यह बात सिद्ध समझी गयी है
कि अच्छी कविता अभ्यास से नहीं आती । जिसमें कविता करने का स्वाभाविक माद्दा होता
है वहीं कविता कर सकता है। देखा गया है कि जिस विषय पर बड़े-बड़े विद्वान अच्छी
कविता नहीं
कर सकते उसी पर अपढ़ और कम उम्र के लड़के कभी-कभी अच्छी कविता लिख देते हैं। इससे
स्पष्ट है कि किसी-किसी में कविता लिखने की इस्तेदाद स्वाभाविक होती है ,ईश्वरदत्त होती है। जो चीज ईश्वरदत्त है वह अवश्य लाभदायक होगी । वह
निरर्थक नहीं हो सकती । इसमें समाज को कुछ न कुछ लाभ अवश्य पहुँचता है। अतएव कोई
यह समझता हो कि कविता करना व्यर्थ हेै तो वह इसकी भूल है, हाँ
कविता के लक्षणों से च्युत तुले हुए वर्णों या मात्राओ की पद्य नामक पंक्तियाँ
व्यर्थ हो सकती हैं । आजकल पद्यमालाओं का प्राचुर्य है। इससे यदि कविता को कोई
व्यर्थ समझे तो आश्चर्य नहीं होगा ।
कविता यदि यथार्थ
में कविता है तो संभव नहीं कि उसे सुनकर सुनने वाले पर कुछ असर न हो । कविता से
दुनिया में आजतक बहुत बड़े -बड़े काम हुए हैं । इस बात के प्रमाण मौजूद हैं अच्छी
कविता सुनकर कवितागत रस के अनुसार दुख शोक क्रोध करुणा और जोश आदि भाव पैदा हुए
बिना नहीं रहते । जैसा भाव मन में पैदा होता है कार्य के रूप में फल भी वैसा ही
होता है। हम लोगों में पुराने जबाने में भाट चारण आदि अपनी कविता ही की बदौलत
बीरता का संचार कर देते थे। पुराणादि में कारुणिक प्रसंगो का वर्णन सुनने और
उत्तररामचरित आदि दृश्य काव्यों का अभिनय देखने से जो अश्रुपात होने लगता है वह
क्या है? वह अच्छी कविता का ही प्रभाव है ।
संसार में जो बात जैसी दीख पड़े कवि को उसे
वैसी ही वर्णन करना चाहिए। उसके लिए किसी तरह की रोक या पाबन्दी का होना अच्छा
नहीं। दबाव से कवि का अंश दब जाता है। उसके मन में जो भाव आप ही आप पैदा होता हैं
उन्हें जब वह निडर होकर अपनी कविता में प्रकट करता है तभी उसका असर लोगों पर
पूरा-पूरा पड़ता है। बनावट से कविता बिगड़ जाती है। किसी राजा या किसी व्यक्ति
विशेष के गुण-दोषोको देख कर कवि के मन में जो भाव उद्भूत हों उन्हे यदि वह
बेरोक-टोक प्रकट कर दे तो उसकी कविता हृदयद्रावक हुए बिना ना रहे, परन्तु परतन्त्रता
या पुरस्कार प्राप्ती या और किसी कारण से, यदि उसे अपने मन की बात कहने का साहस
नहीं होता तो, कविता का रस जरूर कम हो जाता है।इस दशा से अच्छे कवियों की भीरविता
नीरस, अतएव प्रभावहीन हो जाती है। सामाजिक और राजनीतिक बिषयों में कटु होने के
कारण, सच कहना भी जहॉं मना है वहॉं इन बिषयों पर कविता करने वाले कवियों के
उक्तियों का प्रभाव क्षीण हुए बिना नहीं रहता। कवि के लिए कोई रोक न होनी चाहिए
अथवा जिस बिषय पर रोक हो उस बिषय पर कवित ही न लिखनी चाहिए। नदी, तालाब, वन, पर्वत,
फूल, पत्ती, गरमी, सरदी आदि के ही वर्णन से उसे संतोष करना उचित है।
खुशामद
के जमाने में कविता की बुरी हालत होती है। जो कवि राजों नबाबों या बादशाहों के
आश्रय में रहते हैं, अथवा उनको खुश करने के इरादे से कविता करते हैं, उनको खुशामद
करनी पड़ती है। वे अपने आश्रयदाताओं की इतनी प्रशंसा करते हैं,इतनी स्तुति करते
