अलंकार
अलंकार की परिभाषा-
मानव समाज सौन्दर्योपासक है ,उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है। शरीर की सुन्दरता को
बढ़ाने के लिए जिस प्रकार मनुष्य ने भिन्न -भिन्न प्रकार के आभूषण का प्रयोग किया ,उसी प्रकार उसने भाषा को सुंदर बनाने के लिए अलंकारों का सृजन किया । काव्य की शोभा बढ़ाने वाले शब्दों को अलंकार कहते है । जिस प्रकार नारी के सौन्दर्य को
बढ़ाने के लिए आभूषण होते है,उसी प्रकार भाषा के सौन्दर्य के
उपकरणों को अलंकार कहते है।
इसीलिए कहा गया है - 'भूषण बिन न बिराजई कविता बनिता मित्त ।'
अलंकार शब्द की व्युत्तपत्ति अलम्+ कृ+ घञ् प्रत्यय के योग से हुयी है । जिसका
अर्थ है अलंकृत करना । “जिसके द्वारा
अलंकृत किया जाय वहीं अलंकार है ।
अलंकार की निम्न लिखित परिभाषाएँ हैं-
1.
अलंकरोति
इति अलंकारः- अलंकृत करता है अतः अलंकार है ।
2.
अलंक्रियते
अनेन इति अलंकारः- जिससे यह
अलंकृत होता है वह अलंकार है ।
3.
अलंकृतिः
अलंकारः- अलंकृति ही अलंकार है ।
4.
वाचां
वक्रार्थ शब्दोक्तिरिष्टा वाचांलंकृतिः- शब्द और अर्थ की विभामय करने वाली वक्रोक्ति ही अलंकार है
– भामह
5.
काव्य
शोभाकरान् धर्मान अलंकारान प्रचक्षते- काव्य
के समस्त शोभाकारक धर्म ही अलंकार हैं- दण्डी
6.
काव्य
शोभायाः कर्तारौ धर्माः गुणाः तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः- काव्य का शोभाकारक धर्म गुण है और उसकी अतिशयता का हेतु
अलंकार है – वामन
7.
काव्यात्मनो
व्यंग्यस्य रमणीयता प्रयोजका अलंकाराः- अलंकार उन्हें कहते हैं जो काव्य की आत्मा व्यंग्य की रमणीयता
के प्रयोजक हैं- जगन्नाथ
अलंकार के तत्व- अलंकार
के मूल में कौन से तत्व रहते हैं इस पर संस्कृत विद्वानों नें अलग अलग मत दिये
हैं-
दण्डी- स्वभावोक्ति
भामह-
वक्रोक्ति
वामन व रूय्यक- सादृश्य
उद्भट- अतिशयता
अभिनवगुप्त- गुणभूतव्यंग्य
अलंकार के भेद
अलंकार के भेद
- इसके तीन भेद होते है - १.शब्दालंकार २.अर्थालंकार ३.उभयालंकार
शब्दालंकार
जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उपस्थित
हो जाता है और उन शब्दों के स्थान पर समानार्थी दूसरे शब्दों के रख देने से वह
चमत्कार समाप्त हो जाता है,वहाँ पर शब्दालंकार माना जाता है।
शब्दालंकार के
प्रमुख भेद है - १.अनुप्रास २.यमक ३.श्लेष, ४.वक्रोक्ति
१.अनुप्रास :- अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्रास' शब्दों के योग से बना है । 'अनु' का अर्थ है :- बार- बार तथा 'प्रास' का अर्थ है - वर्ण । जहाँ स्वर की समानता के
बिना भी वर्णों की बार -बार आवृत्ति होती है ,वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है । इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार -बार प्रयोग किया जाता है ।
जैसे -
जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप ।
विश्व बदर इव धृत उदर जोवत सोवत सूप । ।
विश्व बदर इव धृत उदर जोवत सोवत सूप । ।
यह पाँच प्रकार का होता है – 1.छेकानुप्रास, 2.वृत्यानुप्रास,
3.श्रुत्यानुप्रास, 4. अन्त्यानुप्रास, 5. लाटानुप्रास
