पाठ 06. लाल पान की बेगम -फणीश्वरनाथ रेणु

 लाल पान की बेगम -फणीश्वरनाथ रेणु


'क्यों बिरजू की माँनाच देखने नहीं जाएगी क्या?'

बिरजू की माँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आँगन में लोट-पोट कर सारी देह में मिट्टी मल रहा था। चंपिया के सिर भी चुड़ैल मँडरा रही है... आधे-आँगन धूप रहते जो गई है सहुआन की दुकान छोवा-गुड़ लानेसो अभी तक नहीं लौटीदीया-बाती की बेला हो गई। आए आज लौटके जरा! बागड़ बकरे की देह में कुकुरमाछी लगी थीइसलिए बेचारा बागड़ रह-रह कर कूद-फाँद कर रहा था। बिरजू की माँ बागड़ पर मन का गुस्सा उतारने का बहाना ढूँढ़ कर निकाल चुकी थी। ...पिछवाड़े की मिर्च की फूली गाछ! बागड़ के सिवा और किसने कलेवा किया होगा! बागड़ को मारने के लिए वह मिट्टी का छोटा ढेला उठा चुकी थीकि पड़ोसिन मखनी फुआ की पुकार सुनाई पड़ी - 'क्यों बिरजू की माँनाच देखने नहीं जाएगी क्या?'

'बिरजू की माँ के आगे नाथ और पीछे पगहिया न हो तब नफुआ!'

गरम गुस्से में बुझी नुकीली बात फुआ की देह में धँस गई और बिरजू के माँ ने हाथ के ढेले को पास ही फेंक दिया - 'बेचारे बागड़ को कुकुरमाछी परेशान कर रही है। आ-हाआय... आय! हर्र-र-र! आय-आय!'

बिरजू ने लेटे-ही-लेटे बागड़ को एक डंडा लगा दिया। बिरजू की माँ की इच्छा हुई कि जा कर उसी डंडे से बिरजू का भूत भगा देकिंतु नीम के पास खड़ी पनभरनियों की खिलखिलाहट सुन कर रुक गई। बोली, 'ठहरतेरे बप्पा ने बड़ा हथछुट्टा बना दिया है तुझे! बड़ा हाथ चलता है लोगों पर। ठहर!'

मखनी फुआ नीम के पास झुकी कमर से घड़ा उतार कर पानी भर कर लौटती पनभरनियों में बिरजू की माँ की बहकी हुई बात का इंसाफ करा रही थी - 'जरा देखो तो इस बिरजू की माँ को! चार मन पाट(जूट)का पैसा क्या हुआ हैधरती पर पाँव ही नहीं पड़ते! निसाफ करो! खुद अपने मुँह से आठ दिन पहले से ही गाँव की गली-गली में बोलती फिरी है, 'हाँइस बार बिरजू के बप्पा ने कहा हैबैलगाड़ी पर बिठा कर बलरामपुर का नाच दिखा लाऊँगा। बैल अब अपने घर हैतो हजार गाड़ी मँगनी मिल जाएँगी।सो मैंने अभी टोक दियानाच देखनेवाली सब तो औन-पौन कर तैयार हो रही हैंरसोई-पानी कर रहे हैं। मेरे मुँह में आग लगेक्यों मैं टोकने गई! सुनती होक्या जवाब दिया बिरजू की माँ ने?'

मखनी फुआ ने अपने पोपले मुँह के होंठों को एक ओर मोड़ कर ऐठती हुई बोली निकाली - 'अर्-र्रे-हाँ-हाँ! बि-र-र-ज्जू की मै...या के आगे नाथ औ-र्र पीछे पगहिया ना होतब ना-आ-आ !'

जंगी की पुतोहू बिरजू की माँ से नही डरती। वह जरा गला खोल कर ही कहती है, 'फुआ-आ! सरबे सित्तलर्मिटी (सर्वे सेट्लमेंट) के हाकिम के बासा पर फूलछाप किनारीवाली साड़ी पहन के तू भी भटा की भेंटी चढ़ाती तो तुम्हारे नाम से भी दु-तीन बीघा धनहर जमीन का पर्चा कट जाता! फिर तुम्हारे घर भी आज दस मन सोनाबंग पाट होताजोड़ा बैल खरीदता! फिर आगे नाथ और पीछे सैकड़ो पगहिया झूलती!'

