अर्थालंकार — परिभाषा, प्रकार, भेद, लक्षण, उदाहरण

चन्द्र देव त्रिपाठी 'अतुल'
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अर्थालंकार — परिभाषा, प्रकार, भेद, लक्षण, उदाहरण
अर्थालंकार — परिभाषा, प्रकार, भेद, लक्षण, उदाहरण

अर्थालंकार — परिभाषा, प्रकार, भेद, लक्षण, उदाहरण

अर्थालंकार वे अलंकार हैं जिनमें सौन्दर्य की उत्पत्ति मुख्यतः अर्थ, तत्संबन्ध और भाषिक कल्पना के संयोजन से होती है। हमने नीचे प्रमुख अलंकारों का संयोजन दिया है जिस पर क्लिक करके आप उन अलंकारों का अध्ययन कर सकते हैं

अर्थालंकार जानने से पहले हमें उपमेय,उपमान,साधारण धर्म, वाचक शब्द इन चारों की जानकारी अवश्य होनी चाहिए। कार्य,कारण, प्रस्तुत,अप्रस्तुत आदि शब्दों का भी अध्ययन और समझ रहेगा तो अर्थालंकार के मूल को आसानी से समझा जा सकता है

  • उपमेय (प्रस्तुत) जिसकी तुलना की जाय अर्थात जिस वस्तु की तुलना की जाती है उसे उपमेय कहते हैं
  • पीपर पात सरिस मन डोला।

    यहाँ पर मन की तुलना की जा रही है इसलिए इस पद में मन उपमेय है।

  • उपमान (अप्रस्तुत) जिससे तुलना की जाए, जिससे उपमित किया जाये, उपमान कहलाता है
  • पीपर पात सरिस मन डोला।

    यहाँ पर मन की तुलना की जा रही है इसलिए इस पद में पीपर पात उपमेय है।

  • साधारण धर्म उपमेय और उपमान के बीच जो बात समान रूप से पायी जाती है उसे समान धर्म कहते हैं। कहा जाता है।
  • वाचक शब्द जिन शब्दों के माध्यम से साधर्म्य प्रकट किया जाए उसे वाचक या निपात् कहा जाता है। जिमि,इव,सा,सी,से,ज्यों,जैसे,सम,समान,सरिस आद

उपमा अलंकार

परिभाषा: समान धर्म स्वभाव शोभा गुण आदि के आधार पर जहाँ एक वस्तु की तुलना दूसरी वस्तु से की जाती है वहाँ उपमा अलंकार होता है।

👉उपमेय एवं उपमान के बीच समानता दिखाने वाला अलंकार उपमा अलंकार कहलाता है

👉 आचार्य राजशेखर ने उपमा को अलंकारों की जननी कहा है।

👉 आचार्य अप्पय दीक्षित ने उपमा को अलंकारों का शिरोरत्न कहते हैं

आचार्य दण्डी-

यथाकथंचित् सादृश्यं यत्रोद्भूतं प्रतीयते।
उपमा नाम सा तस्याः प्रपंचोऽयं प्रदर्श्यते।

किन्हीं दो पदार्थों के बीच वर्णित सादृश्य से उपमा होती है

आचार्य भामह-

विरुद्धेनोपमानेन देशकाल क्रियादिभिः
उपमेयस्य यत्साम्यं गुणलेशेनसोपमा।

देशकाल क्रिया आदि के कारण भिन्न उपमान के साध उपमेयय के गुणलेश

आचार्य विश्वनाथ-साहित्य दर्पण

साम्यं वाच्यमवैधर्म्य वाक्यैक उपमा द्वयोः

आचार्य दण्डी-

उपमा के दो भेद होते है - १- पूर्णोपमा - जब उपमा में इसके चारो अंग प्रत्यक्ष हो । जैसे - मुख मयंक सम मंजु मनोहर । मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है . २- लुप्तोपमा - जब उपमा के चारो अंगो में से कोई एक या अधिक अंग लुप्त हो । जैसे- कुन्द इन्दु सम देह । यहाँ पर साधारण धर्म लुप्त है ।


रूपक अलंकार

परिभाषा- आचार्य दण्डी ने रूपक को परिभाषित करते हुए कहा-

“उपमैव तिरोभूतभेदा रूपकमुच्यते”

अर्थात प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत का विशेष ज्ञान तिरोहित हो जाना ही रूपक है।

