कण्व का चरित्र-चित्रण — व्यक्तित्व, गुण, स्वभाव
कण्व कालिदास के नाटक ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ में एक प्रमुख ऋषि-चरित्र हैं जिनका आश्रम शकुन्तला के पालन-पोषण का केन्द्र है। कण्व का रूप आदर्श गुरु, पालक और धर्मशील पुरोहित का है।
उनका स्वभाव संयमी, दयालु और धर्मनिष्ठ है। कण्व आश्रम के नियमों और शिष्टाचारों के पालन के प्रति सख्त होते हुए भी बहुत सहृदय और मानवीय हैं, जो आश्रम के जीवन को अनुशासित तथा प्रेमपूर्ण बनाते हैं।
कण्व का चरित्र-चित्रण (हिन्दी में)
1. कुलपति कण्व -
महर्षि कण्व अभिज्ञान शाकुन्तल के तपस्वी पात्रों में अन्यतम हैं। ये तपस्वियों के गुरु तथा आश्रम के कुलपति हैं। जैसा कि वैखानस ने कहा भी है — ‘एष चास्माद्गुरोः कण्वस्य कुलपतेः साधिदैवत एव शकुन्तलयानुमालिनीतीरमाश्रमो दृश्यते।’ कुलपति के लक्षण में कहा गया है कि — दस हजार मुनियों का अन्नपानादि व्यवस्था के साथ पोषण करते हुए अध्यापन करने वाले ब्रह्मर्षि को कुलपति कहा जाता है।
‘मुनीना दशसहस्रं योन्नपानादिपोषणात् ।
अध्यापयति विप्रर्षिः स वै कुलपतिः स्मृतः ।।’
महर्षि कण्व एक नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। राजा दुष्यन्त ने कहा भी है — ‘तत्र भवान् कण्वः शाश्वते ब्रह्मणि सा ते।’ महर्षि कण्व अपनी अग्निशाला में प्रवेश करके सभी अज्ञात बातों को जान लेते हैं। प्रवास से लौटकर वे जब अपनी अग्निशाला में प्रवेश करते हैं तो छन्दोमयी अशरीरिणी वाणी उन्हें बतला देती है —
‘दुष्यन्तेनाहितं तेजो दधानां भूतयो भुवः ।
अवेहि तनयां ब्रह्मन् अग्निगर्भा शमीमिव ।’
2. पुत्रीवत्सल कण्व -
महर्षि कण्व शकुन्तला के पोषक पिता हैं। अनसूया ने दुष्यन्त को बतलाया — ‘उज्झितायाः शरीरसंवर्द्धनादिभिः पुनस्तात कण्वोऽपि पिता।’ फिर भी शकुन्तला के प्रति उनका इतना स्नेह है कि वे उसके प्रतिकूल देव को शान्त करने के लिए कुछ दिनों के लिए सोमतीर्थ चले जाते हैं। जब वे शकुन्तला को उसके पतिगृह प्रेषित करते हैं तो उनका गला रुँध जाता है, आँखों में आँसू भर जाने से वे कुछ भी देख नहीं पाते हैं। वे अपने हृदय की भावना को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं —
यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया,
कण्ठः स्तम्भितवाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडं दर्शनम् ।
वैक्लव्यं मम तावदीदृशमपि स्नेहादरण्यौकसः,
पीड्यन्ते गृहिणः कथं न तनयाविश्लेषदुःखैर्नवैः ।।
पालिता भी पुत्री शकुन्तला के प्रति महर्षि कण्व का अपनी और सपुत्री के समान स्नेह है।
3. महातपस्वी कण्व
महर्षि कण्व का तपोबल असामान्य है। राजा दुष्यन्त यह जानकर कि शकुन्तला कण्व के संरक्षण में पली हुई उनकी पालिता पुत्री है, अतएव उसके साथ किया हुआ कोई भी अशिष्ट व्यवहार महर्षि के भयंकर क्रोध का कारण बन सकता है। दुष्यन्त के शब्दों में —