जंगी की पुतोहू मुँहजोर है। रेलवे स्टेशन के पास की लड़की है। तीन ही महीने हुएगौने की नई बहू हो कर आई है और सारे कुर्माटोली की सभी झगड़ालू सासों से एकाध मोरचा ले चुकी है। उसका ससुर जंगी दागी चोर हैसी-किलासी है। उसका खसम रंगी कुर्माटोली का नामी लठैत। इसीलिए हमेशा सींग खुजाती फिरती जंगी की पुतोहू!

बिरजू की माँ के आँगन में जंगी की पुतोहू की गला-खोल बोली गुलेल की गोलियों की तरह दनदनाती हुई आई थी। बिरजू के माँ ने एक तीखा जवाब खोज कर निकालालेकिन मन मसोस कर रह गई। ...गोबर की ढेरी में कौन ढेला फेंके!

जीभ के झाल को गले में उतार कर बिरजू की माँ ने अपनी बेटी चंपिया को आवाज दी - 'अरी चंपिया-या-याआज लौटे तो तेरी मूड़ी मरोड़ कर चूल्हे में झोंकती हूँ! दिन-दिन बेचाल होती जाती है! ...गाँव में तो अब ठेठर-बैसकोप का गीत गानेवाली पतुरिया-पुतोहू सब आने लगी हैं। कहीं बैठके 'बाजे न मुरलियासीख रही होगी ह-र-जा-ई-ई! अरी चंपिया-या-या!'

जंगी की पुतोहू ने बिरजू की माँ की बोली का स्वाद ले कर कमर पर घड़े को सँभाला और मटक कर बोली, 'चल दिदियाचल! इस मुहल्ले में लाल पान की बेगम बसती है! नहीं जानतीदोपहर-दिन और चौपहर-रात बिजली की बत्ती भक्-भक् कर जलती है!'

भक्-भक् बिजली-बत्ती की बात सुन कर न जाने क्यों सभी खिलखिला कर हँस पड़ी। फुआ की टूटी हुई दंत-पंक्तियों के बीच से एक मीठी गाली निकली - 'शैतान की नानी!'

बिरजू की माँ की आँखो पर मानो किसी ने तेज टार्च की रोशनी डाल कर चौंधिया दिया। ...भक्-भक् बिजली-बत्ती! तीन साल पहले सर्वे कैंप के बाद गाँव की जलनडाही औरतों ने एक कहानी गढ़ के फैलाई थीचंपिया की माँ के आँगन में रात-भर बिजली-बत्ती भुकभुकाती थी! चंपिया की माँ के आँगन में नाकवाले जूते की छाप घोड़े की टाप की तरह। ...जलोजलो! और जलो! चंपिया की माँ के आँगन में चाँदी-जैसे पाट सूखते देख कर जलनेवाली सब औरतें खलिहान पर सोनोली धान के बोझों को देख कर बैंगन का भुर्ता हो जाएँगी।

मिट्टी के बरतन से टपकते हुए छोवा-गुड़ को उँगलियों से चाटती हुई चंपिया आई और माँ के तमाचे खा कर चीख पड़ी - 'मुझे क्यों मारती है-ए-ए-ए! सहुआइन जल्दी से सौदा नहीं देती है-एँ-एँ-एँ-एँ!'

'सहुआइन जल्दी सौदा नहीं देती की नानी! एक सहुआइन की दुकान पर मोती झरते हैंजो जड़ गाड़ कर बैठी हुई थी! बोलगले पर लात दे कर कल्ला तोड़ दूँगी हरजाईजो फिर कभी 'बाजे न मुरलियागाते सुना! चाल सीखने जाती है टीशन की छोकरियों से!'

बिरजू के माँ ने चुप हो कर अपनी आवाज अंदाजी कि उसकी बात जंगी के झोंपड़े तक साफ-साफ पहुँच गई होगी।

बिरजू बीती हुई बातों को भूल कर उठ खड़ा हुआ था और धूल झाड़ते हुए बरतन से टपकते गुड़ को ललचाई निगाह से देखने लगा था। ...दीदी के साथ वह भी दुकान जाता तो दीदी उसे भी गुड़ चटातीजरुर! वह शकरकंद के लोभ में रहा और माँगने पर माँ ने शकरकंद के बदले...

'ए मैयाएक अँगुली गुड़ दे दे बिरजू ने तलहथी फैलाई - दे ना मैयाएक रत्ती भर!'

'एक रत्ती क्योंउठाके बरतन को फेंक आती हूँ पिछवाड़े मेंजाके चाटना! नहीं बनेगी मीठी रोटी! ...मीठी रोटी खाने का मुँह होता है बिरजू की माँ ने उबले शकरकंद का सूप रोती हुई चंपिया के सामने रखते हुए कहाबैठके छिलके उतारनहीं तो अभी...!'