“रूपकं रूपितारोपोविषयेनिरपह्नवे।” जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप किया जाय ,वहाँ रूपक अलंकार होता है , यानी उपमेय और उपमान में कोई अन्तर न दिखाई पड़े । उदाहरण - बीती विभावरी जाग री। अम्बर -पनघट में डुबों रही ,तारा -घट उषा नागरी ।' यहाँ अम्बर में पनघट ,तारा में घट तथा उषा में नागरी का अभेद कथन है। यह तीन प्रकार का होता है- सांग रूपक- जहाँ पर उपमान का उपमेय में अंगों सहित आरोप होता है, वहाँ सांगरूपक अलंकार होता है । उदित उदयगिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग। बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भृग ।। निरंग रूपक- जहाँ सम्पूर्ण अंगों का साम्य न होकर केवल एक अंग का ही आरोप किया जाता है वहाँ निरंग रूपक होता है- मुख-कमल समीप सजे थे, दो किसलय दल पुरइन के । परम्परित रूपक – जहाँ पर मुख्य रूपक एक अन्य रूपक पर आश्रित रहता है और वह बिना दूसरे रूपक के स्पष्ट नहीं होता है वहाँ परम्परित रूपक होता है । सुनिय तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खल बधिक ।

उत्प्रेक्षा अलंकार

परिभाषा: जहाँ उपमेय को ही उपमान मान लिया जाता है यानी अप्रस्तुत को प्रस्तुत मानकर वर्णन किया जाता है। वहा उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यहाँ भिन्नता में अभिन्नता दिखाई जाती है। उत्प्रेक्षा अलंकार में मनु,मानो, जनु, जानों इत्यादि वाचक शब्द का प्रयोग होता है । उदाहरण -

सोहत ओढ़े पीत पट श्याम सलोने गात ।
मनो नीलमनि शैल पर आतप पर् यो प्रभात ।

यह तीन प्रकार का होता है- फलोत्प्रेक्षा, हेतुत्प्रेक्षा, गम्योत्प्रेक्षा ।


अतिशयोक्ति अलंकार

परिभाषा: जहाँ पर लोक -सीमा का अतिक्रमण करके किसी विषय का वर्णन होता है । वहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार होता है। उदाहरण -

हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आगि । सगरी लंका जल गई ,गये निसाचर भागि। ।

यहाँ हनुमान की पूंछ में आग लगते ही सम्पूर्ण लंका का जल जाना तथा राक्षसों का भाग जाना आदि बातें अतिशयोक्ति रूप में कहीं गई है। यह सात प्रकार का होता है । रूपकातिशयोक्ति, भेदकातिशयोक्ति, सम्बन्धातिशयोक्ति, सापह्नुवातिशयोक्ति, चपलातिशयोक्ति, अक्रमातिशयोक्ति, अत्यन्तातिशयोक्ति

संदेह अलंकार

परिभाषा : 5.संदेह अलंकार :- जहाँ प्रस्तुत में अप्रस्तुत का संशयपूर्ण वर्णन हो ,वहाँ संदेह अलंकार होता है। जैसे - 'सारी बिच नारी है कि नारी बिच सारी है । कि सारी हीकी नारी है कि नारी हीकी सारी है । ' इस अलंकार में नारी और सारी के विषय में संशय है अतः यहाँ संदेह अलंकार है ।

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भ्रान्तिमान अलंकार

परिभाषा : 7.भ्रांतिमान अलंकार - जहाँ भ्रमवश उपमेय को उपमान समझ लिया जाता है , वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है ।जैसे – पाँय महावर देन को नाईन बैठी आय । फिरि-फिरि जानि महावरी, एड़ी मीड़त जाय ।।

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व्यतिरेक अलंकार

परिभाषा : व्यतिरेक अलंकार - जहाँ उपमेय से उपमान की अधिकता अथवा न्यूनता बताया जाये वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है । जैसे – साधू ऊँचे शैल सम , किन्तु प्रकृति सुकुमार । सन्त हृदय नवनीत समाना । कहा कविन्ह परि कहै न जाना ।।.

