सिन्धुवादवृत्तम- प्रथम भाग

 श्री लक्ष्मणशास्त्री तैलंगकृत- सिन्धुवादवृत्तम

श्रीमद्विदामपुरपुरन्दरस्य महाराधिराजस्य श्रीहारीतमहीपतेराधिराज्ये वसन् हितवादो नाम कश्चन भारवहनवृत्तिरकिञ्चन एकस्मिन् निदाघदिवसे महान्तं भारं शिरसा वहन् मार्गान्मार्गान्तरं भ्रमन् परिश्रमाति-शयक्लान्तधर्मसलिलार्द्रगात्रो विनिःश्वसन मार्गमकं सम्मार्जितं प्रस्तरनिबद्धं गन्धजलावसेकसम्भवामोदमेदुरीकृतासन्नवसुमतीपरिसरं समाससाद। तेन च परिमलोद्गारेण किञ्चिदपनीतश्रमो भारं स्वकीयं शिरसोऽवरोप्य सविधस्थितस्यातिरम्यस्यैकस्य हर्म्यस्याधस्तात् विशिश्रमिषुः क्षणं तस्थौ।

 विदामपुर के नरेश महाराजाधिराज श्रीमान् हारीत के शासन काल में हितवाद नाम का एक गरीब कुली रहता था जो बोझ उठाकर अपनी जीविका चलाता था। गर्मी में वह एक दिन सिर पर बड़ा बोझा रखकर एक रास्ते से दूसरे रास्ते पर घूमते हुए परिश्रम से थका हुआ पसीने से लथपत हो गया और हाँफते हुए सड़क पर पहुँचा। वह सड़क साफ सुथरी और अच्छे पत्थरों से बनी हुई थी। सुगन्धित जल का छिड़काव होने से उसके आप-पास की धरती मन्द सुगन्ध से महक रही थी। उस भीनी सुगन्ध से उसकी थकावट थोड़ी दूर हो गई, वह अपने बोझ को सिर से उतारकर पास के अत्यन्त सुन्दर एक महल के नीचे विश्राम करने की इच्छा से क्षणभर ठहर गया।

तस्य च हर्म्योत्तमस्य गवाक्षजालादुदीर्णम् श्रोत्रपीयूषायमाणं पिकशुकसारिकामुखखगगणविरुतं मृदङ्गनिनादमिश्रम् च सङ्गीतध्वनि माकान्तपरिपच्यमानानां भोज्यान्नानामभिनवामोदं चोपाघ्राय सोऽयं नूनमिह कश्चिन्महान् भोजनोत्सवः प्रचलतीति मनसाऽऽकलयन् गृहस्वामिजिज्ञासाकुतूहलपरिगृहीतचेता उपसृत्य द्वारदेशशून्यतां नयतो महाहवेषान् सेवकपुरुषानेवमनाक्षीत् -

भद्राः! कस्य नाम सुकृतिनः सदनमेतत् इति।

ते तु साश्चर्यमेनमवलोक्य अये! पुरमिदमधिवसन्नपि सकलमहा-सिन्धुयात्राप्रथितयशसोऽमितवैभवभरस्यार्यसिन्धुवादस्यापि सदनं न जानासि इति तमुपजहसुः।

उस श्रेष्ठ महल की खिड़कियों से आने वाली अमृत के समान शुक, सारिका आदि के चहचहा हट और मृदङ्गध्वनि से मिश्रित संगीत को सुनकर तथा अन्दर पकने वाले खाद्यानों की ताजी सुगन्धि को सूंघकर वह सोचने लगा यहाँ निश्चय ही कोई बड़ा भोजनोत्सव चल रहा हैं। यह सोचकर गृहस्वामी के विषय में जानने की उत्सुकता मन में रखते हुए द्वार पर पहरा देने वाले बहुमूल्य वेशभूषा धारण करने वाले सेवकों के पास आकर उसने उनसे पूछा-सज्जनों! यह किस पुण्यात्मा का महल है

वे आश्चर्य से उसे देखकर इस प्रकार उसका उपहास करने लगे-“अरे इस शहर में रहते हुए भी तुम आर्य सिन्धुवाद के महल को नहीं जानते, जिसने सम्पूर्ण सागरों की यात्रा कर खूब यश और अपरिमित वैभव अर्जित किया है।

हितवादस्तु मनसि तदीयया भाग्यसम्पदा स्वां शोचनीयतमा दशां तुलयन् खिन्नान्तरङ्ग ऊर्ध्वम् विलोक्य सनिश्वसितं- विधे! कीदृशी सेयं तव वैषम्यप्रवणता अप्रभातादादिनान्तं कृतमहापरिश्रमोऽपि सोऽहं परिवारपोषणमात्रपर्याप्तमपि धनं सम्पादयितुमक्षमः, यावदयं सिन्धुवादोऽक्लेशमेवमानन्दसम्पदोः परां काष्ठामारोपितः किन्नाम महासुकृतमनेन समनुष्ठितम् दुर्भगेन मया वा किमपराद्धम् इति।

नैराश्यनिगीर्ण उच्चैरयोषयत्।

सपदि च हान्तरात् समुपेत्य भृत्य एकस्तमेवमब्रवीत् -

भद्र! किमपि विवक्षुरस्मत्प्रभुरार्यः सिन्धुवादो भवन्तं द्रष्टुमिच्छति। अनुयाहि माम् इति।

स तु नूनं मदविनयाय भर्त्सयितुमेष समाहूतोऽस्मि इति मनसा शङ्कमानो ननु भारोऽयं मदीयो रथ्यास्थो मय्यभ्यन्तरं गते केनाप्य