दस साल की चंपिया जानती हैशकरकंद छीलते समय कम-से-कम बारह बार माँ उसे बाल पकड़ कर झकझोरेगीछोटी-छोटी खोट निकाल कर गालियाँ देगी - 'पाँव फैलाके क्यों बैठी है उस तरहबेलल्जी!चंपिया माँ के गुस्से को जानती है।

बिरजू ने इस मौके पर थोड़ी-सी खुशामद करके देखा - 'मैयामैं भी बैठ कर शकरकंद छीलूँ?'

'नहीं?' माँ ने झिड़की दी, 'एक शकरकंद छीलेगा और तीन पेट में! जाके सिद्धू की बहू से कहोएक घंटे के लिए कड़ाही माँग कर ले गई तो फिर लौटाने का नाम नहीं। जा जल्दी!'

मुँह लटका कर आँगन से निकलते-निकलते बिरजू ने शकरकंद और गुड़ पर निगाहें दौड़ाई। चंपिया ने अपने झबरे केश की ओट से माँ की ओर देखा और नजर बचा कर चुपके से बिरजू की ओर एक शकरकंद फेंक दिया। ...बिरजू भागा।

'सूरज भगवान डूब गए। दीया-बत्ती की बेला हो गई। अभी तक गाड़ी...

'चंपिया बीच में ही बोल उठी - 'कोयरीटोले में किसी ने गाड़ी नहीं दी मैया! बप्पा बोलेमाँ से कहना सब ठीक-ठाक करके तैयार रहें। मलदहियाटोली के मियाँजान की गाड़ी लाने जा रहा हूँ।'

सुनते ही बिरजू की माँ का चेहरा उतर गया। लगाछाते की कमानी उतर गई घोड़े से अचानक। कोयरीटोले में किसी ने गाड़ी मँगनी नहीं दी! तब मिल चुकी गाड़ी! जब अपने गाँव के लोगों की आँख में पानी नहीं तो मलदहियाटोली के मियाँजान की गाड़ी का क्या भरोसा! न तीन में न तेरह में! क्या होगा शकरकंद छील कर! रख दे उठा के! ...यह मर्द नाच दिखाएगा। बैलगाड़ी पर चढ़ कर नाच दिखाने ले जाएगा! चढ़ चुकी बैलगाड़ी परदेख चुकी जी-भर नाच... पैदल जानेवाली सब पहुँच कर पुरानी हो चुकी होंगी।

बिरजू छोटी कड़ाही सिर पर औंधा कर वापस आया - 'देख दिदियामलेटरी टोपी! इस पर दस लाठी मारने पर भी कुछ नहीं होता।'

चंपिया चुपचाप बैठी रहीकुछ बोली नहींजरा-सी मुस्कराई भी नहीं। बिरजू ने समझ लियामैया का गुस्सा अभी उतरा नहीं है पूरे तौर से।

मढ़ैया के अंदर से बागड़ को बाहर भगाती हुई बिरजू की माँ बड़बड़ाई - 'कल ही पँचकौड़ी कसाई के हवाले करती हूँ राकस तुझे! हर चीज में मुँह लगाएगा। चंपियाबाँध दे बागड़ को। खोल दे गले की घंटी! हमेशा टुनुर-टुनुर! मुझे जरा नहीं सुहाता है!'

'टुनुर-टुनुरसुनते ही बिरजू को सड़क से जाती हुई बैलगाड़ियों की याद हो आई - 'अभी बबुआनटोले की गाड़ियाँ नाच देखने जा रही थीं... झुनुर-झुनुर बैलों की झुमकीतुमने सु...'

'बेसी बक-बक मत करो!बागड़ के गले से झुमकी खोलती बोली चंपिया।

'चंपिया,डाल दे चूल्हे में पानी! बप्पा आवे तो कहना कि अपने उड़नजहाज पर चढ़ कर नाच देख आएँ! मुझे नाच देखने का सौख नहीं! ...मुझे जगैयो मत कोई! मेरा माथा दुख रहा है।'

मढ़ैया के ओसारे पर बिरजू ने फिसफिसा के पूछा, 'क्यों दिदियानाच में उड़नजहाज भी उड़ेगा?'

चटाई पर कथरी ओढ़ कर बैठती हुई चंपिया ने बिरजू को चुपचाप अपने पास बैठने का इशारा कियामुफ्त में मार खाएगा बेचारा!