हैं कि उनकी उक्तियाँ असलियत से बहुत दूर जा पड़ती हैं। ससे कविता को बहुत हानि
पहुँचती है। विशेष करके शिक्षित और सभ्य देशों में कवि का काम प्रभावोत्पादक रीति
से यथार्थ घटनाओं का वर्णन करना है। आकाश-कुसुमों के गुलदस्ते तैयार करना नहीं।
अलंकार शास्त्र के आचार्यों ने अतिशयोक्त एक अलंकार जरूर माना है परन्तु
अभावोक्तियाँ भी क्या कोई अलंकार है, किसी कवि की बेसिर-पैर की बातें सुनकर किस
समझदार आदमी को आनन्द-प्राप्ति हो सकती है¿ जिस समाज के लोग अपनी झूठी प्रशंसा
सुनकर प्रसन्न होते हैं वह समाज कभी प्रशंसनीय नहीं समझा जाता ।
कारणवश अमीरों की झूठी प्रशंसा करने,अथवा किसी
एक की विषय की कविता में कवि समुदाय के आमरण लगे रहने से कविता की सीमा कटछँट कर
बहुत थोड़ी रह जाती है। इस तरह की कविता उर्दू में बहुत अधिक है। यदि यह कहें कि
आशिकाना (श्रृंगारिक) कविता के सिवा और तरह की कविता उर्दू में है ही नहीं,तो बहुत
बड़ी अत्युक्ति न होगी। किसी दीवान को उठाइए, किसी मसनबी को उठाइए,आशिक-माशूकों को
रंगीन रहस्यों से आप उसे आरम्भ से अन्त तक रंगी हुई पाइएगा। इश्क भी यदि सच्चा हो
तो कविता में कुछ असलियत आ सकती है। पर क्या कोई कह सकता है कि आशिकाना शेर कहने
वालों का सारा रोना, कराहना,ठंडी साँसे लेना,जीते जी अपनी कब्रों पर चिराग जलाना
सब सच है¿ सब न सही,उनके प्रलापों का क्या थोड़ा सा भी अंश सच है¿ फिर,इस तरह की
कविता सैकड़ों वर्षों से होती आ रही है। अनेक कवि हो चुके,जिन्होंने इस विषय पर न
मालूम क्या-क्या लिख डाला है। इस दशा में नये कवि अपनी कविता में नयापन कैसे ला
सकते हैं¿ वही तुक,वही छन्द, वही शब्द, वही उपमा, वही रूपक। इस पर भी लोग पुरानी
लकीर को बराबर पीटते जाते हैं। कवित्त,सवैये,घनाक्षरी,दोहे-सोरठे लिखने से बाज
नहीं आते। नख-शिख, नायिका-भेद,अलंकारशास्त्र पर पुस्तकों पर पुस्तकें लिखते चले
जाते हैं।अपनी व्यर्थ बनावटी बातों से देवी-देवताओं तक को बदनाम करने से नहीं
सकुचाते। फल इसका यह हुआ है कि कविता की असलियत काफूर हो गई है। उसे सुनकर सुनने
वाले के चित्त पर कुछ भी असर नहीं होता उल्टा कभी मन में घृणा का द्रेक अवश्य
उत्पन्न हो जाता है।
साहित्य के बिगड़ने और उसकी सीमा
परिमित हो जाने से साहित्य पर भारी आघात होता है। यह बरबाद हो जाता है। भाषा में
दोष आ जाता है। जब कविता की प्रणाली बिगड़ जाती है तब उसका असर सारे ग्रन्थकारों
पर पड़ता है। यही क्यों,साधारण तक की बोलचाल तक में कविता के दोष आ जाते हैं। जिन
शब्दों जिन भावों, जिन उक्तियों का प्रयोग कवि करते हैं उन्हीं का प्रयोग और लोग
भी करने लगते हैं। भाषा और बोलचाल के सम्बन्ध में कवि ही प्रमाण माने जाते हैं,
कवियों ही के प्रयुक्त शब्दों और मुहावरों को कोशकार अपने कोशों में रखते हैं,
मतलब यह है कि भाषा और बोलचाल का बनना और बिगड़ना प्रायः कवियों के हाथ में ही
रहता है। जिस भाषा के कवि अपनी कविता में बुरे शब्द और बुरे भाव भरते रहते हैं, उस
भाषा की उन्नति तो होती नहीं, उल्टी अवनति हो जाती है ।
