अनुसूया एवं प्रियंवदा का चरित्र-चित्रण (हिन्दी एवं संस्कृत में)

अनसूया तथा प्रियम्वदा का चरित्रचित्रण

 

अनसूया तथा प्रियम्वदा शकुन्तला की प्रियसखियाँ हैं। उन तीन के रूप तथा अवस्था में विशेष अन्तर नहीं है, इसीलिए राजा जब उन्हें देखता है तो कहता है-समानवयोरूपरमणीयं सौहार्दमत्र भवतीनाम् ।' इन दोनों में अनसूया की अवस्था अधिक प्रतीत होती है, इसी लिए शकुन्तला के अपने पतिगृह जाने पर महर्षि कण्व पहले अनसूया को और बाद में प्रियम्बदा को सम्बोधित करके कहते हैं-'अलं, कदितेन ।'

                 प्रथमाङ्क में राजा जब तपोवन में प्रवेश करते हैं तो पहले अनसूया ही राजा के साथ बातचीत करना प्रारम्भ करती है तथा राजा को राजर्षि विश्वामित्र तथा मेनका की पुत्री रूप से शकुन्तला को बतलाती है। इससे लगता है अनसूया प्रियम्वदा तथा शकुन्तला दोनों से बड़ी है।

                 यद्यपि शकुन्तला -अनसूपा तथा प्रियम्वदा ये तीनों देखने में सुन्दर है किन्तु शकुन्तला सबों से सुन्दर है। किन्तु जिस तरह प्रियम्वदा तथा अनसूया भी कुमारी हैं। अनसूया तथा प्रियम्वदा दोनों शकुन्तला से निस्वार्थ तथा वास्तविक प्रेम करती हैं। ये दोनों सखियाँ शकुन्तला के साथ मिलकर आश्रम के वृक्षों को सेचन करने का काम करती हैं। वे दोनों कण्व पालिता पुत्री शकुन्तला का सब प्रकार से उपकार करना चाहती हैं। यही कारण है कि कामात शकुन्तला के वेदन! व्याकुल होने पर दोनों मिलकर उसे राजा से मिला देती हैं; तथा दुष्यन्त एवं शकुन्तला के मिल जाने पर यहाँ से दूर हट जाती हैं कि वे दोनों अपने इच्छाओं को निःसङ्कोचपूरा कर सकें । गौतमी को आते देखकर दूर से ही वे व्याजान्तर से सूचित कर देती हैं जिससे कि दुष्यन्त तथा शकुन्तला दोनों एक दूसरे से दूर हो जायें ।

                 जब दुष्यन्त के विरह में व्याकुल शकुन्तला द्वार पर आए अतिथि महर्षि दुर्वासा का आना नहीं जान पाती है तो, महर्षि दुर्वासा उसे शाप देकर लौट जाते हैं। उस समय ये दोनों सखियाँ महर्षि दुर्वासा को मनाने का प्रयास करती हैं और प्रियम्वदा की प्रार्थना से प्रसन्न होकर महर्षि यह वरदान देते हैं कि आभरण को देख लेने पर शापका प्रभाव समाप्त हो जायेगा।

                 शकुन्तला के पतिगृह चले जाने पर दोनों अनुभव करती हैं कि शकुन्तला के अभाव में तपोवन सूना हो गया है । ये दोनों सखियाँ बातचीत करने में चतुर तथा बुद्धिमान है। दोनों के व्यवहार तथा व्याहार भद्र तथा आकर्षक हैं ।

उपर्युक्त प्रकार को अनसूया तथा प्रियम्बदा दोनों में साम्य होने पर भी दोनों में अन्तर यह है कि अनसूया गम्भीर स्वभाव वाली है। अत एव वह उपहासादि में सहभागिता का निर्वाह नहीं करती है। किन्तु प्रियम्बदा मुखर प्रकृति की है। वह बातों ही बातों में शकुन्तला का मनोज्ञ उपहास भी करती है। किन्तु उसके उपहास के कारण शकुन्तला मन ही मन प्रसन्न ही होती है। वह प्रियाम्वदा से कहती है-'अतएव प्रियम्वदेति भण्यसे ।' अनसूया के माध्यम से राजा अब बह जान लेते है कि पन्तका मेनका में उत्पन्न राजर्षि विश्वामित्र की पुत्री है तो राजा कुछ सोचने लगते हैं। इस समय की बात को आगे बढाती हुई प्रियम्वा माहती है-'पुनरपि वक्तु काप इव आर्यो लक्ष्यते ।'

