पाठ 07. चीफ की दावत-भीष्म साहनी

 

चीफ की दावत-भीष्म साहनी


आज मिस्टर शामनाथ के घर चीफ की दावत थी।

शामनाथ और उनकी धर्मपत्नी को पसीना पोंछने की फुर्सत न थी। पत्नी ड्रेसिंग गाउन पहनेउलझे हुए बालों का जूड़ा बनाए मुँह पर फैली हुई सुर्खी और पाउड़र को मले और मिस्टर शामनाथ सिगरेट पर सिगरेट फूँकते हुए चीजों की फेहरिस्त हाथ में थामेएक कमरे से दूसरे कमरे में आ-जा रहे थे।

आखिर पाँच बजते-बजते तैयारी मुकम्मल होने लगी। कुर्सियाँमेजतिपाइयाँनैपकिनफूलसब बरामदे में पहुँच गए। ड्रिंक का इंतजाम बैठक में कर दिया गया। अब घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा। तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गईमाँ का क्या होगा?

इस बात की ओर न उनका और न उनकी कुशल गृहिणी का ध्यान गया था। मिस्टर शामनाथश्रीमती की ओर घूम कर अंग्रेजी में बोले - 'माँ का क्या होगा?'

श्रीमती काम करते-करते ठहर गईंऔर थोडी देर तक सोचने के बाद बोलीं - 'इन्हें पिछवाड़े इनकी सहेली के घर भेज दोरात-भर बेशक वहीं रहें। कल आ जाएँ।'

शामनाथ सिगरेट मुँह में रखेसिकुडी आँखों से श्रीमती के चेहरे की ओर देखते हुए पल-भर सोचते रहेफिर सिर हिला कर बोले - 'नहींमैं नहीं चाहता कि उस बुढ़िया का आना-जाना यहाँ फिर से शुरू हो। पहले ही बड़ी मुश्किल से बंद किया था। माँ से कहें कि जल्दी ही खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाएँ। मेहमान कहीं आठ बजे आएँगे इससे पहले ही अपने काम से निबट लें।'

सुझाव ठीक था। दोनों को पसंद आया। मगर फिर सहसा श्रीमती बोल उठीं - 'जो वह सो गईं और नींद में खर्राटे लेने लगींतोसाथ ही तो बरामदा हैजहाँ लोग खाना खाएँगे।'

'तो इन्हें कह देंगे कि अंदर से दरवाजा बंद कर लें। मैं बाहर से ताला लगा दूँगा। या माँ को कह देता हूँ कि अंदर जा कर सोएँ नहींबैठी रहेंऔर क्या?'

'और जो सो गईतोडिनर का क्या मालूम कब तक चले। ग्यारह-ग्यारह बजे तक तो तुम ड्रिंक ही करते रहते हो।'

शामनाथ कुछ खीज उठेहाथ झटकते हुए बोले - 'अच्छी-भली यह भाई के पास जा रही थीं। तुमने यूँ ही खुद अच्छा बनने के लिए बीच में टाँग अड़ा दी!'

'वाह! तुम माँ और बेटे की बातों में मैं क्यों बुरी बनूँतुम जानो और वह जानें।'

मिस्टर शामनाथ चुप रहे। यह मौका बहस का न थासमस्या का हल ढूँढ़ने का था। उन्होंने घूम कर माँ की कोठरी की ओर देखा। कोठरी का दरवाजा बरामदे में खुलता था। बरामदे की ओर देखते हुए झट से बोले - मैंने सोच लिया है- और उन्हीं कदमों माँ की कोठरी के बाहर जा खड़े हुए। माँ दीवार के साथ एक चौकी पर बैठीदुपट्टे में मुँह-सिर लपेटेमाला जप रही थीं। सुबह से तैयारी होती देखते हुए माँ का भी दिल धड़क रहा था। बेटे के दफ्तर का बड़ा साहब घर पर आ रहा हैसारा काम सुभीते से चल जाय।

माँआज तुम खाना जल्दी खा लेना। मेहमान लोग साढ़े सात बजे आ जाएँगे।

माँ ने धीरे से मुँह पर से दुपट्टा हटाया और बेटे को देखते हुए कहाआज मुझे खाना नहीं खाना हैबेटातुम जो जानते होमांस-मछली बनेतो मैं कुछ नहीं खाती।