कविता प्रणाली के बिगड़ जाने पर कोई
नए तरह की स्वाभाविक कविता करने लगता है तो लोग उसकी निन्दा करते हैं। कुछ नासमझ
और नादान आदमी कहते हैं यह बड़ी भद्दी कविता है। कुछ कहते है यह कविता ही नहीं।
कुछ कहते है कि यह कविता तो छन्दोदिवाकर में दिये लक्षणों में च्युत है अतएव यह
निर्दोष नही। बात यह है कि जिसे अब तक कविता कहते आते हैं वहीं उनकी समझ में कविता
है और सब कोरी काँव-कांव। इसी तरह की नुक्ताचीनी से तंग आकर अंग्रेजी के प्रसिद्ध
कवि गोल्डस्मिथ ने अपनी कविता को संबोधन करके उसकी सान्तवना की है वह कहता है कविते यह बेकदरी का जमाना है।
लोगों के चित्त तेरी तरफ खिंचने तो दूर रहे उल्टी सब कहीं तेरी निन्दा होती है।
तेरी बदौलत सभा समाजों और जलसों में मुझे लज्जित होना प़ड़ता है । पर जब मैं अकेला
होता हूं तो तब तुझपर मैं घमण्ड करता हूँ। याद रख तेरी उत्पत्ति स्वाभाविक है जो लोग
अपने प्राकृतिक बल पर भरोसा रखते हैं वे निर्धन होकर भी आनन्द से रह सकते हैं पर
अप्राकृतिक बल पर किया गया गर्व कुछ दिन बाद जरूर चूर्ण हो जाता है।
गोल्डस्मिथ ने इस विषय
में बहुत कुछ कहा है पर हमने उसके कथन का सारांश बहुत ही थोड़े शब्दों में दे दिया
है। इससे प्रकट है कि नई कविता प्रणाली पर भृकुटी टेढ़ी करने वाले कवि प्रकाण्डों
के कहने की कुछ भी परवाह न करके अपने स्वीकृत पथ से जरा भी इधर-उधर होना उचित
नहीं। कई बातों से घबराना और उनके पक्षपातियों की निन्दा करना मनुष्य का स्वभाव सा
ही हो गया है। अतएव नयी भाषा और नयी कविता पर यदि कोई नुक्ताचीनी करे तो कोई
आश्चर्य नहीं।
आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही
चीज समझ रखा है यह भ्रम है। कविता और पद्य में वहीं भेद है जो अंग्रेजी की
पोयेट्री और वर्स में है। किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजन लेख बात या वक्तृता का
नाम कविता है और नियमानुसार तुली हुयी सतरों का नाम पद्य है । जिस पद्य को पढ़ने
या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता यह कविता नहीं वह नपी-तुली शब्दस्थापना मात्र
है। गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है। तुकबन्दी और अनुप्रास कविता के लिए
अपरिहार्य नहीं। संस्कृत का प्रायः सारा पद्य समूह बिना तुकबन्दी का है और संस्कृत
से बढ़कर कविता शायद ही किसी और भाषा में हो। अरब में भी सैकडों अच्छे-अच्छे कवि
हो गये हैं। वहाँ भी शुरू-शुरू में तुकबन्दी का बिलकुल ख्याल न था। अंग्रेजी में
भी अनुप्रास हीन बेतुकी कविता होती है। हाँ एकबात जरूर है कि वजन और काफिये से
कविता अधिक चित्ताकर्षक हो जाती है। पर कविता के लिए ये बातें ऐसी ही है जैसे कि
शरीर के लिए वस्त्राभरण। यदि कविता का प्रधान धर्म मनोरंजकता और प्रभावोत्पादकता
उसमें न हो तो इसका होना निष्फल समझना चाहिए। पद्य के काफिये वगैरह की जरूरत है
कविता के लिए नहीं। कविता के लिए तो ये बाते एक प्रकार से उल्टा हानिकारक है। तुले
हुए शब्दों में कविता करने और तुक अनुप्रास आदि ढ़ूढ़ने से कवियों के विचार