बिरजू ने बहन की कथरी में हिस्सा बाँटते हुए चुक्की-मुक्की लगाई। जाड़े के समय इस तरह घुटने पर ठुड्डी रख कर चुक्की-मिक्की लगाना सीख चुका है वह। उसने चंपिया के कान के पास मुँह ले जा कर कहा, 'हम लोग नाच देखने नहीं जाएँगे...गाँव में एक पंछी भी नहीं है। सब चले गए।'

चंपिया को तिल-भर भी भरोसा नहीं। संझा तारा डूब रहा है। बप्पा अभी तक गाड़ी ले कर नहीं लौटे। एक महीना पहले से ही मैया कहती थीबलरामपुर के नाच के दिन मीठी रोटी बनेगीचंपिया छींट की साड़ी पहनेगीबिरजू पैंट पहनेगाबैलगाड़ी पर चढ़ कर-

चंपिया की भीगी पलकों पर एक बूँद आँसू आ गया।

बिरजू का भी दिल भर आया। उसने मन-ही-मन में इमली पर रहनेवाले जिनबाबा को एक बैंगन कबूलागाछ का सबसे पहला बैंगनउसने खुद जिस पौधे को रोपा है! ...जल्दी से गाड़ी ले कर बप्पा को भेज दोजिनबाबा!

मढ़ैया के अंदर बिरजू की माँ चटाई पर पड़ी करवटें ले रही थी। उँहपहले से किसी बात का मनसूबा नहीं बाँधना चाहिए किसी को! भगवान ने मनसूबा तोड़ दिया। उसको सबसे पहले भगवान से पूछना हैयह किस चूक का फल दे रहे हो भोला बाबा! अपने जानते उसने किसी देवता-पित्तर की मान-मनौती बाकी नहीं रखी। सर्वे के समय जमीन के लिए जितनी मनौतियाँ की थीं... ठीक ही तो! महाबीर जी का रोट तो बाकी ही है। हाय रे दैव!... भूल-चूक माफ करो महाबीर बाबा! मनौती दूनी करके चढ़ाएगी बिरजू की माँ!...

बिरजू की माँ के मन में रह-रह कर जंगी की पुतोहू की बातें चुभती हैंभक्-भक् बिजली-बत्ती!... चोरी-चमारी करनेवाली की बेटी-पुतोहू जलेगी नहीं! पाँच बीघा जमीन क्या हासिल की है बिरजू के बप्पा नेगाँव की भाईखौकियों की आँखों में किरकिरी पड़ गई है। खेत में पाट लगा देख कर गाँव के लोगों की छाती फटने लगीधरती फोड़ कर पाट लगा हैबैसाखी बादलों की तरह उमड़ते आ रहे हैं पाट के पौधे! तो अलानतो फलान! इतनी आँखों की धार भला फसल सहे! जहाँ पंद्रह मन पाट होना चाहिएसिर्फ दस मन पाट काँटा पर तौल के ओजन हुआ भगत के यहाँ।...

इसमें जलने की क्या बात है भला!... बिरजू के बप्पा ने तो पहले ही कुर्माटोली के एक-एक आदमी को समझा के कहा, 'जिंदगी-भर मजदूरी करते रह जाओगे। सर्वे का समय हो रहा हैलाठी कड़ी करो तो दो-चार बीघे जमीन हासिल कर सकते हो।सो गाँव की किसी पुतखौकी का भतार सर्वे के समय बाबूसाहेब के खिलाफ खाँसा भी नहीं।... बिरजू के बप्पा को कम सहना पड़ा है! बाबूसाहेब गुस्से से सरकस नाच के बाघ की तरह हुमड़ते रह गए। उनका बड़ा बेटा घर में आग लगाने की धमकी देकर गया।... आखिर बाबूसाहेब ने अपने सबसे छोटे लड़के को भेजा। बिरजू की माँ को 'मौसीकहके पुकारा - 'यह जमीन बाबू जी ने मेरे नाम से खरीदी थी। मेरी पढ़ाई-लिखाई उसी जमीन की उपज से चलती है।...और भी कितनी बातें। खूब मोहना जानता है उत्ता जरा-सा लड़का। जमींदार का बेटा है कि...

'चंपियाबिरजू सो गया क्यायहाँ आ जा बिरजूअंदर। तू भी आ जाचंपिया!... भला आदमी आए तो एक बार आज!'

बिरजू के साथ चंपिया अंदर चली गई ।

'ढिबरी बुझा दे।... बप्पा बुलाएँ तो जवाब मत देना। खपच्ची गिरा दे।'

भला आदमी रेभला आदमी! मुँह देखो जरा इस मर्द का!... बिरजू की माँ दिन-रात मंझा न देती रहती तो ले चुके थे जमीन! रोज आ कर माथा पकड़ के बैठ जाएँ, 'मुझे जमीन नहीं लेनी है बिरजू की माँमजूरी ही अच्छी।'...जवाब देती थी बिरजू की माँ खूब सोच-समझके, 'छोड़ दोजब तुम्हारा कलेजा ही स्थिर नहीं होता है तो क्या होगाजोरु-जमीन जोर केनहीं तो किसी और के!...