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दृष्टान्त अलंकार

6.दृष्टान्त अलंकार :- जहाँ दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्य में बिम्ब -प्रतिबिम्ब भाव होता है ,वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है। इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती -जुलती बात उपमान रूप में दूसरे वाक्य में होती है। उदाहरण :- 'एक म्यान में दो तलवारें , कभी नही रह सकती है । किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्या सह सकती है । । ' इस अलंकार में एक म्यान दो तलवारों का रहना वैसे ही असंभव है जैसा कि एक पति का दो नारियों पर अनुरक्त रहना । अतः यहाँ बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव दृष्टिगत हो रहा है।

विभावना अलंकार

8. विभावना अलंकार – जहाँ कारण के उपस्थित न होने पर भी कार्य हो रहा हो वहाँ विभावना अलंकार होता है ।जैसे – बिनु पद चले , सुने बिनु काना कर विनु कर्म करै विधि नाना । आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी ।।

अनन्वय अलंकार

10.अनन्वय अलंकार -जब उपमेय का कोई उपमान न होने के कारन उपमेय को ही उपमान बना दिया जाता है , तब उसे अनन्वय अलंकार होता है । जैसे - मुख मुख ही के सामान सुन्दर है । ताते मुख मुखै सखि कमलौ न चन्द री ।

11. विप्रलम्भ

15. विशेषोक्ति अलंकार- जहाँ पर कारण के उपस्थित होते हुए भी कार्य पूर्ण न हो रहा हो वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है । यह विभावना का उल्टा होता है । जैसे- फूलई फलहिं न बेत, जदपि सुधा बरसहिं जलद । मूरख हृदय न चेत, जौ गुरु मिलइ बिरंचि सम ।।

12. विरोधाभास

16. विरोधाभास अलंकार- जहाँ पर किसी पदार्थ, गुण या क्रिया में बिरोध दिखलाई पड़े वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है । जैसे- जाकी सहज स्वासि श्रुति चारी। सो हरि पढ़ि कौतुक भारी ।

13. असम्भव

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14. लक्षणा

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15. अर्थान्तरन्यास

14. अर्थान्तरन्यास अलंकार - जहाँ सामान्य कथन का विशेष से या विशेष कथन का सामान्य से समर्थन किया जाए, वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है । जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग । चन्दन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग ।।

16. वक्रोक्ति

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17. अप्रस्तुतप्रशंसा

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18. निमित्त

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19. परिकल्पना

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20. स्मरण

परिभाषा : 20. स्मरण अलंकार- जहाँ पर किसी सादृश्य उपमान के कारण उपमेय का स्मरण हो वहाँ पर स्मरण अलंकार होता है । जैसे स्याम सुरति करि राधिका, तकति तरनजा तीर । अँसुवनि करति तरौंस कौ, छिनकु खरौंहे नीर ।।

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21. वृद्धि

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22. सन्दर्भ

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23. हेत्वाभास

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24. अनुसंधान

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25. तर्क

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26. सन्देहात्मक

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27. विवक्षा

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28. प्रयोजन

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29. कारण

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30. परिणाम

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31. व्याजस्तुति

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32. अप्रत्यक्ष

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33. अप्रस्तुत

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34. विरोध

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35. विनय

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एक उदाहरण से कई अलंकार

  • उपमा—आपका मुख चंद्रमा के समान है
  • प्रतीप — चंद्रमा आपके मुख के समान है
  • रूपक — आपका चंद्रमुख
  • संदेह — यह आपका मुख है कि चन्द्र
  • अपह्नुति— यह चन्द्र है आपका मुख नहीं है
  • उपमेयोपमा — चन्द्र आपके मुख के समान है, आपका मुख चन्द्र के समान है
  • अनन्वय —आपका मुख आपके मुख के समान ही है
  • स्मरण —चन्द्र को देखकर आपके मुख का स्मरण हुआ
  • भ्रान्तिमान—आपके मुख को चन्द्र जानकर चकोर आपके मुख की ओर उड़ा
  • उल्लेख — यह चन्द्रकमल है ऐसा समझकर चकोर तथा भ्रमर आपके मुख की ओर उड़ रहे हैं
  • उत्प्रेक्षा — आपका मुख मानों चन्द्र है
  • अतिशयोक्ति — यह द्वितीय चन्द्र है
  • दीपक —रात्रि में चन्द्रमा और आपका मुख दोनों आनन्दित होते हैं
  • व्यतिरेक — चन्द्र रात्रि में उल्लसित होता है किन्तु आपका मुख सदैव उल्लसित रहता है
  • दृष्टान्त — जिस प्रकार आकाश में चन्द्र है उसी प्रकार पृथ्वी पर आपका मुख है
  • प्रतिवस्तूपमा — आकाश में चन्द्र विराजमान है पृथ्वी पर आपका मुख विराजमान है-
  • निदर्शना — आपका मुख चन्द्रमा की शोभा को धारण करता है
  • अप्रस्तुत-प्रशंसा — आपके मुख के सम्मुख चन्द्रमा फीका है
  • परिणाम — आपके चन्द्रमुख के कारण कामाग्नि शान्त हो जाती है
  • सहोक्ति — चंद्रमा तुम्हारे मुख के साथ रात के समय प्रसन्न रहता है