जैसे भी होअपने काम से जल्दी निबट लेना।

अच्छाबेटा।

और माँहम लोग पहले बैठक में बैठेंगे। उतनी देर तुम यहाँ बरामदे में बैठना। फिर जब हम यहाँ आ जाएँतो तुम गुसलखाने के रास्ते बैठक में चली जाना।

माँ अवाक बेटे का चेहरा देखने लगीं। फिर धीरे से बोलीं - अच्छा बेटा।

और माँ आज जल्दी सो नहीं जाना। तुम्हारे खर्राटों की आवाज दूर तक जाती है।

माँ लज्जित-सी आवाज में बोली - क्या करूँबेटामेरे बस की बात नहीं है। जब से बीमारी से उठी हूँनाक से साँस नहीं ले सकती।

मिस्टर शामनाथ ने इंतजाम तो कर दियाफिर भी उनकी उधेड़-बुन खत्म नहीं हुई। जो चीफ अचानक उधर आ निकलातोआठ-दस मेहमान होंगेदेसी अफसरउनकी स्त्रियाँ होंगीकोई भी गुसलखाने की तरफ जा सकता है। क्षोभ और क्रोध में वह झुँझलाने लगे। एक कुर्सी को उठा कर बरामदे में कोठरी के बाहर रखते हुए बोले - आओ माँइस पर जरा बैठो तो।

माँ माला सँभालतींपल्ला ठीक करती उठींऔर धीरे से कुर्सी पर आ कर बैठ गई।

यूँ नहींमाँटाँगें ऊपर चढ़ा कर नहीं बैठते। यह खाट नहीं हैं।

माँ ने टाँगें नीचे उतार लीं।

और खुदा के वास्ते नंगे पाँव नहीं घूमना। न ही वह खड़ाऊँ पहन कर सामने आना। किसी दिन तुम्हारी यह खड़ाऊँ उठा कर मैं बाहर फेंक दूँगा।

माँ चुप रहीं।

कपड़े कौन से पहनोगीमाँ?

जो हैवही पहनूँगीबेटा! जो कहोपहन लूँ।

मिस्टर शामनाथ सिगरेट मुँह में रखेफिर अधखुली आँखों से माँ की ओर देखने लगेऔर माँ के कपड़ों की सोचने लगे। शामनाथ हर बात में तरतीब चाहते थे। घर का सब संचालन उनके अपने हाथ में था। खूँटियाँ कमरों में कहाँ लगाई जाएँबिस्तर कहाँ पर बिछेकिस रंग के पर्दे लगाएँ जाएँश्रीमती कौन-सी साड़ी पहनेंमेज किस साइज की हो... शामनाथ को चिंता थी कि अगर चीफ का साक्षात माँ से हो गयातो कहीं लज्जित नहीं होना पडे। माँ को सिर से पाँव तक देखते हुए बोले - तुम सफेद कमीज और सफेद सलवार पहन लोमाँ। पहन के आओ तोजरा देखूँ।

माँ धीरे से उठीं और अपनी कोठरी में कपड़े पहनने चली गईं।

यह माँ का झमेला ही रहेगाउन्होंने फिर अंग्रेजी में अपनी स्त्री से कहा - कोई ढंग की बात होतो भी कोई कहे। अगर कहीं कोई उल्टी-सीधी बात हो गईचीफ को बुरा लगातो सारा मजा जाता रहेगा।

माँ सफेद कमीज और सफेद सलवार पहन कर बाहर निकलीं। छोटा-सा कदसफेद कपड़ों में लिपटाछोटा-सा सूखा हुआ शरीरधुँधली आँखेंकेवल सिर के आधे झड़े हुए बाल पल्ले की ओट में छिप पाए थे। पहले से कुछ ही कम कुरूप नजर आ रही थीं।

चलोठीक है। कोई चूड़ियाँ-वूड़ियाँ होंतो वह भी पहन लो। कोई हर्ज नहीं।

चूड़ियाँ कहाँ से लाऊँबेटातुम तो जानते होसब जेवर तुम्हारी पढ़ाई में बिक गए।

यह वाक्य शामनाथ को तीर की तरह लगा। तिनक कर बोले - यह कौन-सा राग छेड़ दियामाँ! सीधा कह दोनहीं हैं जेवरबस! इससे पढ़ाई-वढ़ाई का क्या तअल्लुक है! जो जेवर बिकातो कुछ बन कर ही आया हूँनिरा लँडूरा तो नहीं लौट आया। जितना दिया थाउससे दुगना ले लेना।

मेरी जीभ जल जायबेटातुमसे जेवर लूँगीमेरे मुँह से यूँ ही निकल गया। जो होतेतो लाख बार पहनती!