स्वातत्र्य में बड़ी बाधा आती है। पद्य के नियम कवि के लिए एक प्रकार की बेड़या
हैं। उनके जकड़ जाने से कवियों को अपने स्वाभाविक उड़ान में कठिनाइयों का सामना
करना पड़ता है। कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनतापूर्वक प्रकट करें
पर काफिये और वजन उसकी स्वाधीनता में विघ्न डालते हैं। वे उसे अपने भावों को
स्वतंत्रतापूर्वक नहीं प्रकट होने देते। काफिये और वजन को पहले ढूंढ़कर कवि को
मनोभाव तदनुकूल गढ़ने पड़ते हैं। इसका यह मतलब हुआ कि प्रधान बात अप्रधानता को
प्राप्त हो जाती है और एक बहुत ही गौण बात प्रधानता के आसन पर जा बैठती है। इससे
कवि अपने भाव स्वतंत्रतापूर्वक नहीं प्रकट कर सकता। फल यह होता है कि कवि की कविता
का असर कम हो जाता है। कभी-कभी तो यह बिलकुल ही जाता रहता है। अब आप ही कहिये कि
जो वजन और काफिया कविता के लक्षण का कोई अंश नही उन्हे ही प्रधानता देना भारी भूल
है या नहीं।
कवि का सबसे बड़ा गुण नई-नई बातों का
सूझना है। उसके लिए कल्पना की बड़ी जरूरत है। जिसमें जितनी अधिक यह शक्ति होगी वह
उतनी ही अच्छी कविता लिख सकेगा। कविता के लिए उपज चाहिए, नये-नये भावों की उपज
जिसके हृदय में ही नहीं वह कभी अच्छी कविता नही लिख सकता। यें बातें प्रतिभा की
बदौलत होती है। इस लिए संस्कृत वालों ने प्रतिभा को प्रधानता दी है। प्रतिभा
ईश्वरदत्त होती है। अभ्यास से वह नहीं प्राप्त होती है। इसी की बदौलत वह भूत और
भविष्यत् को हस्तामलकवत् देखता है, वर्तमान की तो कोई बात ही नहीं। इसी की कृपा से
वह सांसारिक बातों को एक अजीव निराले ढंग से बयान करता है जिसे सुनकर सुनने वाले
के हृदयोदधि में नाना प्रकार के सुख, दुःख, आश्चर्य आदि विकारों की लहरें उठने
लगती हैं। कवि कभी-कभी ऐसी अद्भुत बातें कह देते हैं कि जो कवि नहीं है उनकी पहुँच
वहाँ तक कभी हो ही नहीं सकती।
कवि का काम है कि वह प्राकृतिक विकास को खूब
ध्यान से देखे। प्रकृति की लीला का कोई ओर-छोर नहीं। वह अनन्त है। प्रकृति
अदभुत-अदभुत खेल खेला करती है। एक छोटे से फूल में वह अजीब-अजीब कौशल दिखाती है।
वे साधारण आदमियों के ध्यान में नही आते। वे उनको समझ ही नहीं सकते। पर कवि अपनी
सूक्ष्म दृष्टि से प्रकृति के कौशल अच्छी तरह देख लेता है, उनका वर्णन भी करता है
उससे नाना प्रकार की शिक्षा भी ग्रहण करता है और अपनी कविता के द्वारा संसार को
लाभ भी पहुँचाता है। जिस कवि में प्राकृतिक दृश्य औऱ प्रकृति के कौशल देखने और
समझने का जितना भी अधिक ज्ञान होता है वह उतना बड़ा कवि भी होता है। कवि-कुल-गुरू
कासिदास में विश्व-विख्यात काव्य रघुवंश तथा कविवर बिहारी लाल की सतसई से, विषय
का, एक-एक प्रत्युदाहरण सुनिए-
इक्षुच्छायनिषादिन्यस्तस्य
गोप्तुर्गुणोदयम्।
आकुमारकखोद्घातं
शालिगोप्यो जगुर्यशः।।
-रघुवंश
रघु
की दिग्विजय यात्रा के उपोद्घात में शरदृतु का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि ईख
की छाया में बैठी हुई धान रखाने वाली स्त्रियाँ रघ का यश गाती थां। शरत् काल में