२.यमक अलंकार :- जहाँ एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आये ,लेकिन अर्थ अलग-अलग हो वहाँ यमक अलंकार होता है। उदाहरण -
कनक कनक ते सौगुनी ,मादकता अधिकाय ।
वा खाये बौराय नर ,वा पाये बौराय। ।
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक
कनक का अर्थ है - धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है । यह तीन प्रकार का होता है- आदिपद
यमक, मध्यपद यमक, अन्तपद यमक
३.श्लेष अलंकार :- जहाँ पर
शब्द एक ही बार आए किन्तु अर्थ अलग-अलग हो वहाँ श्लेष अलंकार होता है । ऐसे शब्दों
का प्रयोग हो ,जिनसे एक से
अधिक अर्थ निलकते हो ,वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है । साहित्य दर्पण में इसे आठ प्रकार का
बताया गया है ।
चिरजीवो जोरी जुरे क्यों न सनेह गंभीर ।
को घटि ये वृष भानुजा ,वे हलधर के बीर। ।
यहाँ वृषभानुजा के दो अर्थ है - १.वृषभानु की पुत्री राधा
२.वृषभ की अनुजा गाय । इसी प्रकार हलधर के भी दो अर्थ है - १.बलराम २.हल को धारण
करने वाला बैल ।
4.वक्रोक्ति अलंकार- “सादृश्य
लक्षणा वक्रोक्तिः” जहाँ पर श्लेषार्थी शब्द से अथवा काकु (कंठ की विशेष
ध्वनि) से प्रत्यक्ष अर्थ के स्थान पर दूसरा अर्थ कल्पित करे, वहाँ वक्रोक्ति होती
है ।
यह दो प्रकार
का होता है- श्लेष वक्रोक्ति, काकु वक्रोक्ति ।
हौं घनश्याम
विरमि-विरमि, बरसौ नेह लगाय ।
प्रिय, हरि
हौं, कित हौं यहाँ, रमौ कुंज बन जाय ।
अर्थालंकार
जहाँ अर्थ के
माध्यम से काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है ,वहाँ अर्थालंकार होता है । अर्थालंकार में किसी
शब्द विशेष के कारण चमत्कार नहीं रहता, वरन उसके स्थान पर यदि समानार्थी दूसरा
शब्द रख दिया जाए तो भी अलंकार बना रहेगा
इसके प्रमुख भेद है - १.उपमा २.रूपक ३.उत्प्रेक्षा ४.दृष्टान्त ५.संदेह
६.अतिशयोक्ति इत्यादि
१.उपमा अलंकार :- जहाँ पर
उपमेय से उपमान की तुलना की जाती है वहाँ उपमा अलंकार होता है । उपमा के चार अंग
हैं- उपमेय, उपमान, वाचक और साधारण धर्म ।
उपमा के अंग -
१- उपमेय (प्रस्तुत ) - जिसके लिए उपमा दी जाती है , या जिसकी तुलना की जाती है .
२- उपमान (अप्रस्तुत )- जिससे उपमा दी जाती है , या जिससे तुलना की जाती है .
३- वाचक शब्द - वह शब्द , जिसके द्वारा समानता प्रदर्शित की जाती है . जैसे - ज्यों , जैसे , सम , सरिस , सामान आदि
४- समान धर्म - वह गुण अथवा क्रिया , जो उपमेय और उपमान , दोनों में पाया जाता है . अर्थात जिसके कारन इन दोनों को समान बताया जाता है .
जैसे - राधा चन्द्र सी सुन्दर
| | | |
उपमेय उपमान वाचक शब्द समान धर्म
उदाहरण- पीपर पात सरिस मन डोला ।
उपमा के दो भेद होते है -
१- पूर्णोपमा - जब उपमा में इसके चारो अंग प्रत्यक्ष हो ।
जैसे - मुख मयंक सम मंजु मनोहर । मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है .
२- लुप्तोपमा - जब उपमा के चारो अंगो में से कोई एक या अधिक अंग लुप्त हो । जैसे- कुन्द इन्दु सम देह । यहाँ पर साधारण धर्म लुप्त है ।
१- पूर्णोपमा - जब उपमा में इसके चारो अंग प्रत्यक्ष हो ।
जैसे - मुख मयंक सम मंजु मनोहर । मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है .
