विदूषक का चरित्र-चित्रण (हिन्दी एवं संस्कृत में)

विदूषक का चरित्र-चित्रण

अभिज्ञान शाकुन्तल के विदूषक का नाम माधव्य है। यह राजा का मित्र भी . राजा इससे हर प्रकार की बातें करता है। शकुन्तला का प्रसङ्ग उठने पर राजा विदूषक से कहते हैं-'ससे माधव्य ! अनाप्तचक्षुःफलोऽसि ।'

यह ब्राह्मग जाति का तथा उम्र में राजा से छोटा है, इसीलिए वह अपने को राजा का अनुज तथा युवराज भी कहता है। इसके हाथ में विद्यमान डंडा भी टेढ़ा-मेढ़ा है। इसकी सारी बातें हास्य-प्रमोद भरी होती है, अतएव राजा उसको अपने मनोविनोद के लिए सर्वदा अपने साथ रखते, किन्तु भीरु स्वभाव का यह विदूषक आखेट आदि के समय राजा के साथ नहीं रहना चाहता है। उसको सर्वाधिक प्रियकर्म मिष्ठान्न भोजन है। अतएव वह अन्य बातों के प्रसङ्ग में भी बार-बार भोजन का प्रसङ्ग ला देता है ।

                 यह राजा से इतना घुला-मिला हुआ है कि इसको न तो अपनी बातें राजा से कहने में कोई संकोच होता है और न तो राजा को अपने मन की बातों को इससे कहने में कोई संकोच है। शकुन्तला के प्रति होने वाले स्नेह को राजा दुष्यन्त केवल विदूषक को ही बतलाते हैं, इसके अतिरिक्त वे अपने किसी भी दूसरे बान्धव को शकुन्तला का प्रसङ्ग नहीं बतलाते हैं ।

                 भीरु स्वभाव का विदूषक मृगया आदि कर्मों को बहुत नापसन्द करता है । वह राजा का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए विभिन्न प्रकार का स्वाङ्ग भी रचता है। जैसे द्वितीय अङ्क में शकुन्तलासक्त हृदय वाले राजा को आते देखकर वह कहता है-'भवतु, अङ्गभङ्गविकलो भूत्वा स्थास्यामि एवमपि नाम विश्रामं लभेय । और वह दण्डकाष्ठ का सहारा लेकर खड़ा हो जाता है ।

                  मृगया की निन्दा करते हुए वह कहता है तुम राज्य के सारे कार्यों को त्याग कर इस समय तो वनेचर वृत्ति वाले हो गए हो। मैं ब्राह्मण स्वभाव वाला हूँ, प्रतिदिन पशुओं के पीछे दौड़ते-दौड़ते मेरे अङ्गों के जोड़ शिथिल हो गए हैं, अतएव चल नहीं पा रहा हूँ । एक दिन तो विश्राम कर लीजिए। और राजा उसकी बातों को मानकर कहते हैं – 'अनतिक्रमणीयम् सुहृद्वाक्यमिति स्थितोऽस्मि ।'

                 राजा का अत्यन्त सन्निकटवर्ती होने के कारण विदूषक सेनापति को भी डॉट लेता है। मृगयोत्साहक सेनापति को वह कहता है-'अपेहि रे उत्साहहेतुक ! अत्र भवान् प्रकृतिमापन्नः त्वं तावद् दास्याः पुत्रः अटवीत: अटवीमाहिण्डमानः यावत् शृगालमृगलोलपस्य कस्यापि जीर्णऋक्षस्य मुखे निपतितो भवः ।।

                 विदूषक राजा के द्वारा शकुन्तला के विषय में चलायी गयी चर्चा को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता है। वह कहता है-'भोः यदि सा तपस्विकन्या अनभ्यर्थनीया, तत् किं तया दृष्टया ?'