जब धान के खेत पकते है, तब ईख इतनी-इतनी बड़ी हो जाती है कि उसकी छाया में हैठकर
खेत रखा सकें। ईख और धान के खेत प्रायः पास ही पास हुआ करते हैं। कवि को ये सब
बाते विदित थीं। श्लोक में इस दशा का-इस वास्तविक घटना का चित्र सा खींच दिया गया
है। शलोक पढ़ते ही वह समाँ आँखों में फिरने लगता है।
महाराजाधिराज विक्रमादित्य के सखा राजसी ठाठ से
रहने वाले कालिदास ने गरीब किसानों की, नगर से दूर जंगल में सम्बन्ध रखने वाली एक
वास्तविक घटना का कैसा मनोहर चित्र उतारा है। यह उसके प्रकृति पर्यायलोचक होने का
दृढ़ प्रमाण है। दूसरा प्रत्युदाहरण-
सन सूक्यौ बीत्यौ बनौ
ऊखौ लई उखरि।
हरी-हरी अरहर अजौं धर
घर हर हिय नारि।।
-सतसई
पहले
सन सूखता है, फर बन-बाड़ी या कपास के खेत की बहार खत्म होती है। पुनः ईख उखड़ने की
बारी आती है और इन सबसे पीछे गेहुँओं के साथ तक अरहर हरी-भरी खड़ी रहती है।
प्रकृति
पर्य्यालोचना के सिवा कवि को मानव स्वभाव की आलोचना का अभ्यास करना चाहिए। उसकी
दशा कभी एक सी नहीं रहती। अनेक प्रकार के विकार तरंग उसके मन में उठा ही करते है।
इन विकारों की जाँच ज्ञान और अनुभव करना सबका काम नहीं। केवल कवि ही इनके अनुभव
करने और कविता द्वारा औरों को इनका अनुभव कराने में समर्थ होता है। जिसे कभी पुत्र
शोक नहीं हुआ उसे उस शोक का यथार्थ ज्ञाना होना सम्भव नहीं। पर यदि वह कवि है तो
वह पुत्र शोकाकुल पिता या माता की आत्मा में प्रवेश सा करके उसका अनुभव कर लेता
है।उस अनुभव का वह इस तरह वर्णन करता है कि सुनने वाला तन्मनस्क होकर उस दुःख से
अभिभूत हो जाता है। उसे ऐसा मालूम होने लगता है कि स्वयं उसी पर वह दुःख पड़ रहा
है। जिस कवि को मनोविकारों और प्राकृतिक बातों का यथेष्ट ज्ञान नहीं वह कदापि
अच्छा कवि नहीं हो सकता।
कविता को प्रभावोत्पादक
बनाने के लिए उचित शब्द-स्थापना की भी बड़ी जरूरत होती है। किसी मनो-विकार या
दृश्य के वर्णन में ढूँढ़-ढूढ़ कर ऐसे शब्द रखने चाहिए जो सुनने वालों की आँखों के
सामने वर्ण्य विषय का चित्र सा खींच दे। मनोभाव चाहे कैसा ही अच्छा क्यों न हो,यदि
वह तदनुकूल शब्दों में न प्रकट किया गया तो उसका असर यदि जाता नहीं रहता तो कम
जरूर हो जाता है। इसीलिए कवि को चुन-चुन कर ऐसे शब्द रखने चाहिए और इस क्रम से
रखने चाहिए,जिससे उसके मन का भाव पूरे तौर पर व्यक्त हो जाय। उस पर कसर न पड़े।
मनोभाव शब्दों ही के द्वारा व्यक्त होता है। अतएव युक्तिसंगत शब्द स्थापना के बिना
कवि की कविता तादृश्य जानता अथवा यों कहिए कि उसके पास काफी शब्द समूह नहीं है कि किस
शब्द में उनका भाव प्रकट करने की एक बाल भर की कमी होती है,उसका वे कभी प्रयोग
नहीं करते। आजकल पद्य रचनाकर्ता महाशयों को इस बात का बहुत कम ख्याल रहता है इसी
से उनकी कविता,यदि अच्छे भाव से भरी हुई भी हो तो भी बहुत कम असर पैदा करती है। जो
कवि प्रति पंक्ति में, निरर्थक सु,जु और रु का प्रयोग करता है,वह मानों इस बात का
खुद ही सार्टिफिकेट दे रहा है कि मेरे अधिकृत शब्दकोष में शब्दों की कमी है। ऐसे
कवियों की कविता सर्व-सम्मत और प्रभावोत्पादक नहीं हो सकती।
अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि मिल्टन ने
कविता के तीन गुण वर्णन किये हैं। उनकी राय है कि कविता सादी हो,जोश से भरी हो और
असलियत से गिरी हुयी न हो ।
सादगी से यह मतलब नहीं कि सिर्फ
शब्द-समूह ही सादा हो, किन्तु विचार परम्परा भी सादी हो, भाव और विचार ऐसे सूक्ष्म
और छिपे हुए न हों कि उनका मतलब समझ में न आवे, या देर से समझ आवे। यदि कविता में
कोई ध्वनि हो तो इतनी दूर की न हो जो उसे समझने में गहरे विचार की जरूरत हो। कविता
पढ़ने या सुनने वाले को ऐसी साफ-सुथरी सड़क मिलनी चाहिए जिस पर कंकड़, पत्थर,
टीले, खंदक, काँटे और झाड़ियों का नाम न हो। वह खूब साफ और हमवाय हो, जिससे उस
परचलने वाला आराम से चला जाय। जिस तरह सड़क जरा भी ऊँची-नीची बाइसिकल (पैरगाड़ी)
के सवार को दचके लगते हैं, उसी तरह यदि कविता की सड़क यदि थोड़ी भी नाहमवार हुई तो
पढ़ने वाले के हृदय पर धक्का लगे बिना नहीं रहता। कविता रूपी सड़क के इधर-उधर
स्वच्छ पानी के नदी-नाले बहते हों, दोनो तरफ फल-फूलों से लदे हुए पेड़ हों, जगह-जगह
पर विश्राम करने योग्य स्थान बने हों, प्राकृतिक दृश्यों की नई-नई झाँकियाँ आँखों
को लुभाती हों। दुनिया में आजतक जितने भी अच्छे-अच्छे कवि हुए हैं उनकी कविता ऐसी
ही देखी गयी है। अटपटे भाव और अटपटे शब्द प्रयोग करने वाले कवियों की कद्र नहीं
हुयी। यदि कभी किसी की कुछ हुयी भी है तो थोड़े ही दिनों तक ऐसे कवि विस्मृत के
अन्धकार में ऐसे छुप गये हैं कि इस समय उनका कोई नाम तक नहीं जानता । एकमात्र सूची
शब्द झंकार की जिन कवियों की करामात है उन्हे चाहिए कि वे एकदम ही बोलना बन्द कर
दें।
भाव चाहे कैसा ही ऊँचा
क्यों न हो, पेचीदा न होना चाहिए। वह ऐसे शब्दों के द्वारा प्रकट किया जाना चाहिए
जिनसे सब लोग परिचित हों। मतलब यह कि भाषा बोलचाल की हो। क्योंकि कविता की भाषा
बोलचाल से जितनी ही अधिक दूर जा पड़ती है,उतनी ही उसकी सादगी कम हो जाती है ।
बोलचाल से मतलब उस भाषा से है जिसे खास और आम सब बोलते हैं विद्वान और अविद्वान दोनों
जिसे काम में लाते हैं। इसी तरह कवि को मुहावरों का भी ख्याल रखना चाहिए जो
मुहाविरा सर्वसम्मत है,उसी का प्रयोग करना चाहिए। हिन्दी और उसमें कुछ शब्द अन्य
भाषाओं के भी आ गए हैं। वे यदि बोलचाल के हैं तो उनका प्रयोग सदोष नहीं माना जा सकता।
उन्हें त्याज्य नहीं समझना चाहिए। कोई-कोई ऐसे शब्दों को उनके मूल रूप में लिखना
ही सही समझते हैं पर यह उनकी भूल है। जब अन्य भाषा का कोई शब्द किसी और भाषा में आ
जाता है,तब वह उसी भाषा का हो जाता है। अतएव उसे उसकी मूल भाषा के रूप में लिखते
जाना ही भाषा विज्ञान के नियमों के खिलाफ है।
असलियत से मतलब नहीं कि कविता एक
प्रकार का इतिहास समझा जाय और हर बात में सच्चाई का ख्याल रखा जाय। यह नहीं कि
सच्चाई की कसौटी पर यदि कुछ भी कसर मालूम हो तो कविता का वितापन जाता रहे । असलियत
से सिर्फ इतना ही मतलब है कि कविता बेबुनियाद न हो, उसमें जो उक्ति हो वह मानवी
मनोविकारों और प्राकृतिक नियमों के आधार पर कही गई हो। स्वाभाविकता से उसका लगाव न