२- लुप्तोपमा - जब उपमा के चारो अंगो में से कोई एक या अधिक अंग लुप्त हो । जैसे- कुन्द इन्दु सम देह । यहाँ पर साधारण धर्म लुप्त है ।
२.रूपक अलंकार :- “रूपकं रूपितारोपोविषयेनिरपह्नवे।” जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप किया जाय ,वहाँ रूपक अलंकार होता है , यानी उपमेय और उपमान में कोई अन्तर न दिखाई पड़े । उदाहरण -
बीती विभावरी जाग री।
अम्बर -पनघट में डुबों रही ,तारा -घट उषा नागरी ।'
यहाँ अम्बर में पनघट ,तारा में घट तथा उषा में नागरी का
अभेद कथन है। यह तीन प्रकार का होता है-
सांग रूपक- जहाँ पर उपमान का उपमेय में अंगों सहित आरोप होता
है, वहाँ सांगरूपक अलंकार होता है । उदित उदयगिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज
सब, हरषे लोचन भृग ।।
निरंग रूपक- जहाँ सम्पूर्ण अंगों का साम्य न होकर केवल एक अंग
का ही आरोप किया जाता है वहाँ निरंग रूपक होता है- मुख-कमल समीप सजे थे, दो किसलय दल पुरइन के ।
परम्परित रूपक – जहाँ पर मुख्य रूपक एक अन्य रूपक पर आश्रित रहता
है और वह बिना दूसरे रूपक के स्पष्ट नहीं होता है वहाँ परम्परित रूपक होता है ।
सुनिय
तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खल बधिक ।
३.उत्प्रेक्षा अलंकार :- जहाँ उपमेय को ही उपमान मान लिया जाता है यानी अप्रस्तुत को
प्रस्तुत मानकर वर्णन किया जाता है। वहा उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यहाँ भिन्नता में अभिन्नता दिखाई जाती है।
उत्प्रेक्षा अलंकार में मनु,मानो, जनु, जानों इत्यादि वाचक शब्द का प्रयोग होता है
। उदाहरण -
सोहत ओढ़े पीत
पट श्याम सलोने गात ।
मनो नीलमनि शैल पर आतप पर् यो प्रभात । ।
मनो नीलमनि शैल पर आतप पर् यो प्रभात । ।
यह तीन प्रकार का होता है- फलोत्प्रेक्षा,
हेतुत्प्रेक्षा, गम्योत्प्रेक्षा ।
४.अतिशयोक्ति अलंकार :- जहाँ पर लोक -सीमा का अतिक्रमण करके किसी विषय
का वर्णन होता है । वहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार होता है। उदाहरण -
हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आगि ।
सगरी लंका जल गई ,गये निसाचर भागि। ।
यहाँ हनुमान की
पूंछ में आग लगते ही सम्पूर्ण लंका का जल जाना तथा राक्षसों का भाग जाना आदि बातें
अतिशयोक्ति रूप में कहीं गई है। यह सात प्रकार का होता है । रूपकातिशयोक्ति,
भेदकातिशयोक्ति, सम्बन्धातिशयोक्ति, सापह्नुवातिशयोक्ति, चपलातिशयोक्ति,
अक्रमातिशयोक्ति, अत्यन्तातिशयोक्ति
5.संदेह अलंकार :- जहाँ प्रस्तुत में अप्रस्तुत का संशयपूर्ण वर्णन
हो ,वहाँ संदेह अलंकार होता है। जैसे -
'सारी बिच नारी है कि नारी बिच सारी है ।
कि सारी हीकी नारी है कि नारी हीकी सारी है । '
इस अलंकार में नारी और सारी के विषय में संशय है अतः यहाँ
संदेह अलंकार है ।
6.दृष्टान्त अलंकार :- जहाँ दो
