19. सेनापति — अश्वत्थामा

दुर्योधन के आसपास ही उसके शेष महारथी भी छिपे हुए थे। कृपाचार्य,कृतवर्मा,अश्वत्थामा। वे सब इस ताक में थे कि द्वन्द्व युद्ध में अन्य भी हस्तक्षेप करें तो हम लोग भी दुर्योधन की सहायता करेंगे। पाण्डवों के चले जाने पर दुर्योधन के पास वे लोग आये। अपने राजा की दुर्दशा देखकर द्रोणी ने कहा-मित्र, अब हमारे लिए क्या आदेश है ? हम आपकी कौन सी अधूरी इच्छा पूरी कर सकते हैं? दुर्योधन ने अपने रक्त का टीका लगाकर द्रोणी को सेनापति नियुक्त किया और कराहते हुए कहा कि हे मित्र अश्वत्थामा ! तुम मेरे लिए पापी पाण्डवों का मस्तक काटकर ले आना, यही मेरी तुमसे अन्तिम प्रार्थना है। 'जो आज्ञा' कहकर वे तीनों दुर्योधन को छोड़कर अन्धकार में कहीं चले गये।

दिन भर थके तीनों भट एक शाल्मली वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। कृतवर्मा और कृपाचार्य सो गये किन्तु द्रोणी को नींद नहीं आई। वह अतीत की घटनाओं को स्मरण कर उसमें खोया रहा। इतने में एक निशाचर पक्षी ने आकर उस वृक्ष पर निवास करने वाले शकुनी- समूह को निष्प्राण कर नीचे गिराना प्रारम्भ किया। कुछ देर तक द्रोणी का ध्यान इधर नहीं गया। किन्तु, पक्षियों के समूह को देखकर उसका ध्यान टूटा। वह विचार करने लगा कि जिस तरह से इसने अकेले ही इतने पक्षियों को मार गिराया, वैसे ही हम लोग भी विजयोल्लास में डूबी पाण्डवों की सेना को सोते ही मौत के घाट सहज ही उतार सकते हैं। उसने अपने विचार से कृपाचार्य और कृतवर्मा को जगाकर अवगत कराया। कृपाचार्य ने उसके कुत्सित विचारों की भर्त्सना की। द्रोणी तुम अपराजेय योद्धा हो, इससे तुम्हारी अपकीर्ति होगी। तुम्हें ऐसा सोचना नहीं चाहिए। द्रोणी ने अमर्ष भरे शब्दों में कहा कि जिन दुष्टों ने निरपराध मेरे पिता की ऐसी निर्मम हत्या की, उन्हें किसी प्रकार मौत के घाट उतारना ही एकमात्र मेरे जीवन का उद्देश्य है। जाइये, आप दोनों अपनी कीर्ति-पताका फहराइये। इस पर विलखते हुए कृपाचार्य ने कहा-तुम ही कृपी के एकमात्र सन्तान हो, हम तुम्हें कैसे अकेले छोड़ सकते हैं ? तुम्हारे पाप कर्म में भी हम तुम्हें छोड़ नहीं सकते। यह कहकर तीनों ही पाञ्चाल सेना की शिविर में पहुँचे। थकी माँदी सेना बेखबर सो रही थी। सर्वप्रथम तीनों ने चुपचाप पहरेदारों की हत्या कर दी। इसके बाद द्रोणी ने धृष्टद्युम्न, शिखण्डी,द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को पाण्डु-पुत्र समझकर मार डाला। इस प्रकार निर्भय होकर सभी ने सम्पूर्ण पाण्डवी सेना का संहार कर दिया। इससे पूर्व ही द्रौपदी सहित सात्यकी एवं पाँचो पाण्डवों को लेकर श्रीकृष्ण कहीं अन्यत्र चले गये थे। अपना काम समाप्त करने के बाद वे तीनों दुर्योधन के पास गये, तब तक वह मर चुका था।

दूसरे दिन द्रौपदी ने देखा कि सम्पूर्ण पाञ्चाल-सेना मृत्यु की नींद सो गयी है तो उसे अपार कष्ट हुआ। गुप्तचरों द्वारा यह जानकर कि पापी द्रोणी ने यह दुष्कृत्य किया है तो उसे ढूँढ़ने पाण्डव निकल पड़े। गुप्तचरों ने सूचना दी कि तीनों तीन दिशा में चले गये। कृपाचार्य हस्तिनापुर की ओर, कृतवर्मा द्वारका तथा द्रोणी व्यास के आश्रम की ओर जाते देखे गये। व्यासजी ने द्रोणी को तिरस्कृत किया और कहा कि इस कृत्य से तुम कभी चैन नहीं प्राप्त कर सकोगे। यह वार्ता हो ही रही थी कि उसे पाण्डवों सहित श्रीकृष्ण आते दिखाई पड़े। उन्हें अपनी ओर आता देखकर द्रोणी ने छिपने का प्रयास किया, किन्तु अपने प्राण-संकट को देखकर उसने ब्रह्मास्त्र का संधान कर दिया। श्रीकृष्ण के संकेत पर अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चलाया। दोनों ही प्रलयंकर दिव्यास्त्रों को देखकर व्यास जी ने उन्हें रोका और दोनों ही धनुर्धारियों को इन्हें वापस बुलाने का आदेश दिया। अर्जुन ने जो आज्ञा कहकर ब्रह्मास्त्र को वापस बुला लिया। द्रोणी ने कहा भगवन्! मैं इसे वापस नहीं कर सकता। इस पर व्यास ने कहा कि मूर्ख ! तब इसका संधान क्यों किया ? अच्छा इसका दिशा ही बदलो। व्यास जी की आज्ञा मानकर द्रोणी ने उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिए ब्रह्मास्त्र को प्रेरित किया। तत्काल ही माधव ने चक्रसुदर्शन को आदेश दिया कि तुम जाकर उत्तरा के गर्भ की रक्षा करो। भीम और अर्जुन ने क्रोध में आकर द्रोणी की हत्या करना चाहा, किन्तु श्रीकृष्ण का संकेत पाकर वे रुक गये। कृष्ण ने कहा- 'यह अपने नियति के अनुसार जीवन और मृत्यु के बीच दोलायमान होकर जीवनयापन करेगा। इसकी दिव्य मणि को इसके मस्तक से निकाल लो।' इस पर द्रोणी ने अपने हाथ से ही दिव्य मणि को निकाल कर भीम के हाथ पर रख दिया। इसे लेकर वे सभी द्रौपदी के पास लौट आये।

महाभारत के इस दुःखद अवसान पर श्रीकृष्ण ने पाण्डवों सहित द्रौपदी को ढाढ़स बंधाया। माधव ने कहा मनुष्य नियति के हाथ की कठपुतली मात्र है। नियति जैसे चाहे उसे नचाती रहती है। मैंने तो इसे टालने का अन्तिम समय तक प्रयास किया, किन्तु नियति के मारे दुर्योधन, शकुनी, कर्णादि नहीं माने। इसमें किसी का दोष नहीं है। दुष्टों के सामने अच्छी बात एवं अच्छे लोगों का सुझाव काम नहीं आता। सम्प्रति आगे का कर्तव्य सम्पादन करना ही उचित है।

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