बिरजू के बाप पर बहुत तेजी से गुस्सा चढ़ता है। चढ़ता ही जाता है। ...बिरजू की माँ का भाग ही खराब हैजो ऐसा गोबरगणेश घरवाला उसे मिला। कौन-सा सौख-मौज दिया है उसके मर्द नेकोल्हू के बैल की तरह खट कर सारी उम्र काट दी इसके यहाँकभी एक पैसे की जलेबी भी ला कर दी है उसके खसम ने! ...पाट का दाम भगत के यहाँ से ले कर बाहर-ही-बाहर बैल-हटटा चले गए। बिरजू की माँ को एक बार नमरी लोट देखने भी नहीं दिया आँख से। ...बैल खरीद लाए। उसी दिन से गाँव में ढिंढोरा पीटने लगेबिरजू की माँ इस बार बैलगाड़ी पर चढ़ कर जाएगी नाच देखने! ...दूसरे की गाड़ी के भरोसे नाच दिखाएगा!...

अंत में उसे अपने-आप पर क्रोध हो आया। वह खुद भी कुछ कम नहीं! उसकी जीभ में आग लगे! बैलगाड़ी पर चढ़ कर नाच देखने की लालसा किसी कुसमय में उसके मुँह से निकली थीभगवान जानें! फिर आज सुबह से दोपहर तककिसी-न-किसी बहाने उसने अठारह बार बैलगाड़ी पर नाच देखने की चर्चा छेड़ी है। ...लोखूब देखो नाच! कथरी के नीचे दुशाले का सपना! ...कल भोरे पानी भरने के लिए जब जाएगीपतली जीभवाली पतुरिया सब हँसती आएँगीहँसती जाएँगी। ...सभी जलते है उससेहाँ भगवानदाढ़ीजार भी! दो बच्चो की माँ हो कर भी वह जस-की-तस है। उसका घरवाला उसकी बात में रहता है। वह बालों में गरी का तेल डालती है। उसकी अपनी जमीन है। है किसी के पास एक घूर जमीन भी अपने इस गाँव में! जलेंगे नहींतीन बीघे में धान लगा हुआ हैअगहनी। लोगों की बिखदीठ से बचेतब तो!

बाहर बैलों की घंटियाँ सुनाई पड़ीं। तीनों सतर्क हो गए। उत्कर्ण होकर सुनते रहे।

'अपने ही बैलों की घंटी हैक्यों री चंपिया?'

चंपिया और बिरजू ने प्राय: एक ही साथ कहा, 'हूँ-ऊँ-ऊँ!'

'चुप बिरजू की माँ ने फिसफिसा कर कहाशायद गाड़ी भी हैघड़घड़ाती है न?'

'हूँ-ऊँ-ऊँ!दोनों ने फिर हुँकारी भरी।

'चुप! गाड़ी नहीं है। तू चुपके से टट्टी में छेद करके देख तो आ चंपी! भागके आचुपके-चुपके।'

चंपिया बिल्ली की तरह हौले-हौले पाँव से टट्टी के छेद से झाँक आई - 'हाँ मैयागाड़ी भी है!'

बिरजू हड़बड़ा कर उठ बैठा। उसकी माँ ने उसका हाथ पकड़ कर सुला दिया - 'बोले मत!'

चंपिया भी गुदड़ी के नीचे घुस गई।

बाहर बैलगाड़ी खोलने की आवाज हुई। बिरजू के बाप ने बैलों को जोर से डाँटा - 'हाँ-हाँ! आ गए घर! घर आने के लिए छाती फटी जाती थी!'

बिरजू की माँ ताड़ गईजरुर मलदहियाटोली में गाँजे की चिलम चढ़ रही थीआवाज तो बड़ी खनखनाती हुई निकल रही है।

'चंपिया-ह!बाहर से पुकार कर कहा उसके बाप ने, 'बैलों को घास दे देचंपिया-ह!'

अंदर से कोई जवाब नहीं आया। चंपिया के बाप ने आँगन में आ कर देखा तो न रोशनीन चिरागन चूल्हे में आग। ...बात क्या है! नाच देखनेउतावली हो करपैदल ही चली गई क्या...!