सामान्य या दोनों विशेष वाक्य में बिम्ब -प्रतिबिम्ब भाव होता है ,वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है। इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती -जुलती बात
उपमान रूप में दूसरे वाक्य में होती है। उदाहरण :-
'एक म्यान में दो तलवारें , कभी नही रह सकती है ।
किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्या सह सकती है । । '
इस अलंकार में एक म्यान दो तलवारों का रहना वैसे ही असंभव है
जैसा कि एक पति का दो नारियों पर अनुरक्त रहना । अतः यहाँ बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव
दृष्टिगत हो रहा है।
7.भ्रांतिमान अलंकार - जहाँ भ्रमवश उपमेय को उपमान समझ लिया जाता है , वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है ।जैसे –
पाँय महावर देन को नाईन बैठी आय ।
फिरि-फिरि जानि महावरी, एड़ी मीड़त जाय ।।
8. विभावना अलंकार – जहाँ कारण के उपस्थित न होने पर भी कार्य हो रहा हो वहाँ विभावना अलंकार होता है ।जैसे –
8. विभावना अलंकार – जहाँ कारण के उपस्थित न होने पर भी कार्य हो रहा हो वहाँ विभावना अलंकार होता है ।जैसे –
बिनु पद चले , सुने बिनु काना
कर विनु कर्म करै विधि नाना ।
आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु वाणी
वक्ता बड़ जोगी ।।
9. व्यतिरेक अलंकार - जहाँ उपमेय से उपमान की अधिकता अथवा न्यूनता बताया जाये वहाँ व्यतिरेक
अलंकार होता है । जैसे –
साधू ऊँचे शैल सम , किन्तु प्रकृति सुकुमार ।
सन्त हृदय नवनीत समाना । कहा कविन्ह परि कहै न जाना ।।
सन्त हृदय नवनीत समाना । कहा कविन्ह परि कहै न जाना ।।
10.अनन्वय अलंकार -जब उपमेय का कोई उपमान न होने के कारन उपमेय को ही उपमान बना दिया जाता
है , तब उसे अनन्वय अलंकार होता है ।
जैसे - मुख मुख ही के सामान सुन्दर है ।
जैसे - मुख मुख ही के सामान सुन्दर है ।
ताते मुख
मुखै सखि कमलौ न चन्द री ।
11.अपह्नुति अलंकार:- जहाँ प्रस्तुत को छिपाकर अप्रस्तुत का आरोपण हो अर्थात जहाँ
उपमान को ही सत्य की भाँति प्रतिष्ठित
किया जाए वहाँ अपह्नुति अलंकार होता है। जैसे
किंसुक गुलाब कचनार और अनारन की
डारन
पर डोलत अंगारन को पुंज है ।
12. प्रतीप अलंकार - यह उपमा का उल्टा होता है । अर्थात जब उपमेय को उपमान और उपमान को उपमेय बना दिया जाता है , तो वहां प्रतीप अलंकार होता है ।
जैसे - चन्द्रमा मुख के सामान सुन्दर है ।
13. उल्लेख अलंकार - जहाँ एक वस्तु का वर्णन अनेक प्रकार से किया जाए, वहाँ उल्लेख अलंकार होता है । उदाहरण
तू रूप है किरण में,
सौंदर्य है सुमन में,
तू प्राण है पवन में,
विस्तार है गगन में।
यहाँ
रूप का किरण, सुमन, में और प्राण का पवन, गगन कई रूपों में उल्लेख है।
14. अर्थान्तरन्यास अलंकार - जहाँ सामान्य कथन का विशेष से या विशेष कथन का सामान्य से समर्थन
किया जाए, वहाँ अर्थान्तरन्यास
अलंकार होता है ।
जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग ।
चन्दन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग ।।
15.
