18 सेनापति — अंगराज कर्ण

आचार्य द्रोण के मारे जाने पर महारथी कर्ण को सेनापति चुना गया। कर्ण ने कहा कि — “मुझे यदि श्रीकृष्ण जैसा सारथी उपलब्ध करा दिया जाय तो मैं अर्जुन को सहज ही मार सकता हूँ।” इस समय सारथी के रूप में मद्र नरेश शल्य ही ऐसे एकमात्र सारथी हो सकते हैं, जो श्रीकृष्ण की बराबरी कर सकें। यह सुनकर दुर्योधन अपने साथ कर्ण को लेकर महाराज शल्य के शिविर तक गये। वे कर्ण को बाहर ही छोड़कर अन्दर पहुँचे। संक्षिप्त चर्चा के पश्चात् दुर्योधन बोला-मामाश्री आप जैसा महान व्यक्ति दुर्लभ है। सामान्यजन तो सम्बन्धी तक ही सीमित होते हैं, किन्तु पाण्डवों के मामा होकर भी आप हमें नकुल और सहदेव से कम नहीं मानते। हम पर आपका बड़ा अनुग्रह है। एक उपकार मेरे ऊपर और कर दें। मेरे लिये आपका यह महान अनुग्रह होगा। कृपया आप वचन दें कि इसे आप अन्यथा नहीं लेंगे। शल्य के आश्वासन पर कर्ण को दुर्योधन ने बुलाया। कर्ण ने आकर शल्य को करबद्ध प्रणाम किया। शल्य से कहा-मामाजी! मैं आपकी कृपा चाहता हूँ। यदि श्रीकृष्ण की भाँति मेरे रथ पर बैठकर मुझे गौरव प्रदान करें, तो मैं निश्चय ही अर्जुन-वध कर सकूँगा। शल्य ने गम्भीर मन से कहा कि मैं दुर्योधन से वचनबद्ध हूँ। कृपया कल की युद्ध-रचना के बाद मुझे आदेशित करें मैं समय पर उपस्थित हो जाऊँगा।

दूसरे दिन कर्ण व्यूह रचना करके मन में अत्यन्त हर्षित हुआ। ब्राह्म मुहूर्त में सन्ध्यादिक करके कर्ण अपने रथ को शस्त्रास्त्र से सुसज्जित करते हुए युद्ध वेला से पूर्व ही शल्य की शिविर में उपस्थित हुआ। शल्य ने तब तक तैयारी कर ली थी। कर्ण की पदचाप सुनकर ही वे कर्ण की अगवानी करने उपस्थित हुए। महारथी ! मुझे बुलवा लिया होता, वैसे मैं आ ही रहा था। शल्य की बात सुनकर कर्ण झेंपते हुए बोला- नहीं मामाजी, मैं स्वयं ही समय से पहले तैयार होकर प्रतीक्षा नहीं कर सका। आप मुझे अपने स्नेह और अनुभव से लाभान्वित करते रहियेगा। शल्य ने कहा कि सारथी का काम तो इतना ही है कि अपने महारथी के प्राणों की रक्षा करना, बाकी तो युद्ध आप ही को करना होगा। मैं भला 'सव्यसांची' के दिव्यास्त्रों से आपको कैसे सुरक्षित कर सकूँगा-यह तो विधाता ही जाने। आगे हरि कृपा। दोनों ही यथा स्थान रथारूढ़ होकर युद्ध भूमि को प्रस्थान करते हैं। आज कर्ण कुछ ज्यादा ही उत्साहित दीख रहा था। उसने सारथी से कहा- मद्र नरेश! मेरा रथ शीघ्रतापूर्वक कपिध्वज श्रीकृष्ण के सामने ले चलें। मैं भी जरा देखूँ कि अर्जुन की रक्षा माधव अब कैसे करते हैं? मेरे पास भी उन जैसा सारथी मिल गया है।