‘जाने तपसो वीर्यम् सा बाला परवतीति मे विदितम्।
न च निम्नादिव सलिलं निवर्तते मे ततो हृदयम्।’
महर्षि कण्व की तपस्या का ही प्रभाव है कि सोमतीर्थ से लौटकर अपनी अग्निशाला में प्रवेश करने पर उन्हें अशरीरिणी छन्दोमयी वाणी दुष्यन्त तथा शकुन्तला के भावी लोक मङ्गलकारी प्रणय की कहानी बतला देती है। महर्षि कश्यप भी जानते हैं कि महर्षि कण्व अपनी तपस्या के प्रभाव से भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान काल की सारी घटनाओं को जानने में समर्थ हैं। भगवान् कश्यप कहते हैं —
‘तपः प्रभावात् सर्वमिदं प्रत्यक्षं तत्र भवतः कण्वस्य।’
4. लोकोपदेष्टा महर्षि कण्व
अभिज्ञान शाकुन्तल में महर्षि कण्व का चरित्र अत्यन्त उदात्त है। तपस्वी होकर भी वे लौकिक व्यवहार के वेत्ता हैं। वे स्वयं कहते हैं —
‘वनौकसोऽपि लौकिकज्ञा एव।’
वे पतिगृह को जाती हुई शकुन्तला को कर्तव्योपदेश देते हुए कहते हैं —
शुश्रुषस्व गुरुन् कुरु प्रियजनवृत्ति सपत्नीजने,
भतृ विप्रकृताऽपि रोषणतया मास्मप्रतीपं गमः।
भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भोगेष्वनुत्सेकिनी,
यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः।।
किसी भी भारतीय वधू के लिए परिवार में सुख एवं शान्ति कायम रखने के लिए इससे बढ़कर कोई उपदेश नहीं हो सकता है। शकुन्तला द्वारा पूछे जाने पर कि मैं पुनः तपोवन में आकर आपका दर्शन कब करूँगी? महर्षि कण्व कहते हैं — महर्षि कण्व के अनुसार पति का घर ही उसका अपना घर होता है, उसका कर्तव्य होता है कि वह अपने पतिगृह को अधिकाधिक रूप से समलङ्कृत करे। वे शकुन्तला से कहते हैं-
‘भूत्वा चिराय सदिगन्तमहीशपत्नी,
दोष्यन्तिमप्रतिरथं तनयं प्रसूय।
तत्सग्निवेशितधुरेण सहैव भर्त्रा,
शान्त्य करिष्यसि पदं पुनराश्रमेऽस्मिन्।’
शार्ङ्गरव तथा शारद्वत नामक अपने दो शिष्यों के द्वारा दुष्यन्त के लिए जिस संदेश को महर्षि कण्व ने दिया है, वह समस्त भारतीय जामातृवर्ग के लिए कल्याणकारी है। कन्या के बान्धवों को अपने जामाता सेै किस हद तक आशा करनी चाहिए इसकी सीमा का निर्धारण सा महर्षि कण्व ने कर दिया है। वे कहते हैं -
अस्मान् साधु विचिन्त्य संयमधानानुच्चैः कुलञ्चात्मनः,
त्वय्यस्याः कथमप्यबान्धवकृतां स्नेहप्रवृतिञ्च ताम्।
सामान्यंप्रतिपत्तिपूर्वकमियं दारेषु दृष्या त्वया,
भाग्याधीनमतः परं न खलु तत्स्त्री बान्धवैः याच्यते।।
इस तरह महर्षि कण्व एक सच्चे समाज सुधारक तथा समाजोपदेष्टा प्रतीत होते हैं।
5. मानव स्वभाव के वेत्ता कण्व
मानव स्वभाव के वेत्ता कण्व — महर्षि कण्व मानव स्वभाव की न्यूनता को अच्छी तरह जानते हैं। वे जानते हैं कि काल एक ऐसी औषधि है कि जिसके अन्तराल में सब कुछ विस्मृत हो जाता है। जब पतिगृह को जाती हुई शकुन्तला अपने पिता कण्व से कहती हैं कि वह किस प्रकार से तपोवन के विप्रयोगजन्यविरह व्यथा को भूल पायेगी? तो महर्षि कण्व कहते हैं —