पह्रियेत इत्यवदत्। सोऽपि विज्ञाततदभिप्रायस्तस्य रक्षां कर्तुम् प्रतिज्ञाय सानुरोधवचनैस्तमन्तः प्रवेष्टुमभिमुखीचकार।

हितवाद ने मन में उसके ऐश्वर्य से अपनी शोचनीय अवस्था की तुलना करते हुए खिन्न मन से ऊपर की ओर देखकर ठंडी साँस ली और निराशा से वह बोल उठा-“विधाता ! तुम्हारी यह कैसी असमानता है जो मैं सुबह से लेकर शाम तक खूब परिश्रम करते हुए इतना भी धन नहीं जुटा सकता जिससे परिवार का पोषण हो और यह सिन्धुवाद जरा भी परिश्रम के बिना आनन्द और वैभव की पराकाष्ठा का उपभोग कर रहा है। इसने कौन सा महापुण्य किया है अथवा अभागे मैंने कौन पाप किया है। इतने में महल के भीतर से आकर एक नौकर बोला-“महाशय ! हमारे स्वामी आर्य सिन्धुवाद आपसे मिलने के लिए इच्छुक हैं। आप मेरा अनुसरण करें। वह मन में यह सन्देह करने लगा “निश्चय ही मुझे अपनी उद्दण्डता के लिए बुलाया गया है। मेरे भीतर चले जाने पर कहीं सड़क पर रखा हुआ यह बोझ कोई उठा न ले सेवक ने उसके इस अभिप्राय को समझते हुए उसकी रक्षा की।  प्रतिज्ञा कर अनुनयपूर्ण वचनों से उसे अन्दर प्रवेश करने के लिये प्रेरित किया।

अथ तेन प्रदर्श्यमानमार्गो महाभवनमेकं समृद्धभोजनोत्सवप्रवृत्तभद्रजनं, मध्ये चावस्थितं गभीरमधुराकारमावक्षःस्थललम्बमानोच्चकूर्चसञ्चयं तद्नेहाधिपतिं सिन्धुवादं, परिवेषणसंरम्भव्यग्रपरःशतभृत्यवर्गञ्च साश्चर्यं विलोक्य सम्भ्रमाक्रान्तः ससाध्वसकम्प सिन्धुवादं प्रणनाम। स तु सप्रणयस्मितं स्वपार्श्व उपवेश्य भोजनाय भृशमनुरुरोध।

अथ विरते भोजनप्रसङ्गे सिन्धुवादो हितवादमुद्दिश्यैवमाबभाषे"भद्र! सेयं परमेश्वरस्य पराऽनुकम्पा यदहमिदमनन्यसुलभं

सम्पत्सुखमनुभवामि। यत् पुनरुक्तवानसि तदेतदक्लेशलेशं

मयाऽधिगतमिति, तदेतदन्याय्यम्। एतस्याः किलोपार्जनेऽशक्यकल्पना संख्यातिगा विपदोऽनुभूता मया, याः स्मर्यमाणा अपि तनुमुत्युल कयन्ति" इति।

अथासौ समुपस्थितमतिथिगणं संबोध्यैवमवादीत् .

"आर्याः! एषोऽहं साम्प्रतं युष्मन्मनोविनोदनाय श्रमापनोदनाय च मदीयाः सप्तमहासिन्धुयात्रा असह्यदुःखसन्तानसम्पाता उपवर्णयिष्यामि,शृण्वन्तु भवन्तः" इत्येवमुक्त्वा स्वां प्रथमां सिन्धुयात्रां वर्णयितुमित्थमुपाक्रमत -

वह सेवक उसका मार्ग प्रदर्शन कर रहा था। उसके सम्मुख एक विशाल प्रासाद था। जहाँ प्रतिष्ठित व्यक्ति शाही भोजनोत्सव में व्यस्त थे। उनके बीच उनके गृहस्वामी सिन्धुवाद बैठे हुए थे। उनकी आकृति गम्भीर और आकर्षक थी। उनकी दाढ़ी छाती तक लटक रही थी। सैकड़ौ नौकर भोजन परोस रहे थे।

यह सब आश्चर्यपूर्वक देखकर घबराहट के मारे उसका अन्तःकरण काँप गया,शीघ्रता में उसने सिन्धुवाद को प्रणाम किया। उसने प्रेमपूर्वक मुस्कुराते हुए अपने पास बैठाकर उसने भोजन के लिये अत्यन्त आग्रह किया।

भोजन समाप्त होन पर सिन्धुवाद ने हितवाद से कहा-महोदय ! यह भगवान् की असीम अनुकम्पा है कि मैं दुर्लभ ऐश्वर्य-सुख का अनुभव कर रहा हूँ। परन्तु तुम्हारा यह कहना न्यायोचित नहीं है कि “मैंने यह सुख बिना परिश्रम के प्राप्त

किया है" इसके अर्जन करने में मैंने उन असंख्य विपदाओं को भोगा है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उसके स्मरणमात्र से शरीर काँप उठता है।"

इसके बाद उसने उपस्थित अतिथियों को सम्बोधित करते हुए कहा“सज्जनों! मैं इस समय आपके सम्मुख आपका मनोरंजन करने के लिये और श्रम दूर करने के लिए अपनी सात समुद्री यात्राओं को सुनाता हूँ। जिसमें मैंने असह्य दुःख-परम्पराओं को भोगा है। उन्हें आप सुनें।" यह कहकर उसने अपनी पहली समुद्री यात्रा का वर्णन इस प्रकार किया--

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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