आज अंगराज कर्ण ने पितामह जैसे ही नियमों का प्राविधान करके युद्ध-भूमि में विचरण करना प्रारम्भ किया। अपने-अपने स्तर के योद्धाओं से ही द्वन्द्व युद्ध शुरू हुआ। कर्ण अपने चिर प्रतिद्वन्द्वी की तलाश में आँखें बिछाये रहा। इधर श्रीकृष्ण की नीति दूसरी थी। वे अर्जुन का सामना कर्ण से नहीं कराना चाहते थे। कर्ण का सबसे पहले सामना सहदेव से हुआ। कर्ण उससे नहीं लड़ना चाहते हुए भी लड़ा। सहदेव ने अपनी सामर्थ्यवश कर्ण का मुकाबला किया, किन्तु कर्ण अभेद्य चट्टान की तरह सामने खड़ा हो गया। अंगराज ने रक्षात्मक युद्ध ही किया, किन्तु अधिक देर होने से तीव्र वाण वृष्टि कर सहदेव को विक्षत कर दिया। वह चाहता तो आज माद्रीनन्दन का काम ही तमाम कर देता। उसे कुन्ती माता को दिया वचन याद आ गया। उसने हँसकर कहा मेरे साथ युद्ध करना बालकों का काम नहीं है। जाओ अपने उम्र के लड़कों से युद्ध करो। इस प्रकार सहदेव को प्राणदान देता हुआ कर्ण आगे बढ़ गया। इतने में अंगराज का मार्ग रोकने के लिए नकुल आगे बढ़ा। कर्ण के साथ उसने पराक्रमपूर्वक युद्ध किया, किन्तु थोड़े ही समय में परास्त हो गया। नकुल को भी बालक समझकर कर्ण ने छोड़ दिया।

इसके बाद भीमसेन ने आगे बढ़कर कर्ण से भयंकर युद्ध किया। पहले तो भीम ने एक-एक करके आठ रथों को तहसनहस कर दिया। कर्ण को क्रोध आ गया उसने वाण वर्षा कर भीम को घायल कर दिया। भीम के सारे आयुध समाप्त हो गये तो अपनी गदा ले पैदल ही कर्ण पर टूट पड़ा। कर्ण ने भी गदा लेकर भीम पर टूटते हुए जोर का हमला किया। भीम अत्यन्त थक चुके थे। उनके शरीर से रक्त के फौव्वारे निकल रहे थे, किन्तु कर्ण ने उसका उपहास करके जीवनदान दिया। कर्ण ने कहा- जाओ भोजनभट्ट ! खा-पीकर विश्राम करो, मैं तो तुम्हें वीर मानता ही नहीं। अपने को स्वयं बलवान समझने वाला मूर्ख होता है। इसके बाद वह आगे बढ़ चला। सामने धर्मराज दीख गये।

धर्मराज ने भी पूरी ताकत से कर्ण का मुकाबला किया। दोनों का थोड़ी देर तक भीषण संग्राम चला। युधिष्ठिर को लगा कि आज कर्ण मेरा प्राण लेकर ही छोड़ेगा। इसी समय कुन्ती को दिया वचन याद कर कर्ण ने कहा 'महाराज यह युद्धभूमि है, यहाँ महावीर ही टिक सकते हैं। आप जाइये, महल में जुआ के पाँसे द्वारा मित्रों से खेलिए' और वह हँसता हुआ आगे बढ़ गया। उसकी हँसी धर्मराज को खल गयी। दिन ढल चुका था। इतने में दूर से कपिध्वज फहरता हुआ दिखाई पड़ा। कर्ण ने कहा, सारथी वह देखो अर्जुन आ गया। मुझे उसके सामने ले चलो। जैसी आज्ञा कहकर शल्य ने रथ को सेनापति अंगराज कर्ण अर्जुन के सामने ला खड़ा किया। कर्ण ने माधव को प्रणाम किया। श्रीकृष्ण ने भी मुस्कान सहित कर्ण का स्वागत किया। अर्जुन ने वाणों से ही अभिवादन किया। दोनों महारथियों में घनघोर युद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनों ही दिव्यास्त्रों से लड़ रहे थे। दोनों के वाण कटकर वायुमण्डल को प्रभामय कर रहे थे। श्रीकृष्ण ने कर्ण के रणकौशल की जमकर प्रशंसा की। अर्जुन के रणकौशल का उन्होंने बखान करना उचित न समझा। यह बात गाण्डीवधारी को अप्रिय लगी। अर्जुन ने कहा कि माधव ! कर्ण के वाणों से आहत होकर मात्र तीन कदम ही मेरा रथ पीछे होता है और तुम उसकी इतनी प्रशंसा करते हो और मेरे वाणों से उसका रथ कितना पीछे जाता है यह तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता। श्रीकृष्ण ने कहा अर्जुन ऊपर बजरंगबली स्वयं तुम्हारे रथ को आगे ठेल रहे हैं और त्रिलोकी का भार लिए मैं भी तुम्हारे साथ हूँ, इस पर भी तीन साढ़े तीन कदम रथ का पीछे हटना तुम्हें आश्चर्यचकित नहीं करता ? इतने में कर्ण ने कहा-आज सूर्य ने तुमको बचा लिया। सूर्यास्त के बाद युद्ध विराम हो गया। सभी अपने-अपने शिविर में वापस चले गए।