बिरजू के गले में खसखसाहट हुई और उसने रोकने की पूरी कोशिश भी कीलेकिन खाँसी जब शुरु हुई तो पूरे पाँच मिनट तक वह खाँसता रहा।

'बिरजू! बेटा बिरजमोहन!बिरजू के बाप ने पुचकार कर बुलायामैया गुस्से के मारे सो गई क्या...अरे अभी तो लोग जा ही रहे हैं।'

बिरजू की माँ के मन में आया कि कस कर जवाब देनहीं देखना है नाच! लौटा दो गाड़ी!

'चंपिया-ह! उठती क्यों नहींलेधान की पँचसीस रख दे। धान की बालियों का छोटा झब्बा झोंपड़े के ओसरे पर रख कर उसने कहा, 'दीया बालो!'

बिरजू की माँ उठ कर ओसारे पर आई - 'डेढ़ पहर रात को गाड़ी लाने की क्या जरुरत थी? नाच तो अब खत्म हो रहा होगा।'

ढिबरी की रोशनी में धान की बालियों का रंग देखते ही बिरजू की माँ के मन का सब मैल दूर हो गया। ...धानी रंग उसकी आँखों से उतर कर रोम-रोम में घुल गया।

'नाच अभी शुरु भी नहीं हुआ होगा। अभी-अभी बलमपुर के बाबू की संपनी गाड़ी मोहनपुर होटिल-बँगला से हाकिम साहब को लाने गई है। इस साल आखिरी नाच है।... पँचसीस टट्टी में खोंस देअपने खेत का है।'

'अपने खेत काहुलसती हुई बिरजू की माँ ने पूछापक गये धान?'

'नहींदस दिन में अगहन चढ़ते-चढ़ते लाल हो कर झुक जाएँगी सारे खेत की बालियाँ! ...मलदहियाटोली पर जा रहा थाअपने खेत में धान देख कर आँखें जुड़ा गईं। सच कहता हूँपँचसीस तोड़ते समय उँगलियाँ काँप रही थीं मेरी!'

बिरजू ने धान की एक बाली से एक धान ले कर मुँह में डाल लिया और उसकी माँ ने एक हल्की डाँट दी - 'कैसा लुक्क्ड़ है तू रे! ...इन दुश्मनों के मारे कोई नेम-धरम बचे!'

'क्या हुआडाँटती क्यों है?'

'नवान्न के पहले ही नया धान जुठा दियादेखते नहीं?'

'अरे,इन लोगों का सब कुछ माफ है। चिरई-चुरमुन हैं यह लोग! दोनों के मुँह में नवान्न के पहले नया अन्न न पड़े?'

इसके बाद चंपिया ने भी धान की बाली से दो धान लेकर दाँतों-तले दबाए - 'ओ मैया! इतना मीठा चावल!'

'और गमकता भी है न दिदिया?' बिरजू ने फिर मुँह में धान लिया।

'रोटी-पोटी तैयार कर चुकी क्या?' बिरजू के बाप ने मुस्कराकर पूछा।

'नहीं!मान-भरे सुर में बोली बिरजू की माँ, 'जाने का ठीक-ठिकाना नहीं... और रोटी बनाती!'

'वाह! खूब हो तुम लोग!...जिसके पास बैल हैउसे गाड़ी मँगनी नहीं मिलेगी भलागाड़ीवालो को भी कभी बैल की जरुरत होगी। ...पूछूँगा तब कोयरीटोलावालों से! ...लेजल्दी से रोटी बना ले।'

'देर नहीं होगी!'

'अरेटोकरी भर रोटी तो तू पलक मारते बना देती हैपाँच रोटियाँ बनाने में कितनी देर लगेगी!'

अब बिरजू की माँ के होंठों पर मुस्कराहट खुल कर खिलने लगी। उसने नजर बचा कर देखाबिरजू का बप्पा उसकी ओर एकटक निहार रहा है। ...चंपिया और बिरजू न होते तो मन की बात हँस कर खोलने में देर न लगती। चंपिया और बिरजू ने एक-दूसरे को देखा और खुशी से उनके चेहरे जगमगा उठे - 'मैया बेकार गुस्सा हो रही थी न!'

'चंपी! जरा घैलसार में खड़ी हो कर मखनी फुआ को आवाज दे तो!'

'ऐ फू-आ-आ! सुनती हो फूआ-आ! मैया बुला रही है!'

