अभिज्ञानशाकुन्तल का नामकरण

 

अभिज्ञानशाकुन्तल का नामकरण

अभिज्ञानशकुन्तल इस नामकरण के औचित्य जानने के पहले इस नाम के अर्थ को जानना आवश्यक है। भिपूर्वक ज्ञा धातु से ल्युट प्रत्यय करके अभिज्ञान शब्द व्युत्पन्न हुआ है। अब प्रश्न होता हैं कि प्रकृत अभिज्ञान शब्द में ल्युट्प्रत्यय किस अर्थ में हुआ है ? भाव के अर्थ में ? अथवा करण के अर्थ में यदि भाव के अर्थ में ल्यूटप्रत्यय माना जाय तो अर्थ होगा, अभिज्ञायते यत् तत् अभिज्ञानम् । अभिज्ञानञ्च तत् शाकुन्तलम्, अभिज्ञान शाकुन्तलम् । यहाँ पर मयूरव्यंसकादित्वात् समास समझना चाहिए। इस तरह अभिज्ञान शाकुन्तल का अर्थ हुआ शकुन्तला की पहचान । अभेदोपचार के कारण नाटक भी अभिज्ञान शाकुन्तलम् कहलाता है । अथवा अभिज्ञान शाकुन्तलम् यत्र तत् अभिज्ञान शाकुन्तलम् बह नाटक का नामार्थ है।

अर्थात् वह नाटक जिसमें शकुन्तलम् पहचानी जाती है। यह नाटक का नामार्थ विवेचन हुआ।

इस नामकरण का कारण यह है कि राजा दुष्यन्त जब ऋषियों के यज्ञ की रक्षा के पश्चात् अन्तर्वत्नी शकुन्तला को कण्वाश्रम में ही छोड़कर अपनी राजधानी जाने लगा, उस समय वह पहचान के लिए अपने नाम से अंकित एक अंगूठी, यह कर कर देता गया कि हमारे मंत्री शीघ्र ही आकर तुम्हें यहीं से ससम्मान ले जायेंगे । दुष्यन्त को गए कुछ दिन बीतने लगे और शकुन्तला दुष्यन्त की ही याद में रात दिन खोयी-खोयी सी रहने लगी। यहाँ तक कि वह आतिथ्य के लिए पधारे म पि दुर्वासा की 'अयमहं भो: ?' यह आवाज भी नहीं सुन सकी। और उसकी उस अनवधानता को अपना अपमान समझकर महर्षि ---'विचिन्तयन्ती यमनन्य मानसा, तपोनिधि वेरिस न मामुपस्थितम् । स्मरिष्यति त्वां न स बोधितोऽपि सन्,

कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव।'

यह शाप देकर उल्टे पाव लौट जाते हैं । किन्तु प्रियम्बदा की प्रार्थना से इतना मात्र वरदान देते हैं कि .... 'आभरणाभिज्ञानदर्शनेन अस्याः शापो नितिष्यति ।'

प्रवास से लोटे महर्षि कण्व अपनी अग्निशाला में जाकर अशरीरिणी छन्दोमयी-

'दुष्यन्तेनाहितं तेजो दधानां भूतये भुवः ।

अवेहि तनयां ब्रह्मन्नग्निगर्भा शमीमिव ।।'

इस वाणी को सुनकर अपने शाङ्गरव एवं शारद्वतनामक दो शिष्यों तथा गौतमी नामक अपनी धर्मभगिनी के साथ शकुन्तला को दुष्यन्त के पास भेज देते हैं । किन्तु दुष्यन्त महर्षि दुर्वासा के शाप से ग्रस्त होने के कारण शकुन्तला को पहचानते ही नहीं हैं। शकुन्तला अपनी पहचान के लिए दुष्यन्त को वह अंगूठी दिखाना चाहती है, किन्तु वह अंगूठी तो शक्रावतार में शचीतीर्थ पर बन्दना करते समय जल में पहले ही गिर चुकी थी। शकुन्तला, अपनी अंगुली अंगूठी से रहित देखकर अपनी पहचान देने में पूर्ण असमर्थ हो जाती है। दुर्वासा के शाप से ग्रस्त राजा भी शकुन्तला का प्रत्याख्यान कर देता है।