आज युद्ध का सत्रहवाँ दिवस था। सभी रण-भूमि पर समय से आ डटे। दुर्योधन आज प्रसन्न था। अर्जुन को खुली चुनौती देकर कर्ण ने युद्ध के लिए ललकारा। श्रीकृष्ण ने भी कर्ण के सामने रथ खड़ा कर दिया। पुनः युद्ध प्रारम्भ हुआ। दोनों अतुलनीय योद्धा रणभूमि में अपना पराक्रम दिखाने लगे। एक-दूसरे को वाणों को काटकर धरती और अम्बर को पाट दिया। श्रीकृष्ण ने आज दोनों की सराहना की। कर्ण और अर्जुन सचमुच में आज अग्नि और इन्द्र के समान शोभायमान हो रहे थे। आज भीम ने भी कौरव सेना को मथ डाला। आज दुःशासन को छोड़कर भीम ने सभी गान्धारी पुत्रों को मार डाला। दुर्योधन अत्यन्त दुखी था। धर्मराज भी कल की पराजय से अनमनस्क होकर ही लड़े। सात्यकी ने आज भूरिश्रवा के साथ द्वन्द्व युद्ध करके अपने पराक्रम का परिचय दिया। लड़ते-लड़ते वह थक चुका था। बेहोश होकर गिर पड़ा। ऐसी स्थिति में ही भूरिश्रवा ने खड्ग लेकर सात्यकी का शिर काटने ही वाला था कि श्रीकृष्ण की दृष्टि पड़ गयी। अर्जुन से उन्होंने कहा-पार्थ ! देखो जरा आज तुम्हारा प्रिय शिष्य मरना ही चाहता है। इतने में त्वरित गति से गाण्डीव से एक वाण ऊपर उठे भूरिश्रवा का हाथ काटकर हवा में उछाल दिया। उसने अर्जुन की भर्त्सना की। पार्थ, क्या तुम्हें द्वन्द्व युद्ध की परिभाषा नहीं मालूम ? कर्ण ने भी युद्ध बन्द कर दिया। अर्जुन ने कहा कि मैंने प्रतिज्ञा की है कि मेरे गाण्डीव की परिधि जहाँ तक जायेगी मैं स्वजनों की रक्षा करूँगा। तुमने भी निहत्थे सात्यकी को मारने हेतु किस धर्म का पालन किया था, जबकि वह मूर्छित पड़ा था? इतना सुनकर भूरिश्रवा युद्धभूमि में ही प्रायोपवेशन के लिए मन बनाकर बैठ गया और होश में आने पर सात्यकी ने तलवार से उसका सिर काट दिया। इतने में सूर्यास्त हो गया और युद्ध विराम का शंख बज उठा।