                 राजा के द्वारा शकुन्तला के अनिन्ध सौन्दर्य का वर्णन किए जाने पर भी वह राजा का मजाक उड़ाते हुए कहता है-'भोः यथा पिण्डीखर्जुरैः उद्वेजितस्य तिन्तिड्यां श्रद्धा भवति, तथा अन्तःपुरस्त्रीरत्नपरिभोगिनो भवत इयं प्रार्थना, किन्तु जब वह जान लेता है कि राजा भी शकुन्तला का हृदय से चाहते हैं तो वह भी उनके विचारों से सहमत हो जाता है ।

         अभिज्ञान शाकुन्तल में विदूषक के दो बार दर्शन होते हैं। पहली बार तो वह द्वितीय अङ्क में सहृदयों के समक्ष आता है और दूसरी बार वह षष्ठाङ्क में राजा के मनोरञ्जनार्थ उपस्थित होता है। षष्ठाङ्क में विदूषक राजा के चित्रकर्म में सहायक होकर उनका मनोरञ्जन करता है। मातलि राजा को उत्तेजित करने के उद्देश्य से जब माधव्य को अदृश्य होकर पीड़ित करते हैं तो विदूषक के चिल्लाने की आवाज सुनकर राजा स्वयं धनुष-वाण लेकर दौड़ पड़ते हैं और माधण्य को बचाने के लिए अदृश्य सत्व का विनाश करने वाले अस्त्र को धनुष पर चढ़ाते हैं । इस घटना से प्रतीत होता है कि विदूपक राजा का अत्यन्त प्रिय ब्राह्मणबटु, नर्मसखा तथा नाटक का हास्यपात्र है ।

 

विदूकस्य चरित्र चित्रणम्

 

अभिज्ञानशाकुन्तलस्य विदूषकस्य नाम माव्यो वर्तते । एष माधव्यो राज्ञो दुष्यन्तस्यान्तरङ्गम् मित्रमास्ते । राजा अनेन सह सर्वप्रकारकान् मनोगतानभिप्रायान् वार्तयति । सः शकुन्तलायाः विषये विदूषकेण सह वार्तयन् वक्ति-- 'सखे माधव्य ! अनाप्तचक्षुफलोऽसि ।'

                 माधव्यो जात्या ब्राह्मणोऽस्ति । अयम् राज्ञः अपेक्षयाल्पवयस्कोऽस्ति अतएव सः स्वं राज्ञः अनुजम् युवराजम् च कथयति । अस्य हस्ते विद्यमानम् दण्डमपि वक्रमास्ते। अस्य सर्वाः वार्ताः हास्यप्रमोदपरिपूर्णाः सन्ति । अतएव राजा सर्वदा स्वमनोरञ्जनार्थम् माधव्यम् स्वेनैव साकम् सञ्चारयति । मृगयीय वने निवासकालेऽपि विदूषकः राज्ञा सह वर्तते इति अभिज्ञानशाकुन्तलरय द्वितीयाङ्कस्याध्ययनेन

ज्ञायते । किन्तु विदूषकः राज्ञः मृगयाव्यापारेण: प्रसन्नो नास्ति । सः स्वभावेनैव भीमः, आमोद-प्रमोदप्रियः, भोजनभट्टः, मिष्ठान्न भोजन पारायणश्च वर्तते। अतएव सः सर्वदा वार्तालापानां प्रसङ्ग भोजनविषयिणीम् वाती करोति ।

                 राज अत्यन्त सन्निकटवर्तित्वात्, विदूषकः राज्ञः समक्षम् सर्वान् विषयानुपस्थासमक्ष प्रकाशने संकोचम् नहि करोति । अतएवानयोः प्रगाढामैत्री दर्तते। पयति निःसङ्कोचम् । अनेनैव प्रकारेण राजापि सर्वेषां मनोगतानाम् भावानामस्य एतस्मादेव हेतोः राजा दुष्यन्तः विदूषक विहायान्यान् बान्धवान् शकुन्तलाविषयिणी वार्ता नहि कथयति, किन्तु विदूषकस्य समक्षम् तुः सः सविस्तारं शकुन्तलानिवेदयति ।

प्रसङ्गम् भीरुस्वभावत्वाद् विदूषकः राज्ञो मृगयादिकं कर्म नहि समादरति । राज्ञो ध्यानमाकर्षयितुम् सः स्वाङ्गरचनामपि करोति । यथा द्वितीयाङ्क शकुन्तलासक्त हृदयमागच्छन्तं राजानं विलोक्य, विदूषको वक्ति-भवतु, अङ्गभङ्गविकलो भूत्वा,स्थास्यामि, एवमपि नाम विश्राम लभेय।' इति उक्त्वा सः दण्डकाष्ठमवलम्ब्य