छूटा हो। क्योंकि स्वाभाविक अर्थात नेचुरल(Natural) उक्तियाँ ही सुनने
वाले के हृदय पर असर कर सकती हैं,अस्वाभाविक नहीं। असलियत को लिए हुए कवि
स्वतंत्रतापूर्वक जो चाहे कह सकता है,असल बात को एक नये साँचे में ढाल कर कुछ दूर
इधर-उधर भी उड़ान भर सकता है, पर असलियत के लगाव को वह नहीं छोड़ता। असलियत को हाथ
से जाने देना मानो कविता को प्रायः निर्जीव कर डालना है। शब्द और अर्थ दोनों ही के
सम्बन्ध में उसे स्वाभाविकता का अनुधावन करना चाहिए। जिस बात के कहने में लोग
स्वाभाविक रीति का जैसे और जिस क्रम से शब्द प्रयोग करते हैं वैसे ही कवि को भी
करना चाहिए। कविता में कोई बात ऐसी न कहनी चाहिए जो दुनिया में न होती हो। जो बाते
हमेशा हुआ करती हैं अथवा जिन बातों का होना सम्भव है, वही स्वाभाविक हैं।
जोश
से मतलब है कि कवि जो कहे इस तरह कहे मानों उसके प्रयुक्त शब्द आप ही आप उसके मुँह
से निकल गये हैं। उनसे बनावट न जाहिर हो। यह न मालूम हो कि कवि ने कोशिक करके यह
बाते कही हैं,किन्तु यह मालूम हो कि उसके हृदयगत भावों ने कविता के रूप में अपने
को प्रकट कराने के लिए उसे विवश किया है। जो कवि है,उसमें जोश स्वाभाविक होता है।
वर्ण्य वस्तु को देखकर,किसी अदृश्य शक्ति की प्रेरणा से वह उस पर कविता करने के
लिए विवश सा हो जाता है। उसमें एक अलौकिक शक्ति पैदा हो जाती है। इसी शक्ति के बल
से वह सजीव ही नहीं निर्जीव चीजों तक का वर्णन ऐसे प्रभावोत्पादक ढंग से करता है
कि यदि उन चीजों में बोलने की शक्ति होती तो खुद वे भी उससे अच्छा वर्णन न कर
सकतीं।
सादगी,असलियत और जोश यदि
ये तीनों गुण कविता में हो तो कहना ही क्या है परन्तु बहुधा अच्छी कविता में भी
इनमें से एकाध गुण की कमी पाई जाती है। कभी-कभी देखा जाता है कि कविता में केवल
जोश रहता है,सादगी और असलियत नहीं। परन्तु बिना असलियत के जोश का होना बहुत कठिन
है। अतएव कवि को असलियत का सबसे अधिक ध्यान रखना चाहिए।
अच्छी कविता की सबसे बड़ी
परीक्षा यह है कि उसे सुनते ही लोग बोल उठें कि सच कहा। वही कवि सच्चे कवि
हैं,जिनकी कविता सुनकर लोगों के मुँह से सहसा यह उक्ति निकलती है, ऐसे कवि धन्य
हैं और जिस देश में ऐसे कवि पैदा होते हैं वह देश भी धन्य है। ऐसे ही कवियों की
कविता चिरकाल तक जीवित रहती है।
4 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर विद्वता पूर्ण लेख है आदरणीय , मैं चंडीगढ़ से एक चेस्ट स्पेसलिस्ट व लेखक हूँ क्या आप मुझे इस लेख का अंश मेरे गजल सीएचएचएनडी पुस्तक में उद्धृत करने की अनुमति देंगे अगर हाँ तो कृपया अनुमति व यह लेख मेरे मेल venus01973@gmail भेजने का कष्ट करें
यह लेख महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का निबन्ध है, आप सब इसे अवश्य पढ़िए ।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" शनिवार 03 दिसम्बर 2022 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
काव्य की आत्मा की सूक्ष्म अभिव्यक्ति।अनुपम लेख।🙏
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