आज युद्ध का अट्ठारहवाँ दिन था। कर्ण के पास दुर्योधन ने उदास मुख लेकर कहा कि पाण्डवों का कोई भाई नहीं मरा, मेरे ९८ भ्राता काल-कवलित हो चुके। हमारे लड़के भी नहीं बचे। अब मेरे मन का बोझ तुम्ही कम कर सकते हो। कर्ण ने कहा- मित्र! मैं अपनी पूरी कोशिश करके भी अर्जुन का वध अभी तक नहीं कर सका। भगवान जिसकी रक्षा करते हैं वह कैसे मारा जा सकता है। मैं आज उसे अवश्य ही मारूँगा, अन्यथा वीर गति को प्राप्त हो जाऊँगा। युद्ध का शंख बज उठता है। सभी अपना मोर्चा सँभालते हैं। आज भीम दुःशासन को ही ढूँढ़ रहे थे। इतने में दूर लड़ता हुआ दुःशासन दिखाई पड़ गया। भीम ने तीव्र गति से अपना रथ उसके सामने खड़ा कर दिया। दोनों ही घनघोर युद्ध करते हुए रक्तरंजित हो उठे। भीम का रौद्र रूप आज चरम पर था। उसने भीमनाद करते हुए घोषणा की-जो भी चाहे आज दुःशासन को मुझसे बचा ले। उसकी घोषणा सुनकर द्रोणी ने कहा- मैंने तो सूत-पुत्र के ध्वज तले युद्ध न करने की घोषणा की है, नहीं तो मैं इस दुष्ट से दुःशासन को बचा लेता। अब कर्ण को ही इसे बचाना होगा। उधर कर्ण भी लथपथ होकर अर्जुन से जूझ रहा था। भीम की गर्जना सुनकर युद्ध विराम करके सभी भीम और दुःशासन का द्वन्द्व युद्ध को देखने लगे। भीम ने बर्बर सिंह की तरह झपटकर रणभूमि में उसे पटक दिया। दुःशासन की दाहिनी भुजा को पकड़कर सीने पर लात रखकर जोर से उखाड़ दिया। भीषण-रव के साथ ही भयानक चीख दुःशासन के मुख से निकल गयी। भीम ने भी हुँकार मारकर कहा-इसी हाथ से द्रौपदी का चीरहरण किया था। इसे मैंने उखाड़कर दूर फेंक दिया। अब मैं अपनी दूसरी प्रतिज्ञा भी पूरी करने जा रहा हूँ। इस पापी का वक्षस्थल विदारित कर इसके गर्म लहू को पान करूँगा। यह कहकर भीम ने सचमुच दुःशासन का छाती फाड़कर रक्त पान कर लिया। उसके खून को अपने शरीर पर लेपन करके मत्त की तरह उसके शव पर नाचने लगा और उसके रक्त को ले जाकर पांचाली के खुले केशों को बाँध दिया। इस दृष्य को देखकर सभी दहल उठे। पुनः युद्ध प्रारम्भ हो गया। शवों के ढेर लग गये।

कर्ण का अर्जुन के साथ भयानक युद्ध हो रहा था। आज वह अत्यन्त क्षुभित हुआ। वह भीम से दुःशासन की रक्षा नहीं कर सका। वह मात्र दुर्योधन का ही अनुज नहीं था, वरन् उसका भी अत्यन्त प्रिय था। इसी बीच एक अनहोनी हो गयी। शवों के अम्बार में कर्ण के रथ का एक पहिया फँस गया। घोड़ों ने कई बार जोर लगाया किन्तु रथ बाहर नहीं निकल सका। उसने अर्जुन से कहा हे महावीर ! तब तक तुम युद्ध बन्द कर दो, जब तक मैं इस रथ के पहिये को निकाल न लूँ। यह कहते हुए कर्ण रथ के पहिये को पकड़कर निकालने लगा। इतने में कृष्ण का संकेत पाकर पार्थ ने एक घातक वाण द्वारा कर्ण का हृदय वेध दिया। अर्जुन की उसने भर्त्सना की। इस पर माधव ने कहा कि अभिमन्यु का वध करते समय तुम्हारी नैतिकता कहाँ रही ? दिन के मध्याह्न में ही कर्ण का भास्वरित मुखमण्डल मलिन हो उठा।

इसके बाद द्रोणी ने आकर दुर्योधन से कहा कि राजन्, अब मुझे सेनापति नियुक्त कर दीजिए, जिससे आपके साथ ही मैं भी अपने पिता की निर्मम हत्या का प्रतिशोध ले सकूँ। दुर्योधन अत्यन्त दुखी था। उसने बिना कुछ उत्तर दिये ही शल्य को सेनापति नियुक्त कर दिया। मद्र नरेश ने भी अपूर्व रणकौशल का परिचय देते हुए भीषण संग्राम किया। युद्ध भूमि में युद्ध करते हुए नकुल का सामना शल्य से हुआ। नकुल ने बड़े वेग से अपने मामा पर हमला किया, किन्तु थोड़ी ही देर में पराजित हो गया। उसके सारथी ने दूर ले जाकर उसके गणों की रक्षा की। सहदेव से शकुनी का भयंकर युद्ध हो रहा था। दोनों ही एक-दूसरे पर जमकर प्रहार करते और अपना बचाव भी करते। सहदेव ने उस शकुनी के एक-एक षड्यन्त्र का ध्यान करते हुए वाण बरसाना जारी रखा। अन्ततः तलवार लेकर शकुनी सहदेव पर टूट पड़ा। सहदेव ने भी तलवार से प्रतिकार करना शुरू किया और अपने असि धार से शकुनि को यमलोक भेज दिया। उधर महाराज युधिष्ठिर ने शल्य पर हमला कर दिया। दोनों का भयंकर युद्ध चल रहा था। शल्य ने धर्मराज के सम्पूर्ण अस्त्र काट दिया। इतने में एक भयानक कुन्त लेकर युधिष्ठिर ने शल्य पर फेंक दिया। इसका काट न कर पाने से शल्य का गला कटकर भू-लुण्ठित हो उठा। सेनापति के मरने पर शेष कौरवी सेना का पाण्डवी सेना ने संहार कर दिया।