दुष्यन्त के द्वारा प्रत्याख्यात शकुन्तला रोती हुई ज्यों हि राजमहल से बाहर आती है, त्योंहि मेनका उसे वहाँ से उठा ले जाती हैं, और उसको मारीचाश्रम में रख देती है।

- इधर एक दिन कुछ राजकर्मचारी एक धीवर के पास से राजा के नाम से अंकित एक अंगूठी बरामद करते हैं और उस धीवर को चोर समझते हैं। उस अंगूठी को लेकर राजश्यालक राजा दुष्यन्त के पास जाता है। उस अंगूठी को देखकर राजा को अपनी पूर्व परिणीता पत्नी शकुन्त ना की याद आ जाती है। राजा अपने पूर्वकृत्यों को सोचकर अत्यन्त दुःखी होता है । यह तक कि वह शकुन्तला को याद में पागल सा हो जाता है।

अपने नाम से अंकित अंगूठी को देखकर राजा दुष्यन्त को जो अपनी पूर्व परिणीता पत्नी शकुन्तला की याद आ जाती है, वह घटना ही इस नाटक की प्रमुख घटना है। इस घटना को ही दृष्टि पथ में रखकर नाटक का नाम अभिज्ञान शाकुन्तल रखा गया है। इस तरह यह नाटक नाम अन्वर्थक नाम है। मारीच आश्रम में जो राजा दुष्यन्त शकुन्तला को पहचानता है, वह अभिज्ञान नहीं प्रत्यभिज्ञान है।

अतएव अंगूठी के द्वारा छठे अंक में राजा को अपनी पत्नी शकुन्तला की पहचान होती है वहीं अभिज्ञान है । वही घटना इस नामकरण का कारण है।

 

अभिज्ञान शाकुन्तलमिति नामकरण विचारः

प्रकृतस्य नाटकस्य नाम अभिज्ञान शाकुन्तलम् वर्तते, अस्य नामकरणस्य किम् कारणमास्ते? नामेदन्मवयं संज्ञकमतान्यथा? इत्यादिका: विचाराः बत्र प्रकान्ताः सन्ति । तदिदमत्र विचार्यते। सर्वप्रथमम् अभिज्ञान शाकुन्तलमितिशब्दस्यार्थः कः इति विचार्यते तदनन्तरमस्थः नामकरणस्य कारणं विचारयिष्यते । तथाहि-शकुन्तलायाः इदम् इत्यस्मिन्नर्थ 'तस्येदम्' सूत्रेणाणिकृते शाकुन्तलमिति पदम् व्युत्पद्यते । अभिज्ञायतेयत् तत् इत्यस्मिन्नर्थे अभिपूर्वकात् ज्ञाधातो: भावे स्युटि च. अभिज्ञानमिति पदम् व्युत्पद्यते। अभिज्ञानञ्च तत् शाकुन्ताच इति अभिज्ञान शाकुन्तल पदस्थ विग्रहः । अत्र मयूरध्यसकादित्वात् समासोबोटय: । शकुन्तलाया अभिज्ञानम् इति नाम्नोऽस्यार्थः ।

अस्य नामकरणस्य कारणं किमस्ति इति कारणान्वेषणेतु कुलपतेः कण्वस्यानुपस्थितौ महर्षीणाम् यज्ञरक्षार्थम् कण्वाश्रमे समागतो राजा अद्वितीय सुन्दरीम् शकुन्तलाम् गान्धर्वण विधिनोपयेमे । पुनः यज्ञ समाप्तौं अन्तर्वत्नी शकुन्तलाम् कण्वाश्रम एव विहाय स्वराजधानी प्रति गच्छन् राजा एकम् एव नामाङ्कितमङ्गलीयकम् अभिज्ञानाय तस्यै दत्त्वा प्राह-शीघ्रमेव मम कर्मचारिण अत्रागत्य त्वाम् मम राजधानी नेष्यन्तीति । दुष्यन्तात् विप्रयुक्ता शकुन्तला शन्यहृदयेव संजाता। एतस्मिन्नेवकाले महर्षिः दुर्वासाः कण्वाश्रमे आतिथ्याय समागतः प्राह-अयमहं भोः इति । किन्तु दुष्यन्तात् विप्रयुक्ता सततं तमेकं संस्मरन्ती शून्य हृदया शकुन्तला तां वाणी नहि अश्रोषीत् । महर्षिश्च तस्याः तामनवधानताम् स्वापमानम् ज्ञात्वा-'विचिन्तयन्ती यमनन्य मानसा, तपोनिधि वेत्सि न मामुपस्थितम् ।