© 2025 • Paramhans Pathshala • सर्वाधिकार सुरक्षित

अर्थालंकार जहाँ अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है ,वहाँ अर्थालंकार होता है । अर्थालंकार में किसी शब्द विशेष के कारण चमत्कार नहीं रहता, वरन उसके स्थान पर यदि समानार्थी दूसरा शब्द रख दिया जाए तो भी अलंकार बना रहेगा इसके प्रमुख भेद है - १.उपमा २.रूपक ३.उत्प्रेक्षा ४.दृष्टान्त ५.संदेह ६.अतिशयोक्ति इत्यादि १.उपमा अलंकार :- जहाँ पर उपमेय से उपमान की तुलना की जाती है वहाँ उपमा अलंकार होता है । उपमा के चार अंग हैं- उपमेय, उपमान, वाचक और साधारण धर्म । उपमा के अंग - १- उपमेय (प्रस्तुत ) - जिसके लिए उपमा दी जाती है , या जिसकी तुलना की जाती है . २- उपमान (अप्रस्तुत )- जिससे उपमा दी जाती है , या जिससे तुलना की जाती है . ३- वाचक शब्द - वह शब्द , जिसके द्वारा समानता प्रदर्शित की जाती है . जैसे - ज्यों , जैसे , सम , सरिस , सामान आदि ४- समान धर्म - वह गुण अथवा क्रिया , जो उपमेय और उपमान , दोनों में पाया जाता है . अर्थात जिसके कारन इन दोनों को समान बताया जाता है . जैसे - राधा चन्द्र सी सुन्दर | | | | उपमेय उपमान वाचक शब्द समान धर्म उदाहरण- पीपर पात सरिस मन डोला । २.रूपक अलंकार :- 9. 11.अपह्नुति अलंकार:- जहाँ प्रस्तुत को छिपाकर अप्रस्तुत का आरोपण हो अर्थात जहाँ उपमान को ही सत्य की भाँति प्रतिष्ठित किया जाए वहाँ अपह्नुति अलंकार होता है। जैसे किंसुक गुलाब कचनार और अनारन की डारन पर डोलत अंगारन को पुंज है । 12. प्रतीप अलंकार - यह उपमा का उल्टा होता है । अर्थात जब उपमेय को उपमान और उपमान को उपमेय बना दिया जाता है , तो वहां प्रतीप अलंकार होता है । जैसे - चन्द्रमा मुख के सामान सुन्दर है । 13. उल्लेख अलंकार - जहाँ एक वस्तु का वर्णन अनेक प्रकार से किया जाए, वहाँ उल्लेख अलंकार होता है । उदाहरण तू रूप है किरण में, सौंदर्य है सुमन में, तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में। यहाँ रूप का किरण, सुमन, में और प्राण का पवन, गगन कई रूपों में उल्लेख है। 17.व्याजस्तुति अलंकार- जहाँ निन्दा के बहाने स्तुति तथा स्तुति के बहाने निन्दा का वर्णन किया जाता है वहाँ पर व्याजस्तुति अलंकार होता है । बाउ कृपा मूरति अनूकूला । बोलत बचन झरत जनू फूला। 18. असंगति अलंकार- कार्य तथा कारण का अलग-अलग स्थानों पर वर्णन ही असंगति अलंकार कहलाता है ।जैसे- पलनि पीक अंजन अधर, धरे महावर भाल । आजु मिले सु भली करी भले बने हो लाल । यहाँ अधरों पर पीक है तथा गालों पर महावर है । अर्थात कार्य एवं कारण में भिन्नता है इसलिये यहाँ पर असंगति अलंकार है । 19.समासोक्ति अलंकार- जहाँ पर अप्रस्तुत को लक्ष्य करके उसके सादृश्य अन्य वस्तु के प्रति कथन किया जाता है वहाँ पर समासोक्ति अलंकार होता है । जैसे- नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इह काल । अली कली हीं सौ बध्यौं आगे कवन हवाल ।।

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