साढ़े पाँच बज चुके थे। अभी मिस्टर शामनाथ को खुद भी नहा-धो कर तैयार होना था। श्रीमती कब की अपने कमरे में जा चुकी थीं। शामनाथ जाते हुए एक बार फिर माँ को हिदायत करते गए - माँरोज की तरह गुमसुम बन के नहीं बैठी रहना। अगर साहब इधर आ निकलें और कोई बात पूछेंतो ठीक तरह से बात का जवाब देना।

मैं न पढ़ीन लिखीबेटामैं क्या बात करूँगी। तुम कह देनामाँ अनपढ़ हैकुछ जानती-समझती नहीं। वह नहीं पूछेगा।

सात बजते-बजते माँ का दिल धक-धक करने लगा। अगर चीफ सामने आ गया और उसने कुछ पूछातो वह क्या जवाब देंगी। अंग्रेज को तो दूर से ही देख कर घबरा उठती थींयह तो अमरीकी है। न मालूम क्या पूछे। मैं क्या कहूँगी। माँ का जी चाहा कि चुपचाप पिछवाड़े विधवा सहेली के घर चली जाएँ। मगर बेटे के हुक्म को कैसे टाल सकती थीं। चुपचाप कुर्सी पर से टाँगें लटकाए वहीं बैठी रही।

एक कामयाब पार्टी वह हैजिसमें ड्रिंक कामयाबी से चल जाएँ। शामनाथ की पार्टी सफलता के शिखर चूमने लगी। वार्तालाप उसी रौ में बह रहा थाजिस रौ में गिलास भरे जा रहे थे। कहीं कोई रूकावट न थीकोई अड़चन न थी। साहब को व्हिस्की पसंद आई थी। मेमसाहब को पर्दे पसंद आए थेसोफा-कवर का डिजाइन पसंद आया थाकमरे की सजावट पसंद आई थी। इससे बढ़ कर क्या चाहिए। साहब तो ड्रिंक के दूसरे दौर में ही चुटकुले और कहानियाँ कहने लग गए थे। दफ्तर में जितना रोब रखते थेयहाँ पर उतने ही दोस्त-परवर हो रहे थे और उनकी स्त्रीकाला गाउन पहनेगले में सफेद मोतियों का हारसेंट और पाउड़र की महक से ओत-प्रोतकमरे में बैठी सभी देसी स्त्रियों की आराधना का केंद्र बनी हुई थीं। बात-बात पर हँसतींबात-बात पर सिर हिलातीं और शामनाथ की स्त्री से तो ऐसे बातें कर रही थींजैसे उनकी पुरानी सहेली हों।

और इसी रो में पीते-पिलाते साढ़े दस बज गए। वक्त गुजरते पता ही न चला।

आखिर सब लोग अपने-अपने गिलासों में से आखिरी घूँट पी कर खाना खाने के लिए उठे और बैठक से बाहर निकले। आगे-आगे शामनाथ रास्ता दिखाते हुएपीछे चीफ और दूसरे मेहमान।

बरामदे में पहुँचते ही शामनाथ सहसा ठिठक गए। जो दृश्य उन्होंने देखाउससे उनकी टाँगें लड़खड़ा गईऔर क्षण-भर में सारा नशा हिरन होने लगा। बरामदे में ऐन कोठरी के बाहर माँ अपनी कुर्सी पर ज्यों-की-त्यों बैठी थीं। मगर दोनों पाँव कुर्सी की सीट पर रखे हुएऔर सिर दाएँ से बाएँ और बाएँ से दाएँ झूल रहा था और मुँह में से लगातार गहरे खर्राटों की आवाजें आ रही थीं। जब सिर कुछ देर के लिए टेढ़ा हो कर एक तरफ को थम जातातो खर्राटें और भी गहरे हो उठते। और फिर जब झटके-से नींद टूटतीतो सिर फिर दाएँ से बाएँ झूलने लगता। पल्ला सिर पर से खिसक आया थाऔर माँ के झरे हुए बालआधे गंजे सिर पर अस्त-व्यस्त बिखर रहे थे।