                 प्रियम्बदा की बातों से कुछ रुष्ट होने का स्वांग बनाकर शकुन्तला वहाँ से अन्यत्र जाने की बात करती है तो प्रियन्वदा कहती है-'हला चण्डि । नार्हसि गन्तुम् ' मे वृक्षसेचनक धारयसि, ताभ्यां तावदात्मानं मोचय ततो गमिष्यसि ।'

                 यद्ययि यह प्रियम्वदा का शकुन्तलाको वहाँ रोक रखने का बहाना मात्र है। सब कुछ होने के पश्चात् अनुसूया और प्रियम्बदा दोनों तापस कन्याएँ तथा शकुन्तका की प्रिय सखियाँ हैं। वे दोनों शकुन्तला के सुख में सुखी तथा टुख में दुखी होती हैं । उन दोनों का शकुन्त का से प्रगाढ स्नेह है।

 

अनुसूया प्रियम्वदयोश्चरित्र चित्रणम्

अनसूया प्रियम्बदे शकुन्तलायाः प्रियवयस्ये स्तः । असूयायाः अभावादेव अनसूयेत्यभिधीयते प्रथमा द्वितीबायास्तु प्रियभाषणमेव स्वभावः । शकुन्तलानसूयाप्रियम्वदानाम् रूपावड्थे समाने इव प्रतीयते सहसा विलोकनाद । अतएवैकान्ते वृक्षसे चनं कुर्वन्ती इमा: बिलोक्य राजा वक्ति–'समानक्योरूपरमणीयं सोहार्दमत्र

भवतीनाम् ।

                 यद्यपि प्रियम्बदाऽवसूयमो सभावावस्थे प्रतीयते किन्तु नूलमनसूया प्रियम्बदापेक्षयानिकावस्थावती। एतस्मादेव राजनि समागते अनसूयैव सर्वप्रथम राज्ञा सह बार्त यति राजानं बार्तालापप्रसङ्गन बोधधि पत् पन्तलेयम् वस्तुत: मेनकायां संजाता राजः विश्वामित्रश्य पुषी वर्तते, कण्वस्तु मैरकाया परित्यक्तायाः तस्या शरीरसंवद्धनादिभिः पिता। तृतीयाङ्कऽपि यदा राजा शकुन्तलायाः समक्षमायाति

खदा अबसूर्यन अकुन्तलाया: भाविकल्याणकामनया राज्ञा सह-वार्तयन्ती वक्ति-इत: शिळातले कदेवयनुगृहातु महाभागः ।' बहवल्लभाः खलु राजानः श्रूयन्ते । जद् यथा इयं नः प्रियसखी बन्धुजन शोचनीया न भवति, तथा करिष्यति ।' इत्यादिकम् ।

यद्यपि प्रियम्बदानसूये उभे अपि मनोज्ञेस्तः किन्तु शकुन्तला तासु तिसृषु मनोज्ञाऽसीदिति विश्वप्रचम् : शकुन्तलाप्रियम्वदानसूया: तिनः एव कुमार्य सन्ति। प्रियम्वदानसूये उभे अपि शकुन्तल्या निस्वार्थ स्नेहं कुर्वन्ति । तयोः स्नेहे क्वापि कृत्रिमता नास्ति । इमे द्वे अपि सख्यौ शकुन्तलया साकं वृक्षाणां सेचनं कुर्वन्ति । शकुन्तला कण्वेन कुलपतिना पालिता पुत्र्यासीत् । अतएव इमे उभे तस्याः सर्वप्रकारेण उपकारम् कर्तुमिच्छतः । एतस्मादेव हेतोः राज्ञो दुष्यन्तस्य विलोकन येन शकुन्तला दुष्यन्तयोः संयोगो जायेत । तयोः मिलिते सति प्रियम्वदानसूये कालादेव कामार्ताम् कामवेदनाव्यग्राम् शकुन्तलाम् ज्ञात्वा ते तथाविधमुपायं कुरुतः तस्माल्लतामण्डपात् मृगपोतकसंरक्षणव्याजेन निस्सरत: येन तो ससुखं स्वेच्छ पूरयितुम् क्षमो स्याताम् ।

