धुवाद! तथाविधान् यात्रापरिक्लेशाननुभूय समुपार्जितविभवो भवान् सम्प्रति विश्रामसुखोपभोगं सर्वथा कर्तुमर्हति। अहं पुनरात्मनो दीनावस्थया खेदितस्तथाऽनुचितं प्रालपम्। क्षमस्व, उपभुक्ष्व चिरञ्च स्वपरिश्रमोपचितां श्रियम्' इत्यवदत्। सिन्धुवादस्तस्मै प्रत्यहमिव दीनारशतमतिसृज्य तमात्मनो दौवारिकपदे न्ययोजयत्।

एतत् सहस्त्ररजनीचरिताम्भोधिमन्थनात्।

लब्धमत्यद्भुतं सिन्धुवादवृत्तकथामृतम्।।

आंध्रेण कविना नाम्ना श्रीमल्लक्ष्मणशास्त्रिणा।

अर्थत: संस्कृते गद्येऽनूद्य सस्नेहमर्प्यते।।

दोषान् मनुष्यसुलमान समुपेक्ष्य क्वचित्सतः।

आस्वादयन्तु रसिका एतद्रसममत्सराः।।

 

 

इस प्रकार जंगल में आकर प्रतिदिन नए पेड़पर चढ़कर हाथियों को मारते हुए मैंने दो मास बिताए। पुनः एक दिन अपने अभ्यस्त मार्ग पर मेरी तरफ आनेवाले तथा गर्जना से सम्पूर्ण वन को व्याप्त करने वाले उन हाथियों ने चारों ओर से मेरे

वृक्ष को घेर लिया और मेरी ओर उठायी सूंड़ों से वे मुझे खींचनेका प्रयत्न करने लगे। उन्हें देखककरर भयवश मेरे हाथों से धनुषवाण नीचे गिर गये।

पश्चात् उनमें से विशालतम गजराज ने, जिस वृक्ष पर मैं बैठा हुआ था उसको सूंड से लपेटकर उसे हठात् हिलाते हुए जड़ के साथ उखाड़ कर जमीन पर गिरा दिया। उसके (पेड़) साथ गिरने वाले मुझे ढूँड़ से उठा कर कन्धे पर रखकर अपने झुण्ड़ों द्वारा अनुगमित होता हुआ मृतप्रायः मुझे किसी निर्जन प्रदेश में ले जाकर और नीच फेंककर वह कहीं चला गया।

इस समस्त घटना को एक स्वप्न की तरह अनुभव करते हुए मैंने कुछ समय तक प्रतीक्षा कर हाथियों के भय से मुक्त हो, हाँथी दाँत और हड्डियों से व्याप्त पहाड़ी प्रदेश में अपने को देखा। वह प्रदेश श्मशान भूमि थी जो उन्होंने हाँथी दाँत के लोभ में पड़कर हाथियों को मारने से बार-बार रोकने के लिए ही मानों उन्होंने मुझे दिखाई थी। उसे देखकर वहाँ से लौटते हुए एक दिन और एक रात में मैं अपने स्वामी के पास पहुँचा।

वह मुझे न देखकर उद्विग्न हो गया था और मुझे खोजने की इच्छा से उस जंगल में आकर उसने जड़ से उखड़े हुए उस पेड़ को देख लिया था जिस पर मैं बैठा हुआ था। अतः उसने मुझे उन हाथियों के झुण्ड द्वारा मरा हुआ समझ लिया था। वह मुझे अकस्मात् सकुशल वापस आते हुए देखकर आनन्दित हो गया। मेरी पूरी कहानी सुन मेरे साथ हाँथी पर बैठ कर उस स्थान में जाकर प्रचुर मात्रा में हाथी दाँत एकत्रित करके वह शहर लौट आया।

अनन्तर उसने मुझसे कहा-“अपनी जान की बाजी लगाकर अपरिमित सम्पति दिलानेवाले हाँथी दाँतों का खजाना मुझे देकर तुमने मेरे ऊपर बहुत उपकार किया है। मैंने इस काम के लिए बहुत से दासों को नियुक्त किया था। जो इन जंगली हाथियों के भोजन बन गए। भाग्य से तुम अपने प्राण बचाकर लौट आए हो। अतः मैं तुम्हें दासता से मुक्त कर रहा हूँ। और यह पारितोषिक स्वीकार करो।"

उसकी कृपा को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार कर स्वदेश लौट ने के लिए मैंने प्रार्थना की। तब उसने कहा-"शीघ्र ही हाँथी दाँत लेने की इच्छा से आए हुए जहाजों पर मैं तुम्हें जाने की अनुमति दूँगा।" मैंने प्रेमपूर्वक उसके साथ रहकर जहाज की प्रतीक्षा में आनन्द पूर्वक कुछ समय व्यतीत किया।

अनन्तर आए हुए जहाजों में से एक पर आरूढ़ होकर मैंने वहाँ से प्रस्थान किया। उसने मुझे प्रचुर हाँथी दाँत तथा अपरमित पारितोषिक दिए थे। रास्ते में पड़नेवाले कुछ द्वीपों पर अधिक मूल्य से उन हाथी दाँत को बेचकर प्रचुर धन अर्जित कर मैं पुनः सुखपूर्वक विदामपुर पहुंचा। महाराज हारीत के पास तत्काल जाकर मैंने अपना वृत्तात सुनाया। लौटने में देर होने के कारण वे अत्यन्त उद्विग्न थे। मेरे लौटने से उन्हें अति हर्ष मेरे हुआ तथा हाथियों को कहानी सुनने से वे आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने मेरी सातों समुद्री यात्राओं को स्वर्णाक्षरों में लिखवाकर, अधिकारियों को अपने रत्नकोष में रखने का आदेश देकर मुझ पर बहुत कृपा करते हुए अत्यन्त आदर के साथ मुझे विदा किया। यह कहकर सिन्धुवाद ने सातों समुद्री यात्रा वर्णनों का उपसंहार करते हुए हितवाद से कहा-“प्रिय हितवाद ! क्या तुमने इसके पूर्व ऐसे किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में सुना है, जिसने मुझसे अधिक कष्ट पाया हो। इतने बड़े कष्टों का अनुभव कर मैं जो इस समय शांति और सुख का उपभोग कर रहा हूँ क्या आप उसे अनुचित मानते है।" उसने कहा-“आर्य सिन्धुवाद ! आपने इस प्रकार की यात्राओं के कष्टों का अनुभव कर धन-अर्जित किया है, आप सम्प्रति सर्वथा विश्राम और सुख अनुभव कर सकते हैं। मैंने अपनी गरीबी के कारण खिन्न होकर इस प्रकार का अनुचित प्रलाप किया। आप मुझे क्षमा करें और अपने परिश्रम से अर्जित धन का चिरकाल उपभोग करें।" सिन्धुवाद ने उसे प्रतिदिन की तरह सौ दीनार देकर अपने यहाँ द्वारपाल पद पर नियुक्त किया।

यह 'सिन्धुवाद' अत्यन्त अद्भुत कथानक 'सहस्ररजनीचरित; नामक (अरबी) कथाग्रन्थरूपी समुद्रमन्थन में प्राप्त हुआ है।

आंध्र कवि श्रीमान् लक्ष्मण शास्त्री ने इसका भावात्मक संस्कृत गद्यानुवाद कर इसे (पाठ कों को) स्नेहपूर्वक समर्पित किया है। गुणग्राही सज्जनों से निवेदन है कि मनुष्यसुलभ दोषों की उपेक्षाकर इसमें सन्निहित रस का आस्वादन करें।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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