देखते ही शामनाथ क्रुद्ध हो उठे। जी चाहा कि माँ को धक्का दे कर उठा देंऔर उन्हें कोठरी में धकेल देंमगर ऐसा करना संभव न थाचीफ और बाकी मेहमान पास खड़े थे।

माँ को देखते ही देसी अफसरों की कुछ स्त्रियाँ हँस दीं कि इतने में चीफ ने धीरे से कहा - पुअर डियर!

माँ हड़बड़ा के उठ बैठीं। सामने खड़े इतने लोगों को देख कर ऐसी घबराई कि कुछ कहते न बना। झट से पल्ला सिर पर रखती हुई खड़ी हो गईं और जमीन को देखने लगीं। उनके पाँव लड़खड़ाने लगे और हाथों की उँगलियाँ थर-थर काँपने लगीं।

माँतुम जाके सो जाओतुम क्यों इतनी देर तक जाग रही थीं- और खिसियाई हुई नजरों से शामनाथ चीफ के मुँह की ओर देखने लगे।

चीफ के चेहरे पर मुस्कराहट थी। वह वहीं खड़े-खड़े बोलेनमस्ते!

माँ ने झिझकते हुएअपने में सिमटते हुए दोनों हाथ जोड़ेमगर एक हाथ दुपट्टे के अंदर माला को पकड़े हुए थादूसरा बाहरठीक तरह से नमस्ते भी न कर पाई। शामनाथ इस पर भी खिन्न हो उठे।

इतने में चीफ ने अपना दायाँ हाथहाथ मिलाने के लिए माँ के आगे किया। माँ और भी घबरा उठीं।

माँहाथ मिलाओ।

पर हाथ कैसे मिलातींदाएँ हाथ में तो माला थी। घबराहट में माँ ने बायाँ हाथ ही साहब के दाएँ हाथ में रख दिया। शामनाथ दिल ही दिल में जल उठे। देसी अफसरों की स्त्रियाँ खिलखिला कर हँस पडीं।

यूँ नहींमाँ! तुम तो जानती होदायाँ हाथ मिलाया जाता है। दायाँ हाथ मिलाओ।

मगर तब तक चीफ माँ का बायाँ हाथ ही बार-बार हिला कर कह रहे थे - हाउ डू यू डू?

कहो माँमैं ठीक हूँखैरियत से हूँ।

माँ कुछ बडबड़ाई।

माँ कहती हैंमैं ठीक हूँ। कहो माँहाउ डू यू डू।

माँ धीरे से सकुचाते हुए बोलीं - हौ डू डू ..

एक बार फिर कहकहा उठा।

वातावरण हल्का होने लगा। साहब ने स्थिति सँभाल ली थी। लोग हँसने-चहकने लगे थे। शामनाथ के मन का क्षोभ भी कुछ-कुछ कम होने लगा था।

साहब अपने हाथ में माँ का हाथ अब भी पकड़े हुए थेऔर माँ सिकुड़ी जा रही थीं। साहब के मुँह से शराब की बू आ रही थी।

शामनाथ अंग्रेजी में बोले - मेरी माँ गाँव की रहने वाली हैं। उमर भर गाँव में रही हैं। इसलिए आपसे लजाती है।

साहब इस पर खुश नजर आए। बोले - सचमुझे गाँव के लोग बहुत पसंद हैंतब तो तुम्हारी माँ गाँव के गीत और नाच भी जानती होंगीचीफ खुशी से सिर हिलाते हुए माँ को टकटकी बाँधे देखने लगे।

माँसाहब कहते हैंकोई गाना सुनाओ। कोई पुराना गीत तुम्हें तो कितने ही याद होंगे।

माँ धीरे से बोली - मैं क्या गाऊँगी बेटा। मैंने कब गाया है?

वाहमाँ! मेहमान का कहा भी कोई टालता है?