‘अभिजनवतो भर्तुः श्लाघ्ये स्थिता गृहिणीपदे,
विभवगुरुभिः कृत्यैः अस्य प्रतिक्षणमाकुला।
तनयमचिरात् प्राचीवार्क प्रसूय च पावनम्,
ममविरहजा न त्वं वत्से! शुचं गणयिष्यसि।’
शकुन्तला के चले जाने पर पिता कण्व के साथ लौटती हुई प्रियम्बदा तथा अनसूया यह कहती हैं कि — ‘तात! शकुन्तलाविरहितं शून्यमिव तपोवनं प्रविशामः।’ तो महर्षि कण्व कहते हैं कि तुमलोगों को शकुन्तला के प्रति प्रेमातिरेक के कारण ऐसा प्रतीत होता है। शकुन्तला को पतिगृह प्रेषित करके मैं उससे स्वस्थ सा हो गया हूँ। वे कहते हैं कि कन्या तो एक परकीय न्यास होती है। उसको एक न एक दिन प्रतिगृह में प्रेषित करना आवश्यक होता है। वे कहते हैं —
‘अर्थो हि कन्या परकीय एव तामद्य सम्प्रेष्य परिग्रहीतुः।
जातोऽस्मि सद्यो विशदान्तरात्मा चिरस्य निःक्षेपमिवार्पयित्वा।’
इस तरह महर्षि कण्व भारतीय संस्कृति के एक सजग प्रहरी हैं, उनका अभिज्ञानशाकुन्तल में लोकोपदेष्टा रूप पूर्णरूप से अवदात है।
कण्व का चरित्र-चित्रण (संस्कृत में)
1. कुलपतिः कण्वः - अभिज्ञानशाकुन्तलस्य तपस्विपात्रेषु महर्षिः कण्व अन्यतमो वर्तते। स: तपोवनस्य तपस्विनाम् गुरुः कण्वाश्रमस्य च कुलपतिरास्ते। तथा चाह वैखानसो राजानं दुष्यन्तम् — ‘एष चास्मद् गुरोः कण्वस्य कुलपतेः साधिदैवत एव शकुन्तलयानुमालिनीतीरमाश्रमो दुश्यते।’ योहि महर्षिः दश सहह्रसंख्याकान् मुनीन् स्वाश्रमेऽन्नपानादिना पालयन्नध्यापयति सः कुलपतिरित्यभिधीयते। तथाहि —
‘मुनीनां दश साहस्रयोऽन्नपानादिपोषणात् ।
अध्यापयति विधषिः सर्व कुलपतिःस्मृतः।’ इति
2. नैष्ठिको ब्रह्मचारी कण्वः — महर्षि कण्व: नैष्ठिको ब्रह्मचार्यासीत्। तथा चोक्तम् राज्ञा दुष्यन्तेन — ‘तत्र भवान् कण्वः शाश्वते ब्रह्मणि वर्तते।’ महर्षिः कण्वः यदा स्वाग्निशालायां प्रविशति तदा स्वब्रह्मचर्यबलेन तपोबलेन च दुष्यन्त शकुन्तलयोः पावनं प्रणयम् जानाति। अग्निशरणं प्रविष्टम् तम् अशरीणी छन्दोमयी वाक् स्वयमेवाह —
‘दुष्यन्तेनाहितं तेजो दधानां भूतये भुवः ।
अवेहि तनयां ब्रह्मन्नग्निगर्भा शमीमिव ॥’ इति
3. पुत्रीवत्सलः कण्वः — यद्यपि शकुन्तला महर्षेः कण्वस्य पोषिता पुत्र्यासीत् तथापि महर्षिः कण्व, तस्याः पालनमौरसपुत्रीमिवाकार्षीत्। तथा चाहानसूया राजानं दुष्यन्तम् — ‘उज्झितायाः शरीर संवर्द्धनादिभिः पुजस्ता तकण्वोजपि पिता।’ महर्षिः ताम् तथाविधं स्निह्यति येन सः तस्याः दुदैवं शमयितुम् सोमतीर्थ याति। तथा चाहानसूया शकुन्तलायाः पतिगृहप्रेषणकाले महर्षेः कन्वस्य दशा अतीव कारुण्यमयी भवति। स स्वकीयां मनोदशां तादात्विकी वर्णयन् स्वयमेवाह —
‘यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया ।