इतने में सूर्यास्त हो गया। युद्ध बन्द हो गया। कौरवों में मात्र चार लोग ही शेष रह गये। दुर्योधन, कृपाचार्य, अश्वत्थामा एवं कृतवर्मा। युद्धभूमि से पलायित होकर वे लोग कहीं छिप गये। दूतों ने समाचार दिया कि दुर्योधन दक्षिणी पोखरे के समीप दिखाई पड़े थे। पाण्डव उसे ढूँढ़ते हुए पोखरे तक जा पहुँचे। भीम थक चुके थे। उन्होंने सोचा कि जरा पानी पीकर प्यास बुझा लूँ, तब उसे ढूँढ़ा जाय। जब भीम ने पानी पीने के लिए हाथ बढ़ाया तो पानी बर्फ के रूप में जम चुका था। लोग आश्चर्यचकित हो गये। इतनी सर्दी भी नहीं है कि पानी बर्फ हो जाय। श्रीकृष्ण समझ गये कि दुर्योधन जलस्तम्भन क्रिया जानता है। वह निश्चित ही सरोवर के अन्दर छिपकर बैठा है।

धर्मराज भी जलस्तम्भन जानते थे। उन्होंने मन्त्र पढ़कर इसका काट किया। सरोवर का पानी लहराने लगा। श्रीकृष्ण ने भीम से कहा कि वह महावीर है। उसे द्वन्द्व युद्ध के लिए ललकारो, तभी वह बाहर आयेगा। भीम ने उसे ललकारा-कृतघ्न, नीच, पामर, कुलघाती, हत्यारे, सभी के तुम हत्यारे हो। अपने भाइयों के भी तुम्हीं हत्यारे हो। तुमने पितामह को भी वाणासन दिया, गुरुदेव को भी युद्ध विभीषिका में झोंकने वाले तुम्हीं हो। निर्लज्ज, अब आकर प्राण भय से इस जलाशय में छिप गये हो। भीम की दाहक वाणी सुनकर दुर्योधन आग के समान दहकने लगा। वह जल से बाहर आ धमका। उसने कहा कि तुम सभी पापी हो। पितामह को शिखण्डी की आड़ में कायर अर्जुन ने वाण बरसाकर निहत्थे सिंह को घायल कर दिया। गुरु द्रोण की हत्या, 'अश्वत्थामा वध' जैसी मिथ्या वाणी का आश्रय तुमने लिया। पापी युधिष्ठिर धर्मराज की पदवी लेकर मिथ्या भाषण कर अपने गुरु को मरवा दिया। कायरतापूर्ण मेरे प्रिय बन्धु कर्ण को मारकर वीर बनने का अर्जुन को धिक्कार है। मैं कायर नहीं हूँ। युद्ध से थककर थोड़ा सा विश्राम कर रहा था। अभी मैं अपनी तरफ का राजा हूँ। तुम्हारी तरफ के राजा युधिष्ठिर हैं। दोनों राजाओं का युद्ध होगा और इसमें जो विजयी होगा वही राजा बनेगा। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा कि हमारे पक्ष में राजा भीमसेन हैं। अतः तुम भीम से युद्ध कर सकते हो। इनसे जीतकर तुम राजा बने रहोगे। सन्ध्या समय में दोनों का गदा-युद्ध प्रारम्भ हुआ। भीम को दुर्योधन ने काफी परेशान किया, किन्तु महाबली भीम तो अतुलित बलवान था। महावीर पवन-पुत्र भीम ने दुर्योधन को गदा के प्रहार से थका दिया। दोनों के युद्ध-कौशल का श्रीकृष्ण ने बारीकी से निरीक्षण किया। भीम ने थक कर माधव की तरफ दृष्टिपात किया। श्रीकृष्ण ने संकेत किया कि इसके जंघे पर ही गदा से प्रहार करो। भीम ने गदा प्रहार करके दुर्योधन की जाँघ तोड़ दी। वह घायल होकर गिर पड़ा। दर्द से कराहते हुए वह श्रीकृष्ण को भला-बुरा कहने लगा। श्रीकृष्ण ने पाण्डवों से कहा कि इसे अब एकान्त में प्रायश्चित करने के लिए छोड़ दिया जाय।

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