साहब ने इतना रीझ से कहा हैनहीं गाओगीतो साहब बुरा मानेंगे।

मैं क्या गाऊँबेटा। मुझे क्या आता है?

वाह! कोई बढ़िया टप्पे सुना दो। दो पत्तर अनाराँ दे ...

देसी अफसर और उनकी स्त्रियों ने इस सुझाव पर तालियाँ पीटी। माँ कभी दीन दृष्टि से बेटे के चेहरे को देखतींकभी पास खड़ी बहू के चेहरे को।

इतने में बेटे ने गंभीर आदेश-भरे लिहाज में कहा - माँ!

इसके बाद हाँ या ना सवाल ही न उठता था। माँ बैठ गईं और क्षीणदुर्बललरजती आवाज में एक पुराना विवाह का गीत गाने लगीं -

हरिया नी माएहरिया नी भैणे

हरिया ते भागी भरिया है!

देसी स्त्रियाँ खिलखिला के हँस उठीं। तीन पंक्तियाँ गा के माँ चुप हो गईं।

बरामदा तालियों से गूँज उठा। साहब तालियाँ पीटना बंद ही न करते थे। शामनाथ की खीज प्रसन्नता और गर्व में बदल उठी थी। माँ ने पार्टी में नया रंग भर दिया था।

तालियाँ थमने पर साहब बोले - पंजाब के गाँवों की दस्तकारी क्या है?

शामनाथ खुशी में झूम रहे थे। बोले - ओबहुत कुछ - साहब! मैं आपको एक सेट उन चीजों का भेंट करूँगा। आप उन्हें देख कर खुश होंगे।

मगर साहब ने सिर हिला कर अंग्रेजी में फिर पूछा - नहींमैं दुकानों की चीज नहीं माँगता। पंजाबियों के घरों में क्या बनता हैऔरतें खुद क्या बनाती हैं?

शामनाथ कुछ सोचते हुए बोले - लड़कियाँ गुड़ियाँ बनाती हैंऔर फुलकारियाँ बनाती हैं।

फुलकारी क्या?

शामनाथ फुलकारी का मतलब समझाने की असफल चेष्टा करने के बाद माँ को बोले - क्योंमाँकोई पुरानी फुलकारी घर में हैं?

माँ चुपचाप अंदर गईं और अपनी पुरानी फुलकारी उठा लाईं।

साहब बड़ी रुचि से फुलकारी देखने लगे। पुरानी फुलकारी थीजगह-जगह से उसके तागे टूट रहे थे और कपड़ा फटने लगा था। साहब की रुचि को देख कर शामनाथ बोले - यह फटी हुई हैसाहबमैं आपको नई बनवा दूँगा। माँ बना देंगी। क्योंमाँ साहब को फुलकारी बहुत पसंद हैंइन्हें ऐसी ही एक फुलकारी बना दोगी न?

माँ चुप रहीं। फिर डरते-डरते धीरे से बोलीं - अब मेरी नजर कहाँ हैबेटा! बूढ़ी आँखें क्या देखेंगी?

मगर माँ का वाक्य बीच में ही तोड़ते हुए शामनाथ साहब को बोले - वह जरूर बना देंगी। आप उसे देख कर खुश होंगे।

साहब ने सिर हिलायाधन्यवाद किया और हल्के-हल्के झूमते हुए खाने की मेज की ओर बढ़ गए। बाकी मेहमान भी उनके पीछे-पीछे हो लिए।

जब मेहमान बैठ गए और माँ पर से सबकी आँखें हट गईंतो माँ धीरे से कुर्सी पर से उठींऔर सबसे नजरें बचाती हुई अपनी कोठरी में चली गईं।

मगर कोठरी में बैठने की देर थी कि आँखों में छल-छल आँसू बहने लगे। वह दुपट्टे से बार-बार उन्हें पोंछतींपर वह बार-बार उमड़ आतेजैसे बरसों का बाँध तोड़ कर उमड़ आए हों। माँ ने बहुतेरा दिल को समझायाहाथ जोड़ेभगवान का नाम लियाबेटे के चिरायु होने की प्रार्थना कीबार-बार आँखें बंद कींमगर आँसू बरसात के पानी की तरह जैसे थमने में ही न आते थे।