फुआ ने कोई जवाब नहीं दियाकिंतु उसकी बड़बड़ाहट स्पष्ट सुनाई पड़ी - 'हाँ! अब फुआ को क्यों गुहारती हैसारे टोले में बस एक फुआ ही तो बिना नाथ-पगहियावाली है।'

'अरी फुआ!बिरजू की माँ ने हँस कर जवाब दिया, 'उस समय बुरा मान गई थी क्यानाथ-पगहियावाले को आ कर देखोदोपहर रात में गाड़ी लेकर आया है! आ जाओ फुआमैं मीठी रोटी पकाना नहीं जानती।'

फुआ काँखती-खाँसती आई - 'इसी के घड़ी-पहर दिन रहते ही पूछ रही थी कि नाच देखने जाएगी क्याकहतीतो मैं पहले से ही अपनी अँगीठी यहाँ सुलगा जाती।'

बिरजू की माँ ने फुआ को अँगीठी दिखला दी और कहा, 'घर में अनाज-दाना वगैरह तो कुछ है नहीं। एक बागड़ है और कुछ बरतन-बासनसो रात-भर के लिए यहाँ तंबाकू रख जाती हूँ। अपना हुक्का ले आई हो न फुआ?'

फुआ को तंबाकू मिल जाएतो रात-भर क्यापाँच रात बैठ कर जाग सकती है। फुआ ने अँधेरे में टटोल कर तंबाकू का अंदाज किया... ओ-हो! हाथ खोल कर तंबाकू रखा है बिरजू की माँ ने! और एक वह है सहुआइन! राम कहो! उस रात को अफीम की गोली की तरह एक मटर-भर तंबाकू रख कर चली गई गुलाब-बाग मेले और कह गई कि डिब्बी-भर तंबाकू है।

बिरजू की माँ चूल्हा सुलगाने लगी। चंपिया ने शकरकंद को मसल कर गोले बनाए और बिरजू सिर पर कड़ाही औंधा कर अपने बाप को दिखलाने लगा - 'मलेटरी टोपी! इस पर दस लाठी मारने पर भी कुछ नहीं होगा!'

सभी ठठा कर हँस पड़े। बिरजू की माँ हँस कर बोली, 'ताखे पर तीन-चार मोटे शकरकंद हैंदे दे बिरजू को चंपियाबेचारा शाम से ही...'

'बेचारा मत कहो मैयाखूब सचारा हैअब चंपिया चहकने लगी, 'तुम क्या जानोकथरी के नीचे मुँह क्यों चल रहा था बाबू साहब का!'

'ही-ही-ही!'

बिरजू के टूटे दूध के दाँतो की फाँक से बोली निकली, 'बिलैक-मारटिन में पाँच शकरकंद खा लिया! हा-हा-हा!'

सभी फिर ठठा कर हँस पड़े। बिरजू की माँ ने फुआ का मन रखने के लिए पूछा, 'एक कनवाँ गुड़ है। आधा दूँ फुआ?'

फुआ ने गदगद हो कर कहा, 'अरी शकरकंद तो खुद मीठा होता हैउतना क्यों डालेगी?'

जब तक दोनों बैल दाना-घास खा कर एक-दूसरे की देह को जीभ से चाटेंबिरजू की माँ तैयार हो गई। चंपिया ने छींट की साड़ी पहनी और बिरजू बटन के अभाव में पैंट पर पटसन की डोरी बँधवाने लगा।

बिरजू के माँ ने आँगन से निकल गाँव की ओर कान लगा कर सुनने की चेष्टा की - 'उँहुँइतनी देर तक भला पैदल जानेवाले रुके रहेंगे?'

पूर्णिमा का चाँद सिर पर आ गया है। ...बिरजू की माँ ने असली रुपा का मँगटिक्का पहना है आजपहली बार। बिरजू के बप्पा को हो क्या गया हैगाड़ी जोतता क्यों नहींमुँह की ओर एकटक देख रहा हैमानो नाच की लाल पान की...

गाड़ी पर बैठते ही बिरजू की माँ की देह में एक अजीब गुदगुदी लगने लगी। उसने बाँस की बल्ली को पकड़ कर कहा, 'गाड़ी पर अभी बहोत जगह है। ...जरा दाहिनी सड़क से गाड़ी हाँकना।'

बैल जब दौड़ने लगे और पहिया जब चूँ-चूँ करके घरघराने लगा तो बिरजू से नहीं रहा गया - 'उड़नजहाज की तरह उड़ाओ बप्पा!'

गाड़ी जंगी के पिछवाड़े पहुँची। बिरजू की माँ ने कहा, 'जरा जंगी से पूछो नउसकी पुतोहू नाच देखने चली गई क्या?'