स्मरिष्यति न प्रतिबोधितोऽपि सन् कथा प्रमत्तः प्रथमं कृत्तामिव ।'इति शप्त्वा प्रतिनिवृत्तः सन् प्रियम्वदयाप्रार्थित: 'आभरण दर्शनेन अस्या: शापो निवत्तिष्यतीति वरदानेनानुग्रा ह्यान्तरितो बभूव ।

प्रवासात् प्रति निवृत्तो महर्षिः कण्वः, स्वकीयेऽग्निशाले प्रविश्य-'दुष्यन्तेनाहितं तेजोदधानां भूतये भुवः ।अवेहि तनयां ब्रह्मन् अग्निगर्भाम् शमीमिव ।'इति छन्दोमयी वाणीं श्रुत्वा ज्ञात्वा च सकलं वृत्तान्तम् शकुन्तलाम्, गौतमी-शाङ्गरवशारद्वतः साकम् दुष्यन्तस्य सविधे प्रेषयामास । किन्तु महर्षेः दुर्वाससः शापाद् यस्तो राजा स्वपूर्वमूढामपि पत्नी शकुन्तलाम् नहि परिचिनोतिस्म । आत्मानं परिचाययितुम् शकुन्तला तदङ्ग रीयकम् दर्शीयतुमियेष। किन्तु मार्गे शकावतारे शचीतीर्थवन्दनावसर एव तदङ्ग रीयकम् जले निपतितमासीत् । अतएव तस्याः अलि: अङ्ग रीयकेण विरहितमासीत् । तत् दृष्ट्वा भाग्यं क्रोशन्ती विमप्य विज्ञानं

दातुमक्षमा स्वात्मपरिचयप्रदानेऽक्षमा बभूव ।

 

राजा दुष्यन्तेन प्रत्याख्याता शकुन्तला यदा राजभवनानिसृता बभूव तदैव तामङ्क आदाय तस्याः माता मेनका अदृश्यावभूव, स्थापितवती च ताम् मारीचा श्रमे । तत्रैव शकुन्तला सर्वदमनाख्यं सुतं सुषुवे एकदा राज्ञः कर्मचारिणः कस्यचिद् धीवरस्य पार्वतः राज्ञो नामाङ्कितमङ्गरीयकं लब्ध्वा तं चौरं मत्त्वा ताडिवन्तः । राज्ञः श्यालक: अङ्गुरीयकमादाय राज्ञः सविधे जगाम । तदङ्ग रीयकं दृष्ट्वैव राजा पूर्वपरिणीतां स्वप्रेयसी शकुन्तलाम्, स्वेन कृतम् तस्याः प्रत्याख्यानं च संस्मृत्य, अतीव दुःखितो बभूव । शकुन्तलायाः विरह जन्यं दुःखमनुभूय राजा विक्षिप्ततामगमत् । यस्मात् कारणात् राजा अङ्ग रीयकरूपम् तदभिज्ञानमवलोक्य स्वेन पूर्वमूढाम् धर्मपत्नी शकुन्तलाम् सस्मार तस्मादेव

कारणादस्य नाटकस्य नामधिज्ञान शाकुन्तलम् कृतम् कविना।मारीचाश्रमे यत् शकुन्तलामवेक्ष्य राजा तां प्रत्यभिजज्ञे तत्तु प्रत्यभिज्ञानमासीनतु अभिज्ञानम् । शकुन्तलाया अभिज्ञानमेवास्य नाटकस्य प्रमुख घटना वर्तते । अतएवेमां घटनामाश्रित्य नाटकस्यास्य नामकरणम् चितमाभातीतिशम् ।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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