आधी रात का वक्त होगा। मेहमान खाना खा कर एक-एक करके जा चुके थे। माँ दीवार से सट कर बैठी आँखें फाड़े दीवार को देखे जा रही थीं। घर के वातावरण में तनाव ढीला पड़ चुका था। मुहल्ले की निस्तब्धता शामनाथ के घर भी छा चुकी थीकेवल रसोई में प्लेटों के खनकने की आवाज आ रही थी। तभी सहसा माँ की कोठरी का दरवाजा जोर से खटकने लगा।

माँदरवाजा खोलो।

माँ का दिल बैठ गया। हड़बड़ा कर उठ बैठीं। क्या मुझसे फिर कोई भूल हो गईमाँ कितनी देर से अपने आपको कोस रही थीं कि क्यों उन्हें नींद आ गईक्यों वह ऊँघने लगीं। क्या बेटे ने अभी तक क्षमा नहीं कियामाँ उठीं और काँपते हाथों से दरवाजा खोल दिया।

दरवाजे खुलते ही शामनाथ झूमते हुए आगे बढ़ आए और माँ को आलिंगन में भर लिया।

ओ अम्मी! तुमने तो आज रंग ला दिया! ...साहब तुमसे इतना खुश हुआ कि क्या कहूँ। ओ अम्मी! अम्मी!

माँ की छोटी-सी काया सिमट कर बेटे के आलिंगन में छिप गई। माँ की आँखों में फिर आँसू आ गए। उन्हें पोंछती हुई धीरे से बोली - बेटातुम मुझे हरिद्वार भेज दो। मैं कब से कह रही हूँ।

शामनाथ का झूमना सहसा बंद हो गया और उनकी पेशानी पर फिर तनाव के बल पड़ने लगे। उनकी बाँहें माँ के शरीर पर से हट आईं।

क्या कहामाँयह कौन-सा राग तुमने फिर छेड़ दिया?

शामनाथ का क्रोध बढ़ने लगा थाबोलते गए - तुम मुझे बदनाम करना चाहती होताकि दुनिया कहे कि बेटा माँ को अपने पास नहीं रख सकता।

नहीं बेटाअब तुम अपनी बहू के साथ जैसा मन चाहे रहो। मैंने अपना खा-पहन लिया। अब यहाँ क्या करूँगी। जो थोड़े दिन जिंदगानी के बाकी हैंभगवान का नाम लूँगी। तुम मुझे हरिद्वार भेज दो!

तुम चली जाओगीतो फुलकारी कौन बनाएगासाहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है।

मेरी आँखें अब नहीं हैंबेटाजो फुलकारी बना सकूँ। तुम कहीं और से बनवा लो। बनी-बनाई ले लो।

माँतुम मुझे धोखा देके यूँ चली जाओगीमेरा बनता काम बिगाड़ोगीजानती नहीसाहब खुश होगातो मुझे तरक्की मिलेगी!

माँ चुप हो गईं। फिर बेटे के मुँह की ओर देखती हुई बोली - क्या तेरी तरक्की होगीक्या साहब तेरी तरक्की कर देगाक्या उसने कुछ कहा है?

कहा नहींमगर देखती नहींकितना खुश गया है। कहता थाजब तेरी माँ फुलकारी बनाना शुरू करेंगीतो मैं देखने आऊँगा कि कैसे बनाती हैं। जो साहब खुश हो गयातो मुझे इससे बड़ी नौकरी भी मिल सकती हैमैं बड़ा अफसर बन सकता हूँ।

माँ के चेहरे का रंग बदलने लगाधीरे-धीरे उनका झुर्रियों-भरा मुँह खिलने लगाआँखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी।

तो तेरी तरक्की होगी बेटा?

तरक्की यूँ ही हो जाएगीसाहब को खुश रखूँगातो कुछ करेगावरना उसकी खिदमत करनेवाले और थोड़े हैं?

तो मैं बना दूँगीबेटाजैसे बन पड़ेगाबना दूँगी।
और माँ दिल ही दिल में फिर बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कामनाएँ करने लगीं और मिस्टर शामनाथअब सो जाओमाँकहते हुएतनिक लड़खड़ाते हुए अपने कमरे की ओर घूम गए।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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