कण्ठः स्तम्भितवाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडं दर्शनम् ॥
वैक्लव्यम् मम तावदोदृशमिदं स्नेहादरण्यौकसः ।
पीड्यन्ते गृहिणः कथं न तनयाविश्लेषदुःखै वैः ॥’
4. महातपस्वी कण्वः — महर्षेः कण्वस्य तपोबलमसामान्य वर्त्तते। दुष्यन्तो जानाति यत् शकुन्तला कण्वस्य पोषिता पुत्री वर्तते, अत एव तया साकं कृतमल्पमपि अशिष्टाचरणं महते क्रोधाय महर्षेः कण्वस्य भवितुमर्हति। अत एव तस्याम् सर्वदा आसक्तमना अपि तया साकम् प्रणयव्यापारकरणे बिभेति। तथाहि —
‘जाने तपसो वीर्यम् सा बाला परवतीति मे विदितम् ।
नच निम्नादिव सलिलम् निवर्त्तते मे ततो हृदयम् ॥’ इति
महर्षेः कण्वस्य तपश्चर्याया एवं प्रभावो वर्तते यत् सः सोमतीर्थादागत्य यदा स्वाग्निशालायां प्रविशति तदा दुष्यन्त शकुन्तलयोः सम्पूर्णाम् प्रणय कथाम् अशरीरिण्या छन्दो मय्या वाण्या श्रुत्वा जानाति। महर्षिः कश्यपोऽपि जानाति यत् काश्यपः कण्वः स्वकीयेन तपोबलेनैव सर्वभूतं भविष्यन्तं च जानाति। तथा चोक्तं कश्यपेन स्वशिष्यं गालवम् प्रति अभिज्ञानशाकुन्तलस्य सप्तमाङ्क — ‘तप: प्रभावात् सर्वमिदं प्रत्यक्ष तत्रभवतः कण्वस्य ।’इति
5. लोकोपदेष्टा महषिः कण्वः- — महर्षिः कण्व, सम्पूर्णस्य लोकस्योपदेष्टा वर्तते। तथा चोक्तम् महर्षिणा स्वयमेव । ‘वनौकसोऽपि लौकिकज्ञा वयम्।’ इति। सः पतिगृहं गच्छन्याः शकुन्तलायाः कर्तव्योपदेशम् कुर्वन् प्राह ——
‘शुभ्रूषस्व गुरून् कप्रियजनति सपत्नीजने ।
भर्तुविकृत कि रोषण तया मास्म प्रतीपं गमः।
भूमष्ठं भवक्षिणः परिजन भोगेष्वनुकिनी
अन्त्येवं गृहेगीपदं युवतयो वामा कुलस्याधयः ।
अत एव महर्षिः कण्वः भारतीयाया संरक्षको वर्तते । तेन कृता उपदेशा अतीव मूल्यवन्तो वर्त्तते । तेषामाचरणं महते कल्याणाय भवितुमर्हति । सारांशतः अभिज्ञानशाकुन्तलेऽस्मिन् महर्षेः कण्वस्थ चरित्रम् भारतीय नेतृवर्गायादझे भवितुमर्हति ।
नाटक में कण्व की भूमिका
कण्व आश्रम-परिवेश का आधार हैं; उनका चरित्र नाटक में स्थिरता, नैतिकता और पारिवारिक-आधार प्रदान करता है। वे शकुन्तला के संरक्षक एवं मार्गदर्शक के रूप में नाटक के भावनात्मक संतुलन को बनाए रखते हैं।
उनका मार्गदर्शन और आश्रम का अनुशासन दुष्यन्त और शकुन्तला के संबंधों के नैतिक आयामों को स्पष्ट करता है तथा कथा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
कण्व चरित्र का साहित्यिक महत्व
कण्व का चरित्र भारतीय नाट्य-साहित्य में गुरु-आदर्श और पारिवारिक-आधार के रूप में महत्वपूर्ण है। कालिदास ने कण्व के माध्यम से आश्रम जीवन की पवित्रता, शील और नैतिक प्रशिक्षण का आदर्श प्रस्तुत किया है।
साहित्यिक दृष्टि से कण्व जैसे पात्र नाटक को नैतिक और गुणात्मक आयाम देते हैं — वे न केवल कथानक का समर्थन करते हैं, बल्कि पात्रों के मनोवैज्ञानिक और नैतिक विकास के प्रेरक भी होते हैं।