विशेषोक्ति अलंकार- जहाँ पर कारण के उपस्थित होते हुए भी कार्य पूर्ण न हो
रहा हो वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है । यह विभावना का उल्टा होता है । जैसे-
फूलई फलहिं न बेत, जदपि सुधा बरसहिं जलद ।
मूरख हृदय न चेत, जौ गुरु मिलइ बिरंचि सम ।।
16. विरोधाभास अलंकार- जहाँ
पर किसी पदार्थ, गुण या क्रिया में बिरोध दिखलाई पड़े वहाँ पर विरोधाभास अलंकार
होता है । जैसे-
जाकी
सहज स्वासि श्रुति चारी। सो हरि पढ़ि कौतुक भारी ।
17.व्याजस्तुति अलंकार- जहाँ
निन्दा के बहाने स्तुति तथा स्तुति के बहाने निन्दा का वर्णन किया जाता है वहाँ पर
व्याजस्तुति अलंकार होता है ।
बाउ
कृपा मूरति अनूकूला । बोलत बचन झरत जनू फूला।
18. असंगति अलंकार- कार्य तथा कारण का अलग-अलग स्थानों पर वर्णन ही
असंगति अलंकार कहलाता है ।जैसे-
पलनि पीक अंजन
अधर, धरे महावर भाल ।
आजु मिले सु
भली करी भले बने हो लाल ।
यहाँ अधरों पर पीक है तथा गालों पर महावर है ।
अर्थात कार्य एवं कारण में भिन्नता है इसलिये यहाँ पर असंगति अलंकार है ।
19.समासोक्ति अलंकार- जहाँ पर अप्रस्तुत को लक्ष्य करके उसके सादृश्य
अन्य वस्तु के प्रति कथन किया जाता है वहाँ पर समासोक्ति अलंकार होता है । जैसे-
नहिं पराग नहिं
मधुर मधु नहिं विकास इह काल ।
अली कली हीं सौ
बध्यौं आगे कवन हवाल ।।
20. स्मरण अलंकार- जहाँ पर किसी सादृश्य उपमान के कारण उपमेय का स्मरण
हो वहाँ पर स्मरण अलंकार होता है । जैसे
स्याम सुरति
करि राधिका, तकति तरनजा तीर ।
अँसुवनि करति
तरौंस कौ, छिनकु खरौंहे नीर ।।
अर्थालंकारों
पर एक नजर-
आपका
मुख चंद्रमा के समान है- उपमा
चंद्रमा
आपके मुख के समान है- प्रतीप
आपका
चंद्रमुख- रूपक
यह
आपका मुख है कि चन्द्र- संदेह
यह
चन्द्र है आपका मुख नहीं है- अपह्नुति
चन्द्र
आपके मुख के समान है, आपका मुख चन्द्र के समान है- उपमेयोपमा
आपका
मुख आपके मुख के समान ही है- अनन्वय
चन्द्र
को देखकर आपके मुख का स्मरण हुआ- स्मरण
आपके
मुख को चन्द्र जानकर चकोर आपके मुख की ओर उडा- भ्रान्तिमान
यह
चन्द्रकमल है ऐसा समझकर चकोर तथा भ्रमर आपके मुख की ओर उड़ रहे हैं – उल्लेख
आपका
मुख मानों चन्द्र है- उत्प्रेक्षा
यह
द्वितीय चन्द्र है- अतिशयोक्ति
रात्रि
में चन्द्रमा और आपका मुख दोनों आनन्दित होते हैं- दीपक
चन्द्र
रात्रि में उल्लसित होता है किन्तु आपका मुख सदैव उल्लसित रहता है- व्यतिरेक
जिस प्रकार आकाश में चन्द्र है उसी प्रकार
पृथ्वी पर आपका मुख है- दृष्टान्त
आकाश
में चन्द्र विराजमान है पृथ्वी पर आपका मुख विराजमान है- प्रतिवस्तूपमा
आपका
मुख चन्द्रमा की शोभा को धारण करता है- निदर्शना
आपके
मुख के सम्मुख चन्द्रमा फीका है- अप्रस्तुत प्रशंसा
आपके
चन्द्रमुख के कारण कामाग्नि शान्त हो जाती है- परिणाम
चंद्रमा
तुम्हारे मुख के साथ रात के समय प्रसन्न रहता है- सहोक्ति
2 टिप्पणियां:
श्री स्वामिने नमः 🙏
गुरदेव प्रणाम
Wow good website, thank you.
Aikatana By Pratibha Ray
Order Odia Books
Odia Books Online
एक टिप्पणी भेजें