प्रेमाश्रयी शाखा — विशेषताएँ, प्रवृत्तियाँ, कवि एवं रचनाएँ
प्रेमाश्रयी सन्त काव्य वह साहित्यिक प्रवृत्ति है जिसमें प्रेम—दैवी, मानविक या राधा‑कृष्णीय रूपों में—काव्य का मूल भाव बनता है। यह शाखा प्रेम की अनुभूति, भक्तिमय समर्पण और आध्यात्मिक माधुर्य का सूक्ष्म चित्रण प्रस्तुत करती है।
प्रेमाश्रयी काव्य में प्रेम कभी केवल रस नहीं रहता; वह मोक्ष‑विचार, भक्तिपथ और नैतिक सुसंस्कारों का माध्यम भी बन जाता है।
विशेषताएँ
- माधुर्य और भाव‑प्रधानता: शब्दों में मीठास, संवादों में स्नेह और लय में प्रेम‑उत्सव।
- राधा‑कृष्णीय प्रतिमान: कई रचनाओं में दैवीय प्रेम के प्रतीक रूपों का प्रयोग दिखता है।
- लोकभाषा का प्रयोग: सरल भाषा, गीतात्मक दोहे और लोकधुनों का समावेश।
- भावनात्मक गम्भीरता: प्रेम‑पीड़ा, विरह, मिलन और आत्म‑समर्पण की संवेदना प्रमुख।
- आध्यात्मिक उपदेश: प्रेम को साधना का मार्ग दर्शाया जाता है — प्रेम से मनोविकास और ईश्वर-साक्षात्कार।
प्रवृत्तियाँ और रूप
- भजन और कीर्तन: प्रेम‑आधारित भक्ति गीतों का समृद्ध परम्परा।
- गीत-रूप: लघु‑गीत, बारहमासी दोहे व श्लोक जो सहज स्मरणीय हों।
- गीतों में संगीतता: काव्य आज भी मौखिक‑संगीतानुभव के रूप में जीवित है।
- सांस्कृतिक मिश्रण: स्थानीय लोकपरम्पराएँ और शहरी साहित्य का संगम।
प्रमुख कवि और रचनाएँ
- मीराबाई: प्रेम‑भक्ति के प्रतीक, रचनाएँ—साँझी भजन और गीत।
- रसखान: राधा‑कृष्ण के नाट्य और लयबद्ध पद।
- कबीर (कुछ प्रेमप्रधान दोहे): प्रेम की मानवता और ईश्वर‑प्रेम पर केन्द्रित दोहे।
- बांके बिहारी आश्रित लोक‑गीत: वृंदावनी प्रेम‑परंपरा की लोकधुनें।
- आधुनिक कवि: प्रेमाश्रयी सोच का समकालीन कवियों द्वारा नवीन रूपांतरण—गीतात्मक छोटी कविताएँ व मुक्तछंद।
सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव
प्रेमाश्रयी सन्त‑काव्य ने समाज में प्रेम‑संदेश, संवेदनशीलता और सहिष्णुता को बढ़ावा दिया। भजन‑काव्य और लोकगीतों के माध्यम से यह परंपरा सामूहिक संस्कृति और उत्सवों का अंग बन चुकी है।
प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्य)
विशेषताएँ
- सूफी काव्य में लौकिक प्रेम कहानियों के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना है। आचार्य शुक्ल जी ने इसीलिए इसे प्रेमाश्रयी शाखा नाम दिया।
- सूफी काव्य में प्रेम तत्व का निरूपण किया गया है, प्रेम कथानकों के माध्यम से परमात्मा एवं जीव का तादात्म्य स्थापित किया गया है।
- सूफी काव्य प्रबन्ध काव्य की कोटि में आता है। समस्त काव्यों की क्रम योजना समान है—मंगलाचरण से प्रारम्भ होकर कथानकों का दुखमय अन्त इसकी पहचान है। कुछ प्रेमकथानक सुखान्त भी हैं।
- बारहमासा वर्णन, नायक–प्रतिनायक की उपस्थिति, प्रेम के विरह पक्ष का अतिरंजित वर्णन, भोग-विलास से युक्त मिलन का अश्लील वर्णन, काव्य-रूढ़ियों का प्रचुर प्रयोग—ये सभी सूफी काव्य की पहचान हैं।
- इस काव्य में हिन्दू प्रेमगाथाओँ, रीति-रिवाजों,रूढ़ियों का सजग चित्रण हुआ है जिससे भारतीय लोक संस्कृति साकार हो उठा है। इतिहास एवं कल्पना का सुन्दर समन्वय एवं कल्पना के माध्यम से नवीन पात्रों एवं घटनाओं की उद्भावना की गयी है
- सूफी काव्यधारा भी मिश्रित मिथकों एवं कल्पनाओं के चलते रहस्यवादी बन पड़ा है। भावात्मक रहस्यवाद की सरसता हो या हठयोगियों का साधनात्मक रहस्यवाद, सब इस काव्य में विद्यमान हैं। उपनिषदों का प्रतिविम्बवाद तथा अद्वैतवाद का प्रभाव भी इस काव्यधारा में विद्यमान है।
- सूफी काव्यधारा पर चार प्रभाव विशेष रूप से पड़े हैं (1) आर्यों का अद्वैतवाद तथा विशिष्टाद्वैतवाद,(2) इस्लाम का गुह्यविद्या, (3) नव अफलातूनी, (4) विचारस्वातंत्र्य
- सूफी कवियों की रचनाओं में प्रकृति-चित्रण उद्दीपन के रूप में हुआ है। षड्ऋतु वर्णन,बारहमासा वर्णन इत्यादि के बाद भी प्रकृति का आलम्बन रूप देखने को नहीं मिलता है
- सूफी काव्यप्रबन्ध शैली में दोहा,चौपाई छन्दों के अतिरिक्त मुक्तक शैली, झूलना तथा कुण्डलियों का भी प्रयोग मिलता है।
- सूफी कवियों की प्रेमाख्यानक काव्य में श्रृंगार रस की प्रमुखता है। भाषा प्रायः अवधी ही है, चूँकि जायसी जी अवध क्षेत्र के ही थे इसलिए मुख्य भाषा के रूप में अवधी ही है
- सूफी काव्यधारा के अधिकांश कवि मुसलमान हैं इसलिए सम्पूर्ण साहित्य पर फारसी शैली का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है
- अन्ततः कहा जा सकता है कि अरबी-फारसी शैली केे माध्यम से,अवधी भाषा में, भारतीय लोककथाओं, प्रेमाख्यानक प्रसङ्गों को चुनकर उसमें आध्यात्मिकता का पुट देकर प्रबन्धकाव्य के माध्यम से रहस्यवाद,इतिहास,कल्पनाओं के मिश्रण से प्रेम को प्रतिपाद्य विषय बनाते हुए सूफी काव्यधारा हिन्दीसाहित्याकाश में अपना स्थान बनाता है
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प्रेमाश्रयी काव्य की प्रवृत्तियाँ
© प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्य) – Paramhans Pathshala