तिष्ठत्यपि।

         मृगयाव्यापारस्य निन्दा कुर्वता विदूषकेणाभिधीयते---‘युक्त नाम एवम्, यत् त्वया राजकार्याणि उज्झित्वा तादृशम् आत्खलितपदं प्रदेशञ्च वनचरवृत्तिना भवित व्यमिति । किमत्रमन्न्यताम्, अहं पुनर्ब्राह्मणः प्रत्यहं श्वापदानुसरणः संक्षोभितसन्धिबन्धनानामङ्गानामनीशोऽस्मि । तत् प्रसोद मे, एकाहमपि तावद्विश्रम्यताम् । विदूषकस्य वचो निशम्य राजा वक्ति --- 'अनतिक्रमणीयम् सुदृद्वाक्य मिति स्थितोऽस्मि ।'

         राज्ञः अत्यन्त सन्निकटवर्तित्वाद्विदूषक: समयानुसारेण सेनापतिमपि स्वमनोविपरीतमाचरन्तं भर्सयित । म: मृगयोत्साहक सेनापतिम्प्रति यथाह-'अपेहि रे उत्साहहे तुक ! अत्र भवान् कृतिमापनः, (वं तावद् दास्याः पुत्रः, अटवीत अटवीमाहिण्डमानः यावत् शृगालमृगलोलुपस्य कस्यापि जीर्ण ऋक्षस्य मुखे निपतितो भव ।' इति।

                 शकुन्तलाया विषये राज्ञा उत्थापितमपि प्रसङ्गम् विदूषकः शमयितुमिच्छति । स वक्तिराजानम्-भोः ! यदि सा तपस्विकन्या, अनभ्यर्थनीया किं तया दृष्टया ।' इति ।

                 राजा शकुन्तलाया अनिन्द्ये सौन्दर्ये वणितेऽपि सः तमुपहसन् वक्ति--- भोः ! यथा विण्डीखर्जूरैः उद्वे जितस्य तिन्तिड्यां श्रद्धा भवति, तथा अन्तः पुरस्त्रीरत्नपरिभोगिनो भवत इयं प्रार्थना ।' इति । किन्तु यदा स: जानाति य द्राजा दुष्यन्तो हृदयेन शकुन्तलां कामयते, तदा सः तस्य विचाराणां समर्थनं करोति ।

                 सम्पूर्णे शकुन्तले विदूषकस्य बारद्वयम् सहृदया: साक्षात्कारं कुर्वन्ति । प्रथम तु सः द्वितीयाङ्क आयाति, षष्ठाङ्क स: द्वितीयं बारं आयाति जनानांसमक्षम् । तत्र सः राज्ञः चित्रकर्मणि साहाय्यं करोति । यदा मातलि. राजानमुत्तेजयितुम् अदृश्यो भूत्वा माधव्यं पीडयति तदा तस्यार्तनादं श्रुत्वा तं रक्षितुम् राजा धनुषितदस्त्रमारोपयति येनादृश्यस्यापि सत्वस्य विनाशो भवति । एतेन राज्ञो विदूषकेण साकम प्रगाढामैत्री प्रतीयते ।

संक्षेपतो विदूषको राज्ञः . प्रियः ब्राह्मणवटुः, नर्म सखा, नाटकस्यास्य हास्यपात्रञ्च विद्यते।


Share:

कोई टिप्पणी नहीं:

शास्त्री I & II सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

आचार्य प्रथम एवं द्वितीय सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

आचार्य तृतीय एवं चतुर्थ सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

पूर्वमध्यमा प्रथम (9)- पाठ्यपुस्तक

पूर्वमध्यमा द्वितीय (10) पाठ्यपुस्तक

समर्थक और मित्र- आप भी बने

संस्कृत विद्यालय संवर्धन सहयोग

संस्कृत विद्यालय संवर्धन सहयोग
संस्कृत विद्यालय एवं गरीब विद्यार्थियों के लिए संकल्पित,

हमारे बारे में

मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
इन्स्टाग्राम- cdtripathiatul

यह लेखक के आधीन है, सर्वाधिकार सुरक्षित. Blogger द्वारा संचालित.