गाड़ी के रुकते ही जंगी के झोंपड़े से आती हुई रोने की आवाज स्पष्ट हो गई। बिरजू के बप्पा ने पूछा, 'अरे जंगी भाईकाहे कन्न-रोहट हो रहा है आँगन में?'

जंगी घूर ताप रहा थाबोला, 'क्या पूछते होरंगी बलरामपुर से लौटा नहींपुतोहिया नाच देखने कैसे जाए! आसरा देखते-देखते उधर गाँव की सभी औरतें चली गई।'

'अरी टीशनवालीतो रोती है काहे!बिरजू की माँ ने पुकार कर कहा, 'आ जा झट से कपड़ा पहन कर। सारी गाड़ी पड़ी हुई है! बेचारी! ...आ जा जल्दी!'

बगल के झोंपड़े से राधे की बेटी सुनरी ने कहा, 'काकीगाड़ी में जगह हैमैं भी जाऊँगी।'

बाँस की झाड़ी के उस पार लरेना खवास का घर है। उसकी बहू भी नहीं गई है। गिलट का झुमकी-कड़ा पहन कर झमकती आ रही है।

'आ जा! जो बाकी रह गई हैंसब आ जाएँ जल्दी!'

जंगी की पुतोहूलरेना की बीवी और राधे की बेटी सुनरीतीनों गाड़ी के पास आई। बैल ने पिछला पैर फेंका। बिरजू के बाप ने एक भद्दी गाली दी - 'साला! लताड़ मार कर लँगड़ी बनाएगा पुतोहू को!'

सभी ठठा कर हँस पड़े। बिरजू के बाप ने घूँघट में झुकी दोनों पुतोहूओं को देखा। उसे अपने खेत की झुकी हुई बालियों की याद आ गई।

जंगी की पुतोहू का गौना तीन ही मास पहले हुआ है। गौने की रंगीन साड़ी से कड़वे तेल और लठवा-सिंदूर की गंध आ रही है। बिरजू की माँ को अपने गौने की याद आई। उसने कपड़े की गठरी से तीन मीठी रोटियाँ निकाल कर कहा, 'खा ले एक-एक करके। सिमराह के सरकारी कूप में पानी पी लेना।'

गाड़ी गाँव से बाहर हो कर धान के खेतों के बगल से जाने लगी। चाँदनीकातिक की! ...खेतों से धान के झरते फूलों की गंध आती है। बाँस की झाड़ी में कहीं दुद्धी की लता फूली है। जंगी की पुतोहू ने एक बीड़ी सुलगा कर बिरजू की माँ की ओर बढ़ाई। बिरजू की माँ को अचानक याद आई चंपियासुनरीलरेना की बीवी और जंगी की पुतोहूये चारों ही गाँव में बैसकोप का गीत गाना जानती हैं। ...खूब!

गाड़ी की लीक धनखेतों के बीच हो कर गई। चारों ओर गौने की साड़ी की खसखसाहट-जैसी आवाज होती है। ...बिरजू की माँ के माथे के मँगटिक्के पर चाँदनी छिटकती है।

'अच्छाअब एक बैसकोप का गीत गा तो चंपिया! ...डरती है काहेजहाँ भूल जाओगीबगल में मासटरनी बैठी ही है!'

दोनों पुतोहुओं ने तो नहींकिंतु चंपिया और सुनरी ने खँखार कर गला साफ किया।

बिरजू के बाप ने बैलों को ललकारा - 'चल भैया! और जरा जोर से!... गा रे चंपियानहीं तो मैं बैलों को धीरे-धीरे चलने को कहूँगा।'

जंगी की पुतोहू ने चंपिया के कान के पास घूँघट ले जा कर कुछ कहा और चंपिया ने धीमे से शुरु किया - 'चंदा की चाँदनी...'

बिरजू को गोद में ले कर बैठी उसकी माँ की इच्छा हुई कि वह भी साथ-साथ गीत गाए। बिरजू की माँ ने जंगी की पुतोहू को देखाधीरे-धीरे गुनगुना रही है वह भी। कितनी प्यारी पुतोहू है! गौने की साड़ी से एक खास किस्म की गंध निकलती है। ठीक ही तो कहा है उसने! बिरजू की माँ बेगम हैलाल पान की बेगम! यह तो कोई बुरी बात नहीं। हाँवह सचमुच लाल पान की बेगम है!

बिरजू की माँ ने अपनी नाक पर दोनों आँखों को केंद्रित करने की चेष्टा करके अपने रुप की झाँकी लीलाला साड़ी की झिलमिल किनारीमँगटिक्का पर चाँद। ...बिरजू की माँ के मन में अब और कोई लालसा नहीं। उसे नींद आ रही है।
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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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