अनेनैव प्रकारेण यदा दुष्यन्तः शकुन्तलाम् विहाय स्वराजधानीं गच्छति तदा शकुन्तला तम् स्मरन्ती शून्यहृदया जायते। फलत: आतिथ्यग्रहणाय द्वारि समागतमपि महर्षि दुर्वाससं नहि जानाति । तस्यारतामनवधानताम् स्वकीयमनादरं मत्वा तां शप्त्वा च गच्छति दुर्वासास, अपि तं संप्रार्थं प्रसन्नं कुरुतः, येन महर्षिः 'आभरणदर्शनेन पुनः शापो निवृत्तो भविष्यतीति वरदानेनानुगृह्णाति ।

शकुन्तलायां स्वपतिगृहं गतायाम् पित्रा कण्वेन साकं स्वाश्रममागच्छन्त्यौ सख्यो कथयतः- 'शकुन्त लादिरहितम् शून्यमिव तशेवनं विशामः इति ।

अनेन प्रकारेण तयोरुभयोरनेकाकारके साम्ये विद्यमाने अपि तयोः किमपि वैषम्यपि वर्तते । अवस्थायाम् अनसूया ज्येष्ठा प्रियम्वदा तु तस्या अपेक्षयाल्पवयस्कास्ति । स्वभावेनानसूय! गम्भीरस्वभावा वर्तते, अतएव तस्याः दचांसि सात्विकानि, परिहासादिरहितानि च भवन्ति ।

यथा वृक्षाणां सेचन विषये सा शकुन्तलाम् वक्ति-हला शकुन्तले ! इयं स्वयम्वर वधूः सहकारस्य त्वया कृतनामधेया वनतोषिणीति नवमालिका; एनां विस्मृतासि ?' इति । किन्तु प्रियम्वदा मधुरभाषिणी परिहासप्रिया च वर्तते । तस्या:--'त्वया समीपस्थितषा लतासनाथ इव अयं चूत वृक्षः प्रतिभाति ।' इति वचो निशम्य प्रसन्ना शकुन्तला वक्ति-'अतएव त्वं प्रियम्वदेति भण्यसे । इति । अनेनैव प्रकारेण प्रियम्बदा परिहास प्रिया च सा शकुन्तला परिहसन्ती अनसूया वक्ति-- 'यथा बनतोषिणी अनुरूपेण पादपेन सङ्गता, तथा अहम पि अनुरूपं वरं लभेय इति।' एकदा तु राज्ञा सह तस्या विषये बहुवादिन्या: प्रियावदाया परिहासेनोद्विग्ना इव शकुन्तला अनसूयां वक्ति--'इमाम सम्बद्धप्र लापिनी प्रियम्वदाम् आर्याय गौतम्य निवेदयामि ।

यदा प्रियम्वदायाः वार्ताभिः रुष्टा व शकुन्तला अन्यत्र यियासति तदा प्रियम्वदा वक्ति–'हला ! चण्डि ? नार्हसि गन्तुम् ।' इति द्वे मे वृक्षसेचनके धारयसि, ताभ्यां तावदात्मानं मोचय, ततो गमिष्यसि ।' इति च ।

संक्षेपतः प्रियम्बदाऽनसूये तापसकन्यकेस्तः, किञ्च ते शकुन्तलायाः प्रियवयस्ये स्तः। ते उभे शकुन्तलायाः सुखेन सुखमनुभवतः, दुःखेन च दुःखमनुभवतः । तयोरुभयोः शकुन्तलायाम् प्रगाढः स्नेहो वर्तते ।


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1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

21417170
Santosh pandey

शास्त्री I & II सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

आचार्य प्रथम एवं द्वितीय सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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